उनकी आलोचना करो तो नाराज हो जाते हैं और प्रशंसा करो तो फूलकर कुप्पा हो जाते हैं। वे चाहते हैं सच को किंतु प्यार करते हैं झूठ को। रहते हैं हकीकत में जीते हैं कल्पना में। ऐसी अवस्था है हिन्दी के लेखक संगठनों की।
जो जितना बेहतरीन लेखक सामाजिक तौर पर उतना ही निकम्मा। श्रेष्ठता और सामाजिक निकम्मेपन का विलक्षण संगम हैं हिन्दी के लेखक संगठन। जैसे पुराने जमाने में राजा के दरबार में लेखक थे अब लेखक संगठनों में वैसे ही लेखक सदस्य होते हैं। फर्क यह है पहले दरबार था अब लेखक संगठन है। पहले राजा का दरबार था अब विचारधारा का दरबार है।
कहने का तात्पर्य यह है कि आधुनिक अर्थ में हिन्दी में अभी भी लेखक संगठन बन नहीं पाया है। लेखक संगठन के नाम पर हिन्दी में विचारधारा के दरबार हैं और जो इनके सदस्य वे दरबारी हैं। दरबारी अनुकरण और नकल के लिए अभिशप्त होता है। उसमें स्वयं जोखिम उठाने की क्षमता नहीं होती। वह अपने अधिकारों के प्रति अनभिज्ञ होता है। उदास होता है। उसके फैसले कोई और लेता है वह तो सिर्फ अनुकरण करता है। हिन्दी लेखक संगठनों में तीन बड़े संगठन हैं प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ और जन संस्कृति मंच। इन तीनों संगठनों के पास कुल मिलाकर पांच-छह हजार लेखक सदस्य हैं। इनके निरंतर जलसे,सेमीनार,सम्मेलन आदि होते रहते हैं। कभी-कभार राजनीतिक मसलों पर प्रतिवाद के आयोजन भी करते हैं।
हिन्दी के लेखक संगठनों के बारे में इंटरनेट और इलैक्ट्रोनिक मीडिया के परिप्रेक्ष्य में मूल्यांकन किया जाना चाहिए। लेखक संगठन और स्वयं लेखक मूलत: मीडिया है अत: उसका मूल्यांकन इंटरनेट और इलैक्ट्रोनिक मीडिया के परिप्रेक्ष्य में करना समीचीन होगा। आमतौर पर लेखक संगठनों की गतिविधियों का राजनीतिक-सामाजिक संदर्भ में मूल्यांकन किया जाता है जो कि बुनियादी तौर पर गलत है।
लेखक मीडियम है और मीडिया भी। लेखक संगठनों के ज्यादातर विमर्श प्रिंटयुग के विमर्श हैं। पुराने विमर्श हैं। ये वर्तमान को सम्बोधित नहीं करते। हिन्दी के लेखक संगठनों पर चर्चा करने का अर्थ व्यक्तिगत राग-द्वेष को व्यक्त करना नहीं है बल्कि उन तमाम पहलुओं को समग्रता में पेश करना है जिनकी लेखक संगठनों के द्वारा अनदेखी हुई है। लेखक संगठनों ने क्या किया है इसे लेखक अच्छी तरह जानते हैं। इस आलेख का लक्ष्य लेखक संगठनों के प्रति घृणा पैदा करना नहीं है बल्कि यह लेखक संगठनों की सीमा के दायरे के परे जाकर लिखा गया है।
विलोम के युग में इंटरनेट युग में संगठन की बजाय व्यक्ति बड़ा हो गया है। व्यक्ति की सत्ता,महत्ता और निजता का दायरा बढ़ा है। व्यक्ति के अधिकारों,परिवेश और दायित्वों को नए सिरे से परिभाषित किया जा रहा है। इस प्रक्रिया में लेखक संगठन, राजनीतिक दल और आधुनितायुगीन सांगठनिक संरचनाएं अप्रासंगिक हुई हैं। संगठन की अंतर्वस्तु अब वही नहीं रह गयी है जो कागज पर लिखी है अथवा भाषणों या दस्तावेजों में है। संगठनों ने अपना विलोम रचा है। हर चीज अपना विलोम रच रही है। विलोम की प्रक्रिया उन समाजों में ज्यादा तेज हैं जहां पर इंटरनेट संरचनाएं पैर पसार चुकी हैं।
