उपभोक्तावादी संस्कृति के चलते धन की चाहत ने लोगों को संवेदनहीन बना दिया है। वे पैसा कमाने के लिए खाद्य पदार्थों में भी मिलावट करने लगे हैं। कुछ जालसाज और स्वार्थी लोगों द्वारा शुद्ध दूध के नाम पर ‘सिंथेटिक दूध’ पीने के लिए मजबूर किया जा रहा है।
यह सिंथेटिक दूध रिफाइंड आयल, कास्टिक सोडा, यूरिया, चीनी और डिटर्जेंट के मिश्रण से बनाया जाता है। यह कृत्रिम दूध स्वास्थ्य के लिए विशेषकर बच्चों, गर्भवती महिलाओं, बुजुर्गों और हृदय व गुर्दे की बीमारी से पीड़ित लोगों के लिए बेहद नुकसानदेह है।
अकेले दिल्ली महानगर में रोजाना करीब 55 लाख लीटर दूध की मांग है, जिसमें से मदर डेयरी से करीब 13 लाख लीटर दूध, दिल्ली दुग्ध योजना से ढाई लाख लीटर, संगठित क्षेत्र की डेयरियों से करीब 14 लाख लीटर और असंगठित क्षेत्र के दुग्ध उत्पादकों, किसानों और पड़ोसी राज्यों से प्रतिदिन आने वाले दूध वालों से साढ़े तीन लाख लीटर दूध की आपूर्ति हो रही है। इसके अलावा करीब 23 लाख लीटर दूध की शुद्धता को लेकर भारी संदेह है।
इस बात की प्रबल संभावना है कि यह दूध् कृत्रिम तरीकों से निर्मित किया जाता है। गौरतलब है कि नकली दूध प्राकृतिक दूध की तरह ही दिखता है। लेकिन, इसका स्वाद थोड़ा-सा अलग होता है। इसके बावजूद चखने से इसकी पहचान नहीं हो पाती। सिंथेटिक दूध में सस्ते खाद्य तेल का इस्तेमाल किया जाता है। कपड़े धोने के काम आने वाले डिटर्जेंट का इस्तेमाल इमप्लीफाई करने में होता है। इस विलयन को पानी में मिलाकर झाग पैदा किए जाते हैं।
इसमें यूरिया और चीनी प्राकृतिक दूध के प्रोटीन, विटामिन और खनिज लवण का स्थान लेते हैं। तेल वसा के लिए इस्तेमाल किया जाता है। प्राकृतिक दूध में 86 फीसदी पानी होता है। भैंस के दूध में छह फीसदी वसा होता है। गाय के दूध में वसा तीन से साढ़े चार फीसदी होता है। प्रोटीन, विटामिन, पोटेशियम और पोटेशियम-कैल्शियम के खनिज लवणों की मात्रा नौ फीसदी होती है। कच्चा दूध जल्दी ही फट जाता है। निकालने के चार घंटे के भीतर उबाल न लिया जाए या पाश्चराइज्ड न कर लिया जाए। तो यह निश्चित ही फट जाता है।
कहते हैं कि करीब डेढ़ दशक पहले हरियाणा के चंद ग्वालों ने कृत्रिम ढंग से दूध बनाना शुरू किया था। लेकिन, उसके बाद सफेद दूध का यह काला कारोबार उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, दिल्ली और राजस्थान सहित देशभर में फैल गया। सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि आम उपभोक्ता प्राकृतिक दूध और सिंथेटिक दूध में फर्क नहीं कर पाता। दूध के वसा और तेल के वसा में अंतर का पता विशेष उपकरणों के माध्यम से ही किया जा सकता है। ‘लेक्टोमीटर’ तो यह भी नहीं बता सकता कि दूध में यूरिया मिलाया गया है या नहीं? लेकिन, कोई भी तरीका इतना सस्ता और सुलभ नहीं है कि उसे घर पर ही इस्तेमाल में लाया जा सके। अगर कुछ देर बाद दूध के प्राकृतिक रंग में पीलापन आ जाए तो यह तय है कि दूध में कास्टिक सोडा मौजूद है।
प्राकृतिक दूध को अधिक समय तक संरक्षित रखने के लिए यूरिया, कास्टिक, रीठा पाउडर, केस्टर आयल, पैराफिन आदि रसायनों का इस्तेमाल किया जाता है। यह दूध काफी समय तक नहीं फटता। यहां तक कि छेना मिठाई बनाने वाले हलवाई भी इस दूध को फाड़ने में परेशानी महसूस करते हैं। दूध को संरक्षित रखने के लिए उसमें रसायनों को मिलाने जाने को उचित ठहराते हुए दुग्ध व्यापारी दलील देते हैं कि दिल्ली, कोलकाता और मुंबई आदि महानगरों में दूध की खपत ज्यादा है। इसलिए दूर-दराज के इलाकों से दूध ले जाना पड़ता है। परिवहन में दो से सात घंटे तक का समय लगता है। ऐसी हालत में दूध को खराब होने से बचाने के लिए उन्हें मजबूरन रासायनिक पदार्थों का इस्तेमाल करना पड़ता है।
स्वास्थ्य विशेषज्ञों के मुताबिक कास्टिक सोडे में मौजूद सोडियम से अत्यधिक तनाव की बीमारी हो सकती है। बुजुर्गों के लिए तो यह और भी ज्यादा नुकसानदायक है। हृदय रोगियों के लिए भी यह घातक साबित हो सकता है। कास्टिक सोडे के कारण शरीर लाइसिन का इस्तेमाल नहीं कर पाता है। लाइसिन नामक एमीनो एसिड बच्चों के विकास के लिए जरूरी है। इसके सेवन करने से आंतों में घाव होने का खतरा भी पैदा हो जाता है।
बाजार में दूध के नाम पर सिंथेटिक दूध बेचकर लोगों की सेहत के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है। स्वास्थ्य विभाग को चाहिए कि वह समय रहते कृत्रिम दूध की बिक्री पर अंकुश लगाने के लिए उचित व कारगर कदम उठाए। कृत्रिम दूध बनाने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जानी चाहिए। जनता को संचार माध्यम द्वारा जागरूक करना चाहिए। हालांकि दिल्ली राज्य के स्वास्थ्य मंत्रालय ने सिंथेटिक दूध की रोकथाम के लिए अधिकारियों को विशेष निर्देश दिए हैं। लेकिन, इससे कुछ नहीं हो रहा है। अत: गंभीर कदम उठाने की जरूरत है।
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