ग्रामीण विकास मंत्रालय की स्वायत्त इकाई कपार्ट (काउंसिल फॉर एडवांसमेंट ऑफ पीपल्स एक्शन एंड रूरल टेक्नोलॉजी) ने धन का दुरुपयोग करने के मामले में देश के 833 गैर सरकारी संगठनों (एनजीओ) और स्वैच्छिक संगठनों को काली सूची में डाल दिया है। इससे यह बात साफ हो गई कि एनजीओ के बारे में जो आम धारणा लोगों की है वह गलत नहीं है। आम लोगों का मानना है कि 80 प्रतिशत एनजीओ समाजसेवा के नाम पर स्वयंसेवा का कार्य करते हैं। यानी जो पैसा सरकार, विदेश और समाज से स्वयंसेवी संस्थाएं लेती हैं उसका उस मद में उपयोग न करके किसी और मद में करती हैं। आम तौर पर विकास और जन-कल्याण के जो कार्य सरकार नहीं कर पाती, वे स्वयंसेवी संगठनों और स्वैच्छिक संगठनों के लिए छोड़ दिये जाते हैं। आजादी के बाद इस तरह के संगठन अपने अच्छे कार्यों से जनता और सरकार के द्वारा पुरस्कृत भी होते रहें हैं। लेकिन अब इनके कार्य विवाद के दायरे में आ गये हैं।
अब एनजीओ और स्वैच्छिक संगठन का मतलब पैसा कमाऊ पूत। दरअसल, एनजीओ की जो भूमिका समाज कल्याण और विकास में होती थी अब वह स्वयं को पोषण देने और स्वार्थ साधने में होने लगी है। सरकारें अब अक्सर उन स्वयंसेवी संस्थाओं को धन मुहैया बगैर किसी जांच-पड़ताल के कराने लगीं हैं जिनकी पहुंच असरदार नेताओं और नौकरशाहों तक होती है। इस कारण हजारों की तादाद में ऐसी स्वयंसेवी संस्थाएं कुकुरमुत्तों की तरह उग आई हैं जिनका कार्य महज फाइलों तक ही सीमित होता है। सैकड़ों की तादाद में विदेशी धन के बल पर फूलने-फलने वाली संस्थाएं हैं जिनका कार्य विवादास्पद होता है। इन संस्थाओं को धन अमेरिका, इंग्लैंड, फ्रांस, जापान, नार्वे, स्वीडन, जर्मनी, रूस, कनाडा और आस्ट्रेलिया से आता है। यह विदेशी धन बाल विकास, बंधुआ मजदूरी, शिक्षा, पर्यावरण, सफाई, धर्म प्रचार, बाल श्रम उन्मूलन, विकलांग सेवा, योग, साम्प्रदायिक सद्भाव, स्वास्थ्य रक्षा, गरीबी उन्मूलन, बीज, सुलभ शौचालय, दहेज उन्मूलन और अंधविश्वास उन्मूलन के लिए आता है। एनजीओ और स्वैच्छिक संस्थाओं को इतनी बड़ी रकम सरकार, जनता और विदेश से मुहैया कराया जाता है लेकिन इनका अधिकांश हिस्सा दूसरे मद में बर्बाद कर दिया जाता है। बहुत बड़ी तादाद में काला धन भी इनके पास आता है जिसका कोई हिसाब-किताब नहीं होता है। विदेशी धन को लेकर बहुत बार विवाद होते रहे हैं। लेकिन विदेशी धन के नाम पर मजा करने वाली संस्थाओं का इस मामले में दो टूक जवाब होता है-पैसा तो पैसा होता है, उसमें स्वदेशी-विदेशी कुछ भी नहीं होता है। यदि विदेशी धन से जरूरतमंद लोगों की सेवा की जा सकती है तो इसमें बुराई क्या है।लेकिन वह सेवा हो तब न। इस तरह की तमाम दलीलें ये संस्थाएं देती हैं और विदेशों से प्राप्त धन का बड़े पैमाने पर दुरुपयोग करती हैं। कपार्ट ने जिन 833 एनजीओ और स्वैच्छिक संगठनों को काली सूची में डाला है वह तो दाल में नमक के भी बराबर नहीं है। हजारों नहीं लाखों की तादाद में ऐसी स्वैच्छिक संस्थाएं हैं जो अनुदान और विदेशों से प्राप्त अरबों रुपये यूं ही बर्बाद कर देती हैं। लाखों की तादाद में ऐसी स्वयंसेवी संस्थाएं हैं जो महज फाइलों में कार्य करती हैं। न तो सरकार उनकी पड़ताल करती है और न ही उनके कार्यों के बारे में कोई सरकारी समिति ही जांच करती है। मतलब जो भ्रष्टाचार नेताओं, नौकरशाहों और ठेकेदारों के जरिए किया जाता है उससे कहीं ज्यादा भ्रष्टाचार एनजीओ और स्वैच्छिक संगठनों में है। ऐसे में एक सवाल सहज रूप से उठता है कि जब ज्यादातर एनजीओ और स्वैच्छिक संगठनों का चरित्र पारदर्शी नहीं रह गया है तो क्यों इन्हें