Friday, January 29, 2010

तीन दिन में सिमटी राष्ट्रभक्ति

कितने जतन के बाद भारत देश में 15 अगस्त 1947 को आजादी का सूर्योदय हुआ था। देश को आजाद कराने, न जाने कितने मतवालों ने घरों घर जाकर देश प्रेम का जज्बा जगाया था। सब कुछ अब बीते जमाने की बातें होती जा रहीं हैं। आजादी के लिए जिम्मेदार देश देश के हर शहीद और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी की कुर्बानियां अब जिन किताबों में दर्ज हैं, वे कहीं पडी धूल खा रही हैं। विडम्बना तो देखिए आज देशप्रेम के ओतप्रोत गाने भी बलात अप्रसंगिक बना दिए गए हैं। महान विभूतियों के छायाचित्रों का स्थान सचिन तेंदुलकर, अमिताभ बच्चन, अक्षय कुमार जैसे आईकान्स ने ले लिया है। देश प्रेम के गाने महज 15 अगस्त, 26 जनवरी और गांधी जयंती पर ही दिन भर और शहीद दिवस पर आधे दिन सुनने को मिला करते हैं।

गौरतलब होगा कि आजादी के पहले देशप्रेम के जज्बे को गानों में लिपिबध्द कर उन्हें स्वरों में पिरोया गया था। इसके लिए आज की पीढी को हिन्दी सिनेमा का आभारी होना चाहिए, पर वस्तुत: एसा है नहीं। आज की युवा पीढी इस सत्य को नहीं जानती है कि देश प्रेम की भावना को व्यक्त करने वाले फिल्मी गीतों के रचियता एसे दौर से भी गुजरे हैं जब उन्हें ब्रितानी सरकार के कोप का भाजन होना पडा था।

देखा जाए तो देशप्रेम से ओतप्रोत गानों का लेखन 1940 के आसपास ही माना जाता है। उस दौर में बंधन, सिकंदर, किस्मत जैसे दर्जनों चलचित्र बने थे, जिनमें देशभक्ति का जज्बा जगाने वाले गानों को खासा स्थान दिया गया था। मशहूर निदेशक ज्ञान मुखर्जी द्वारा निर्देशित बंधन फिल्म संभवत: पहली फिल्म थी जिसमें देशप्रेम की भावना को रूपहले पर्दे पर व्यक्त किया गया हो। इस फिल्म में जाने माने गीतकार प्रदीप (रामचंद्र द्विवेदी) के द्वारा लिखे गए सारे गाने लोकप्रिय हुए थे। कवि प्रदीप का देशप्रेम के गानों में जो योगदान था, उसे भुलाया नहीं जा सकता है।

इसके एक गीत ”चल चल रे नौजवान” ने तो धूम मचा दी थी। इसके उपरांत रूपहले पर्दे पर देशप्रेम जगाने का सिलसिला आरंभ हो गया था। 1943 में बनी किस्मत फिल्म के प्रदीप के गीत ”आज हिमालय की चोटी से फिर हमने ललकारा है, दूर हटो ए दुनिया वालों हिन्दुस्तान हमारा है” ने देशवासियों के मानस पटल पर देशप्रेम जबर्दस्त तरीके से जगाया था। लोगों के पागलपन का यह आलम था कि लोग इस फिल्म में यह गीत बारंबार सुनने की फरमाईश किया करते थे।

आलम यह था कि यह गीत फिल्म में दो बार सुनाया जाता था। उधर प्रदीप के क्रांतिकारी विचारों से भयाक्रांत ब्रितानी सरकार ने प्रदीप के खिलाफ गिरफ्तारी वारंट जारी कर दिया, जिससे प्रदीप को कुछ दिनों तक भूमिगत तक होना पडा था। पचास से साठ के दशक में आजादी के उपरांत रूपहले पर्दे पर देशप्रेम जमकर बिका। उस वक्त इस तरह के चलचित्र बनाने में किसी को पकडे जाने का डर नहीं था, सो निर्माता निर्देशकों ने इस भावनाओं का जमकर दोहन किया।

दस दौर में फणी मजूमदार, चेतन आनन्द, सोहराब मोदी, ख्वाजा अहमद अब्बास जैसे नामी गिरमी निर्माता निर्देशकों ने आनन्द मठ, लीजर, सिकंदरे आजम, जागृति जैसी फिल्मों का निर्माण किया जिसमें देशप्रेम से भरे गीतों को जबर्दस्त तरीके से उडेला गया था।

1962 में जब भारत और चीन युद्ध अपने चरम पर था, उस समय कवि प्रदीप द्वारा मेजर शैतान सिंह के अदम्य साहस, बहादुरी और बलिदान से प्रभावित हो एक गीत की रचना में व्यस्त थे, उस समय उनका लिखा गीत ”ए मेरे वतन के लोगों, जरा आंख में भर लो पानी . . .” जब संगीतकार ए.रामचंद्रन के निर्देशन में एक प्रोग्राम में स्वर कोकिला लता मंगेशकर ने सुनाया तो तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू भी अपने आंसू नहीं रोक सके थे।

