केंद्रीय गृहमंत्री पी. चिदंबरम द्वारा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री के रोसैया के बीच दो दौर की वार्ता और कांग्रेसाध्यक्षा सोनिया गांधी व कैबिनेट के वरिष्ट सहयोगियों के साथ बैठक करने के बाद 9 दिसंबर, 2009 को तेलंगाना को अलग राज्य का दर्जा देने की मांग मान ली गई। उक्त मांग के स्वीकार होते ही तेलंगाना राष्ट्र समिति के नेता चन्द्रशेखर राव ने अपना 11 दिन से चला आ रहा आमरण अनशन समाप्त कर दिया और पूरे क्षे? में समर्थकों द्वारा खुशियां मनाई गयी वहीं गृहमंत्री की घोषणा के 24 घंटे के अंदर ही स्वयं कांग्रेस पार्टी में ही आंध्र प्रदेश के विभाजन का विरोध प्रारंभ हो गया। यहां तक एक बड़े गुट के नेता ने तो रायलसीमा क्षे? को भी अलग करने की मांग उठानी शुरू कर दी। केंद्रीय गृहमंत्री द्वारा तेलंगना के रूप में एक नये राज्य को स्वीकार करने के बाद देश भर में वर्षों से चली आ रही नये प्रांतों की मांग अब और बलवती हो गयी है। नए राज्यों की मांग उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने की है। अपनी मांगों के अनुरूप उन्होंने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर पूर्वांचल, बुंदेलखंड व हरित प्रदेश के रूप में तीन नए प्रांतों की मांग कर डाली है।
उधर केंद्र सरकार द्वारा तेलंगाना राज्य की मंजूरी मिलने के बाद पश्चिम बंगाल में गोरखालैंड के समर्थक भी अपनी मांगो को मनवाने के लिए जी-जान से जुट गए है। गोरखा लैंड समर्थकों ने तो आमरण अनशन भूख हड़ताल जैसे जनआंदोलन प्रारंभ कर दिए हैं। उधर बिहार में मिथिलांचल व जम्मू कश्मीर को तीन हिस्सों में विभाजित करने व महाराष्ट्र में विदर्भ के गठन को लेकर भी राजनीति प्रारंभ हो गयी है।
केंद्रीय गृहमंत्री ने तेलंगाना को मंजूरी देकर अतिशीध्रता में एक गलत निर्णय लिया है। छोटे राज्यों का गठन निश्चय ही बहुत सोच-समझकर लिया जाना चाहिए। केंद्रीय गृहमंत्री ने चंद्रशेखर राव का आमरण अनशन तुड़वाने के लिए एक राजनैतिक चाल उनके गले की फांस बनती जा रही है। स्वयं कांग्रेस में ही विरोध के स्वर मुखारित ह?ए हैं। नए राज्यों के समर्थकों का यह तर्क बेबुनियाद है कि छोटे प्रांतों में ही त्वरित विकास संभव है। वर्ष 2000 में जिन तीन छोटे प्रांतों छत्तीसगढ़, झारखंड और उत्तराखंड का गठन हुआ, के विकास व प्रशासनिक स्थिति से पूरा देश वाकिफ है। छोटे राज्यों में नित नयी समस्याएं मुंह खोले खड़ी रहती हैं। देश के पूर्वोत्तर प्रांत बहुत छोटे हैं लेकिन वहां पर सत्ता पर नियंत्रण को लेकर घात-प्रतिघात बनी रहती है। छोटे प्रांतों में विशेष रूप से मिजोरम, नागालैंड में क्षेत्रवाद-भाषावाद की राजनीति व आतंकवाद को प्रश्रय देने वाले नेताओं व संगठनों की बयार आसानी से देखी जा सकती है। उधर गोवा जैसे शांत प्रांत में भी मात्र दो-तीन विधायक ही मिलकर सत्ता को हथियाने का खेल खेलते रहते हैं। छोटे प्रांतों में विकास कैसे होता है इसका एक प्रमुख उदाहरण झारखंड भी है, जहां मधु कोड़ा जैसे भ्रष्टाचार में लिप्त नेताओं व उनके सहयोगियों का उदय हुआ। झारखंड का संवैधानिक संकट सर्वोच्च न्यायालय से लेकर राष्ट्रपति भवन की चौखट तक पहुंच गया था। रही बात उत्तराखंड की तो यह राज्य भी अभी तक अपने पैरों पर खड़ा होने में सक्षम नहीं हो सका है। उत्तराखंड अभी भी हर छोटी-छोटी बात के लिए उत्तर प्रदेश की ओर मुंह ताकता है। केवल छत्तीसगढ़ ही एक ऐसा प्रांत निकला है जहां पर स्थिर सरकार व शासन के कारण कुछ सीमा तक विकास को गति मिली है।