इंटरनेट ने सांगठनिक संरचनाओं को नपुंसक बना दिया है,प्रभावहीन और भ्रष्ट बना दिया है। अब लेखक संगठन नहीं लेखक बड़ा है। लेखक संगठन की बनिस्पत लेखक के पास प्रचार-प्रसार के ज्यादा अवसर हैं। लेखन ज्यादा सरल और कम खर्चीला हो गया है। लेखक और समाज के बीच के सभी पुराने मध्यस्थ गायब हो चुके हैं। पुराने सेतुओं में आधुनिक और आखिरी सेतु था लेखक संगठन,इन दिनों वह भी प्रभावहीन और प्रतीकात्मक रह गया है।
लेखक संगठन का प्रतीक में तब्दील हो जाना, लेखक संगठन के प्रस्तावों का प्रभावहीन हो जाना,लेखकों की एकजुटता का टूट जाना, लेखकों का जोखिम उठाने से कतराना, लेखक संगठन के सदस्यों में मानवीयता का अभाव आम बात हो गयी है। यह परवर्ती पूंजीवाद के सकारात्मक और अनिवार्य प्रभाव हैं। इंटरनेट युग मनुष्य की नहीं तकनीकी की महानता का युग है,लेखन इसकी धुरी है।
सवाल उठता है सूचना युग में लेखक संगठनों की क्या प्रासंगिकता है? सूचना युग में क्या लेखक संगठन वही रह जाते हैं जो प्रिंटयुग में थे? क्या साहित्य का स्वरूप सूचना युग में बदलता है? क्या उपन्यास का सूचनायुग में वही अर्थ है जो प्रिंट युग में था? क्या छपे हुए उपन्यास और हाइपरटेक्स्ट अथवा स्क्रीन उपन्यास में कोई फर्क है? क्या ‘मौत’ या ‘अंत’ के पदबंधों का चालू अर्थ में विवेचन संभव है? क्या साहित्यिक कृति की सूचना युग में अर्थ और भूमिकाएं बदली हैं? इत्यादि सवालों पर समग्रता में विचार करने की जरूरत है।
एक जमाना था साहित्यिक कृति का काम था सुनिश्चित संस्कृति और मूल्यों का प्रचार करना। आज कृति की इस भूमिका को ‘चिप्स’, डेटावेस, इलैक्ट्रोनिक अर्काइव और तद्जनित तकनीकी रूपों ने अपदस्थ कर दिया है। हाइपरटेक्स्ट आख्यान ने अपदस्थीकरण की इस समूची प्रक्रिया को जटिल और तेज कर दिया है। साहित्य का निरंतर डिजिटल अवस्था में रूपान्तरण हो रहा है। आज साहित्य पूरी तरह इतिहास से अपने को अलग कर चुका है। साहित्य के सारे विवाद इतिहास से अलग करके पेश किए जा रहे हैं।
सामयिक दौर की बड़ी घटनाएं त्रासद घटनाएं हैं। आज इतिहास और त्रासद घटनाएं हमारे विमर्श का संदर्भ नहीं हैं। फलत: यथार्थ का लोप हुआ है और हम नकल के युग में दाखिल हो गए हैं। नकली यथार्थ के चित्रण में मगन हैं। इतिहास और अतीत के प्रति लाक्षणिक प्रतिक्रियाएं व्यक्त हो रही हैं। इतिहास के प्रति लाक्षणिक प्रतिक्रिया का आदर्श उदाहरण है हाल के वर्षों में चला ”रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद आन्दोलन।” प्रतिक्रिया में व्यक्त की गई चीजों को स्मृति में रखना संभव नहीं होता। उसे हम जल्दी भूल जाते हैं।
प्रतिक्रियास्वरूप पैदा हुए भारत-विभाजन की विभीषिका को भूल चुके हैं। गुजरात के दंगे भूल चुके हैं। नंदीग्राम के जनसंहार को भूल चुके हैं। वह विस्मृति के गर्भ में चली जाती है। हम बहुत जल्दी ही भूल गए कि द्वितीय विश्वयुद्ध में क्या हुआ था। द्वितीय विश्वयुद्ध की विभीषिका को अब साउण्ड ट्रेक, इमेज ट्रेक, सार्वभौम स्क्रीन और माइक्रोप्रोसेसर के जरिए ही जानते हैं। पहले हमने विभीषिका को देखा, सौंदर्यबोधीय बनाया, फिर हजम किया और बाद में सब भूल गए।
-imran haider
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