कृषि में रसायनों का अनियंत्रित उपयोग मानव जगत के शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य हेतु हानिकारक है। अनुसंधानों के तथ्य यह बताते हैं कि रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों के अनियंत्रित उपयोग से मानव स्वास्थ्य पर त्वरित एवं दूरगामी परिणाम होते हैं। जो मनुष्य इन रसायनों के सीधे संपर्क में आते हैं, उनमें त्वरित परिणाम देखने को मिलते हैं जैसे बेहोशी, चक्कर, थकान, सिरदर्द, चमड़ी में खुजली, ऑंखों के आगे अंधेरा छाना, उल्टी आना, श्वास लेने में परेशानी इत्यादि। ग्रामीण क्षेत्रों में अनेक लोगों के द्वारा कीटनाशक पीकर आत्महत्या की कई घटनाएं रिर्पोटेड हैं। कृषि रसायनों में दूरगामी परिणामों में मनुष्यों में नपुंसकता, गर्भपात, कैंसर, शारीरिक एवं मानसिक विकलांगता इत्यादि देखे गये हैं।
हमारे देश में हरितक्रांति काल में पंजाब प्रांत में अधिक उत्पादन के उद्देश्य से कीटनाशकों एवं उर्वरकों का बहुतायात में उपयोग किया जाने लगा। इसके दुष्परिणाम भी यहीं सामने आये। जमीनों की उर्वरता कम होने लगा। अनेक कृषक कर्ज के जाल में उलझ गये। बालों का सफेद होना, लैंगिक असंतुलन, प्रजनन प्रणाली में विकृति एवं कैंसर जैसी बीमारियों का एक प्रमुख धारणा खेती में कीटनाशकों के अनियंत्रित उपयोग को माना गया। पंजाब कृषि विश्वविद्यालय लुधियाना के एक शोध कार्य में अधिकांश खाद्य पदार्थ कीटनाशकों से संदुषित पास गए।
जान हापकिं ग्स यूनिवर्सिटी वाल्टीमोर (मेरीलैंड), अमेरिका के द जरनल ऑफ अल्टरनेटिव एण्ड कंपलीमेंट्री मेडिसिन (2001) में प्रकाशित एक अनुसंधान रिपोर्ट के अनुसार जैविक विधि से उत्पादन अनाज, सब्जी फलों की पोषण गुणवत्ता, रासायनिक विधि से उत्पादित अनाज सब्जी, फलों की तुलना में काफी अधिक होती है। हमारे बुजुर्ग भी अक्सर यही कहा करते हैंकि अन्न, सब्जी, फलों में पुराना स्वाद नहीं रह गया।
हरित क्रांति से पूर्व कृषि परंपरागत तरीकों पर आधारित थी। इस प्रणाली में खेती, बागवानी एवं पशुपालन एक दूसरे के पुरक थे, जिसके अंतर्गत एक प्रणाली का अवशेष अन्य प्रणाली के पोषक के रूप में उपयोग होता था। तात्पर्य यह है कि खेती बागवानी शहरो, गांवों, खलिहानों के सड़ने वाले अवशेष को जैविक खाद के रूप में परिवर्तित कर फसलोत्पादन के रूप में होता था तथा खेतों एवं बागवानी से प्राप्त उत्पादन प्राणी मात्र के उदर पोषण के साथ उद्योगों के उपयोग में आता था। यह थी हमारी संपूर्ण व्यवस्था, स्वस्थ खाद व्यवस्था जिससे ही स्वस्थ था हमारा शरीर और मन, जिससे ही स्वस्थ थे हमारे विचार था।
शुध्द आहार ही स्वस्थ शरीर का आधार है। हमारे चिकित्सक बंधुओं को जैविक आहार के विषय में जागरूक होने की आवश्यकता है ताकि वे रोगियों को ऐसे आहार की अनुशंसा कर सकें।
आज अवश्यकता है हम सबके अन्नदाता को सहारा देने की, शिक्षण देने की, परंपरागत ग्रामीण स्वस्थ खाद व्यवस्था लागू करने की। अन्न एवं अन्नदाता के महत्व को समझाने की। स्वस्थ अन्न के उपयोगकर्ता जब तैयार हो जाएंगे तो स्वस्थ अन्न उगाने वाले स्वतः ही तैयार हो जायेंगे। चाहे वह छोटा कृषक हो या बड़ा कृषक, अधिकांश बाजारोंन्मुखी खेती करते हैं। अच्छी गुणवत्ता वाला अन्न का दाम यदि अच्छा मिलने लगे तो हम कामयाब हो सकेगे जैविक अन्न उगाने में। मांग तैयार कर ही दाम मिल सकेंगे। दाम मिलेंगे तो लोग अपनायेंगे।