अब रही उत्तर प्रदेश की विभाजन की बात तो यह मांग तो पूरी तरह से राजनैतिक ही है। छोटे प्रांतों का गठन सदा दुश्वारियों भरा होता है जिसमें केंद्र सरकार को नये सिरे से आर्थिक सहायता प्रदान करनी पड़ती है, प्रशासनिक ढांचा तैयार करना पड़ता है। अतः केंद्रीय नेतृत्व को छोटे प्रांतों के गठन की शीघ्रता नहीं करना चाहिए अपितु राज्य पुनर्गठन आयोग का गठन करके सभी मामलों को उसके पास भेज देना चाहिए और उसी रिपोर्ट के आधार पर नए राज्यों का गठन करना चाहिए। छोटे प्रांतों में प्रायः एक समस्या यह भी है कि छुटभैये नेता अपनी गुंडागर्दी के बल पर सरकारी ठेकों पर कब्जा करने का प्रयास करते हैं। जिसके कारण विकास की गति को ठेस पहुंचती है। झारखंड इसका एक बड़ा उदाहरण है।
वास्तव में बड़े प्रांत ही विकास की गति को दर्शाते हैं। छोटे राज्यों की पीड़ाएं होती है, जो उनके गठन के बाद की हीं दिखाई पड़ती हैं। प्रारंभिक राजनैतिक स्वार्थ भरा उत्साह शीघ्र ही बिखरने लगता है। छोटे राज्यों का गठन कई नये विवादों को जन्म देता है, जिसमें परिसंपत्तियों का बंटवारा, नदियों के जल का बंटवारा, कार्यरत कर्मचारियों की मूल निकासी की समस्या आदि प्रमुख है।
छोटे प्रांतों की मांग की राजनीति एक प्रकार विशुद्ध क्षेत्रवाद की ही राजनीति है। अतः देश के बड़े राजनैतिक दलों का यह प्रथमर् कर्तव्य भी बनता है कि वे क्षेत्रवाद की राजनीति को प्रश्रय व बढ़ावा न दें अपितु उन्हें समाप्त करने का प्रयास करें। छोटे प्रांतों की मांग को मानने से क्षेत्रवाद की राजनीति पुष्ट होती है और उससे उन विदेशी ताकतों को बल प्राप्त होता है जो भारत को खंड-खंड देखना चाहते हैं। अतः अब समय आ गया है कि सभी राष्ट्रीय राजनैतिक दल एक साथ बैठकर छोटे प्रांतों से संबंधित मांगों पर एक साथ विचार कर उक्त प्रकरणों को राष्ट्रहित में समाप्त करें अन्यथा क्षेत्रवाद पर आधारित मांगें देश को जला देंगी।
उधर केंद्र सरकार द्वारा तेलंगाना राज्य की मंजूरी मिलने के बाद पश्चिम बंगाल में गोरखालैंड के समर्थक भी अपनी मांगो को मनवाने के लिए जी-जान से जुट गए है। गोरखा लैंड समर्थकों ने तो आमरण अनशन भूख हड़ताल जैसे जनआंदोलन प्रारंभ कर दिए हैं। उधर बिहार में मिथिलांचल व जम्मू कश्मीर को तीन हिस्सों में विभाजित करने व महाराष्ट्र में विदर्भ के गठन को लेकर भी राजनीति प्रारंभ हो गयी है।
केंद्रीय गृहमंत्री ने तेलंगाना को मंजूरी देकर अतिशीध्रता में एक गलत निर्णय लिया है। छोटे राज्यों का गठन निश्चय ही बहुत सोच-समझकर लिया जाना चाहिए। केंद्रीय गृहमंत्री ने चंद्रशेखर राव का आमरण अनशन तुड़वाने के लिए एक राजनैतिक चाल उनके गले की फांस बनती जा रही है। स्वयं कांग्रेस में ही विरोध के स्वर मुखारित ह?