सरकार और जनता धन मुहैया कराती है? विदेशों से जो धन हवाला के जरिए आता है उसका तो कोई लेखाजोखा ही नहीं होता है। यह धन देश में आतंक फैला रहे आतंकवादियों के पास तो आता ही है, देश भर में फैले माफिया-तंत्र भी इस धन से अपना स्वार्थ सिद्ध करता है। विदेशी धन को लेकर अनेक सवाल उठाए जाते रहे हैं। इनमें सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि विदेश से जो पैसा एनजीओ प्राप्त करते हैं उनके साथ तमाम ऐसी शर्तें जुड़ी होती हैं जो देश और समाज के हित में नहीं होती हैं। इसमें कुछ ऐसी खुफिया बातें भी होती हैं जो देश और समाज के लिए छिपाने वाली होती हैं। विदेशी धन के बारे में यह भी रोचक बात है कि यह धन ज्यादातर पारदर्शी तरीके से नहीं प्राप्त होता है। इसलिए केंद्र सरकार इस धन पर खुफिया-तंत्र के माध्यम से नजर रखती है। इसके बावजूद विदेशी धन प्राप्त करने की शर्तों के मुताबिक देश के अनेक गुप्त योजनाएं और कार्य स्वयंसेवी संस्थाओं के जरिए बड़े गुप्त तरीके से दुनिया के अनेक देशों में पहुंच जातीं हैं।
एक अनुमान के मुताबिक हर साल 500 करोड़ से ज्यादा पैसा एनजीओ सेवा के नाम पर विदेशों से हासिल करते हैं। सबसे ताज्जुब की बात यह है कि विदेशी धन प्राप्त करने वाली स्वयंसेवी संस्थाओं के देशद्रोही कार्यों को न तो सरकार पकड़ पाती है और न तो खुफिया-तंत्र ही। एक तरह से पूरे देश में एक रैकेट चलने की बात पर्यवेक्षक मानते हैं जो विदेशी पैसे के जरिए फूल-फल रहा है। सरकार और खुफिया-तंत्र जब तक गहराई और निष्पक्ष तरीके से इनकी पड़ताल नहीं करेंगे तब तक इनके मकड़जाल को तोड़ना असंभव ही है। इसलिए जरूरत इस बात की है कि सरकार और खुफिया-तंत्र इन पर कड़ी नजर रखे। जो एनजीओ देश की अस्मिता को नुकसान पहुंचाने का कार्य करती पकड़ी जाएं, उन पर कानून के मुताबिक कार्रवाई की जाए और उनका पंजीयन हमेशा के लिए समाप्त कर दिया जाना चाहिए। साथ ही उसके मालिक के खिलाफ आपराधिक रपट दर्ज करके उसके प्रति कठोर से कठोर कार्रवाई करनी चाहिए। इसके अलावा जो संस्थाएं महज फाइलों पर ही कार्य करती पकड़ी जाएं, उनके विरुद्ध कड़ी कार्रवाई करने की जरूरत है, जैसे 833 गैर सरकारी संस्थाओं को ग्रामीण मंत्रालय की स्वायत्त इकाई कपार्ट ने पिछले दिनों काली सूची में डाल दिया, ऐसी ही कार्रवाई दूसरे मंत्रालयों से संबद्ध इकाइयों को भी उस क्षेत्र से संबंधित एनजीओ के कार्यों को पड़ताल करके करना चाहिए। इससे जहां एनजीओ के कार्यों में स्पष्टता एवं इमानदारी आएगी वहीं पर काले धन और सरकारी धन के दुरुपयोग पर भी लगाम लग सकेगी। केंद्र सरकार एनजीओ की गतिविधियों पर जिस तरह से नजर रखनी चाहिए वैसी नहीं रख पा रही है। राज्य सरकारों का भी वही रवैया है। इसलिए एनजीओ फायदे उठाकर काले का सफेद और सफेद का काला करने में लगे रहते हैं। सरकारें इस बात को जानती भी है लेकिन उनके खिलाफ कार्रवाई करने से हमेशा बचतीं रहती हैं। यह इसलिए कि ज्यादातर बड़े एनजीओ नेताओं, बड़े नौकरशाहों या ऊंचे पहुंच के लोगों के होते हैं। इसलिए हर वर्ष अरबों रुपए स्वयंसेवी संस्थान और एनजीओ समाजसेवा के नाम पर डकार जाते हैं। इसलिए जब तक सरकारें इनके प्रति निष्पक्ष तरीके से तीव्र कार्रवाई नहीं करती हैं तब तक इनके गोरखधंधे पर लगाम लगना असंभव हीं है। मतलब जनता के पैसे को जनता के लिए उपयोगी बनाने के लिए जनता द्वारा, जनता के लिए और जनता के प्रतिनिधि अपने निहित स्वार्थों से ऊपर उठकर कार्य करने के लिए आगे नहीं आते हैं, इस लूट को रोक पाना असंभव ही है।
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