आज की परिस्थिति का पुनः अवलोकन करने पर ज्ञात होता है कि आज रबी की फसल के लिए खाद संकट उत्तर भारत में है। किसान अक्रोशित हैं। अन्नदाता असहाय है। इस वक्त इसके आंदोलनों के साथ खड़े होकर एक मुहिम चलाई जा सकती है। इस रासायनिक खाद की व्यवस्था से हमारी गौ संपदा खाद जो कि शुगर मिल के फ्रेसमड और देशी गाय के गोबर से निर्मित है और 11 लाख कुंटल मात्रा में उपलब्ध है, का उत्पादन व उपयोग बेहतर है। सभी दृष्टि में गुणवत्ता और मात्रात्मकता दोनों में यही एक मात्र विकल्प है। हमें यह समझाने का प्रबंध करना होगा कि ‘खाद संकट का स्थायी सस्टेनेविल उपाय गौ संपदा खाद का प्रयोग है’। वापस गौ, ग्राम, ग्रामीण और ग्रामोद्योग की व्यवस्था में जाने का यह सही वक्त है। खाद संकट से खाद्यान्न संकट उत्पन्न होंगे। खाद्यान्न संकट से खाद्य सुरक्षा गड़बड़ायेगी अवश्य। अच्छा मुद्दा हो सकता है गरीब, गाँव और विकास का।
हम इसी वक्त रासायनिक खाद, जो कि कुःखाद है, को हटाकर सुःखाद ‘गौसंपदा’ को स्थापित कर सकते हैं और जब मांग बन गई तो उत्पादन भी करना होगा। जन आंदोलन, खाद संकट के वक्त बनाये जा सकते है जैविक कृषि के लिए।
साझा कार्यक्रम चलाये जोएंगे। मॉडल गाँव में गौग्राम सेवा केंद्र बनाये जायेंगे, जहाँ गौपालन की सामूहिक सहकारी व्यवस्था होगी। नरेगा कार्यक्रम पर भी हम जन आंदोलन खड़े कर सकते हैं। नरेगा कार्यक्रम असफल हो चुका है। इसे पुनर्विचार करने हेतु सरकार का धेराव ग्रामीण अंचलों में कुछ परिणामदायक हो सकता है कि 100 रु. और 100 दिन के सत्ता का पिरामिड बदल सकता है।
गौ सेवा केंद्रों में बायोगैस प्लांट, दुग्ध उत्पादन एवं गौशाला प्रबंधन के कार्य किये जायेंगे। गौपालन सामूहिक होगा। अपने सदस्यों की एक गाय/बैल की व्यवस्था केंद्र करेगा तथा शुरू चरण में यह साझा घरेलू ईंधन गैस को अपने सदस्य किसानों को देगा। बायोगैस और जैविक खाद का उत्पादन उसके सदस्यों की होगी। इसके लिए समिति का गठन करना होगा।
इन गौ सेवा केंद्रों के बनाने से ही सत्ता पिरामिड बदला जा सकेगा। यह समानांतर व्यवस्था होगी ग्राम पंचायत के ग्राम पंचायत सत्ता का राजनैतिक ढांचा है तो हमारी गौ ग्राम सेवा केंद्र एक संपूर्ण सामाजिक ढांचा होंगे। प्रत्यक्ष रूप में तो यह किसान गौग्राम सेवा समितियां होंगी किंतु इस समाज की क्वालिटी ऑफ लाइफ जीवन मूल्यों के उन्नयन पर यानी स्वस्थ स्वच्छ वातावरण, सामाजिक विकास आदि। मूल विषयों के प्रति जन सहयोग और जन भागीदारी का ध्यान रखेंगी।
इनको पुनर्जागरण का केंद्र बनाया जा सकता है। बायोगैस ऊर्जा, जैविक कृषि, गौवंश संरक्षण एवं संबंधित आदि तमाम रोजगार परक योजनाओं के साथ-साथ अपने गौ ग्राम और ग्रामीण गरीबों की समस्या में गांवों के किसानों और युवकों को साथ लेकर समूह श्रम प्रयास किये जाने होंगे।
इस प्रकार हम प्रत्यक्षतः जैविक कृषि के लिए खाद उपलब्ध करवा सकेंगे। साथ ही साथ एक नव समाज का गठन कर सकेंगे। गौ आधारित एक ऐसी साझा संस्कृति का विकास किया जा सकेगा जिसमें धर्मों और संप्रदायों का भेदभाव न हो, केवल मानव बसे और केवल गौवंश आधारित व्यवस्था हो तभी यह श्वेत क्रांति होगी। किसान खुशहाल होंगेऔर तभी देश खुशहाल होगा। देश की खुशहाली का लक्ष्य है गौ आधारित ग्राम विकास मॉडल परियोजना का। इन्हीं प्रयासों द्वारा ही कृष्ण काल को लौटाया जा सकता है।
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