ए हैं। नए राज्यों के समर्थकों का यह तर्क बेबुनियाद है कि छोटे प्रांतों में ही त्वरित विकास संभव है। वर्ष 2000 में जिन तीन छोटे प्रांतों छत्तीसगढ़, झारखंड और उत्तराखंड का गठन हुआ, के विकास व प्रशासनिक स्थिति से पूरा देश वाकिफ है। छोटे राज्यों में नित नयी समस्याएं मुंह खोले खड़ी रहती हैं। देश के पूर्वोत्तर प्रांत बहुत छोटे हैं लेकिन वहां पर सत्ता पर नियंत्रण को लेकर घात-प्रतिघात बनी रहती है। छोटे प्रांतों में विशेष रूप से मिजोरम, नागालैंड में क्षेत्रवाद-भाषावाद की राजनीति व आतंकवाद को प्रश्रय देने वाले नेताओं व संगठनों की बयार आसानी से देखी जा सकती है। उधर गोवा जैसे शांत प्रांत में भी मात्र दो-तीन विधायक ही मिलकर सत्ता को हथियाने का खेल खेलते रहते हैं। छोटे प्रांतों में विकास कैसे होता है इसका एक प्रमुख उदाहरण झारखंड भी है, जहां मधु कोड़ा जैसे भ्रष्टाचार में लिप्त नेताओं व उनके सहयोगियों का उदय हुआ। झारखंड का संवैधानिक संकट सर्वोच्च न्यायालय से लेकर राष्ट्रपति भवन की चौखट तक पहुंच गया था। रही बात उत्तराखंड की तो यह राज्य भी अभी तक अपने पैरों पर खड़ा होने में सक्षम नहीं हो सका है। उत्तराखंड अभी भी हर छोटी-छोटी बात के लिए उत्तर प्रदेश की ओर मुंह ताकता है। केवल छत्तीसगढ़ ही एक ऐसा प्रांत निकला है जहां पर स्थिर सरकार व शासन के कारण कुछ सीमा तक विकास को गति मिली है।
अब रही उत्तर प्रदेश की विभाजन की बात तो यह मांग तो पूरी तरह से राजनैतिक ही है। छोटे प्रांतों का गठन सदा दुश्वारियों भरा होता है जिसमें केंद्र सरकार को नये सिरे से आर्थिक सहायता प्रदान करनी पड़ती है, प्रशासनिक ढांचा तैयार करना पड़ता है। अतः केंद्रीय नेतृत्व को छोटे प्रांतों के गठन की शीघ्रता नहीं करना चाहिए अपितु राज्य पुनर्गठन आयोग का गठन करके सभी मामलों को उसके पास भेज देना चाहिए और उसी रिपोर्ट के आधार पर नए राज्यों का गठन करना चाहिए। छोटे प्रांतों में प्रायः एक समस्या यह भी है कि छुटभैये नेता अपनी गुंडागर्दी के बल पर सरकारी ठेकों पर कब्जा करने का प्रयास करते हैं। जिसके कारण विकास की गति को ठेस पहुंचती है। झारखंड इसका एक बड़ा उदाहरण है।
वास्तव में बड़े प्रांत ही विकास की गति को दर्शाते हैं। छोटे राज्यों की पीड़ाएं होती है, जो उनके गठन के बाद की हीं दिखाई पड़ती हैं। प्रारंभिक राजनैतिक स्वार्थ भरा उत्साह शीघ्र ही बिखरने लगता है। छोटे राज्यों का गठन कई नये विवादों को जन्म देता है, जिसमें परिसंपत्तियों का बंटवारा, नदियों के जल का बंटवारा, कार्यरत कर्मचारियों की मूल निकासी की समस्या आदि प्रमुख है।
छोटे प्रांतों की मांग की राजनीति एक प्रकार विशुद्ध क्षेत्रवाद की ही राजनीति है। अतः देश के बड़े राजनैतिक दलों का यह प्रथमर् कर्तव्य भी बनता है कि वे क्षेत्रवाद की राजनीति को प्रश्रय व बढ़ावा न दें अपितु उन्हें समाप्त करने का प्रयास करें। छोटे प्रांतों की मांग को मानने से क्षेत्रवाद की राजनीति पुष्ट होती है और उससे उन विदेशी ताकतों को बल प्राप्त होता है जो भारत को खंड-खंड देखना चाहते हैं। अतः अब समय आ गया है कि सभी राष्ट्रीय राजनैतिक दल एक साथ बैठकर छोटे प्रांतों से संबंधित मांगों पर एक साथ विचार कर उक्त प्रकरणों को राष्ट्रहित में समाप्त करें अन्यथा क्षेत्रवाद पर आधारित मांगें देश को जला देंगी।
No comments:
Post a Comment