इसी दौर में बनी हकीकत में कैफी आजमी के गानों ने कमाल कर दिया था। इसके गीत कर चले हम फिदा जाने तन साथियो को आज भी प्रोढ हो चुकी पीढी जब तब गुनगुनाती दिखती है। सत्तर से अस्सी के दशक में प्रेम पुजारी, ललकार, पुकार, देशप्रेमी, कर्मा, हिन्दुस्तान की कसम, वतन के रखवाले, फरिश्ते, प्रेम पुजारी, मेरी आवाज सुनो, क्रांति जैसी फिल्में बनीं जो देशप्रेम पर ही केंदित थीं।

वालीवुड में प्रेम धवन का नाम भी देशप्रेम को जगाने वाले गीतकारों में सुनहरे अक्षरों में दर्ज है। उनके लिखे गीत काबुली वाला के ए मेरे प्यारे वतन, शहीद का ए वतन, ए वतन तुझको मेरी कसम, मेरा रंग दे बसंती चोला, हम हिन्दुस्तानी का मशहूर गाना छोडो कल की बातें कल की बात पुरानी, महान गायक मोहम्मद रफी ने देशप्रेम के अनेक गीतों में अपना स्वर दिया है। नया दौर के ये देश है वीर जवानों का, लीडर के वतन पर जो फिदा होगा, अमर वो नौजवां होगा, अपनी आजादी को हम हरगिज मिटा सकते नहीं . . ., आखें का उस मुल्क की सरहद को कोई छू नहीं सकता. . ., ललकार का आज गा लो मुस्करा लो, महफिलें सजा लो, देश प्रेमी का आपस में प्रेम करो मेरे देशप्रेमियों, आदि में रफी साहब ने लोगों के मन में आजादी के सही मायने भरने का प्रयास किया था।

गुजरे जमाने के मशहूर अभिनेता मनोज कुमार का नाम आते ही देशप्रेम अपने आप जेहन में आ जाता है। मनोज कुमार को भारत कुमार के नाम से ही पहचाना जाने लगा था। मनोज कुमार की कमोबेश हर फिल्म में देशप्रेम की भावना से ओतप्रोत गाने हुआ करते थे। शहीद, उपकार, पूरब और पश्चिम, क्रांति जैसी फिल्में मनोज कुमार ने ही दी हैं।

अस्सी के दशक के उपरांत रूपहले पर्दे पर शिक्षा प्रद और देशप्रेम की भावनाओं से बनी फिल्मों का बाजार ठंडा होता गया। आज फूहडता और नग्नता प्रधान फिल्में ही वालीवुड की झोली से निकलकर आ रही हैं। आज की युवा पीढी और देशप्रेम या आजादी के मतवालों की प्रासंगिकता पर गहरा कटाक्ष कर बनी थी, लगे रहो मुन्ना भाई, इस फिल्म में 2 अक्टूबर को गांधी जयंती के बजाए शुष्क दिवस (इस दिन शराब बंदी होती है) के रूप में अधिक पहचाना जाता है। विडम्बना यह है कि इसके बावजूद भी न देश की सरकार चेती और न ही प्रदेशों की।

हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं कि भारत सरकार और राज्यों की सरकारें भी आजादी के सही मायनों को आम जनता के मानस पटल से विस्मृत करने के मार्ग प्रशस्त कर रहीं हैं। देशप्रेम के गाने 26 जनवरी, 15 अगस्त के साथ ही 2 अक्टूबर को आधे दिन तक ही बजा करते हैं। कुल मिलाकर आज की युवा पीढी तो यह समझने का प्रयास ही नहीं कर रही है कि आजादी के मायने क्या हैं, दुख का विषय तो यह है कि देश के नीति निर्धारक भी उन्हें याद दिलाने का प्रयास नहीं कर रहे हैं।

कार्बन क्रेडिट्स से अनभिज्ञ हम और हमारी सरकारी नीतियां

एक राष्ट्र की प्रगति में उद्योग एवं निर्माण कार्यों का बहुत बड़ा हाथ होता है और यहां उद्योग धंधे जिन प्रक्रियाओं से आगे बढ़ते हैं वह परिणामत: कार्बन या अन्य गैसों का उत्सर्जन करते हैं, जो अंतत: पृथ्वी के तापमान को बड़ाती है। क्योटो (जापान) प्रोटोकॉल के अनुसार ज्यादातर विकसित एवं विकासशील देशों ने ग्रीन हाउस गैसों जैसे आजोन, कार्बन डाईआक्साईड, नाईट्रस आक्साइड आदि के उत्सर्जन स्तर को कम करने की बात करी है। लेकिन खाली बात करना ही पर्याप्त नहीं था, एक ऐसा तंत्र भी विकसित करना जरूरी था जो इन उत्सर्जन को नियंत्रित कर सके। इसके लिए मापदंड एवं मानदंड निर्धारण किया यूनाईटेड नेशनस फ्रेम वर्क कनेक्शन आन क्लाइमेट चेंज ने, जो संयुक्त राष्ट्र संघ का अंग है।

कार्बन अपने शुद्धतम रूप में हीरे या ग्रेफाइट में पाया जाता है। यही कार्बन, आक्सीजन, हाइड्रोजन व पानी से मिलकर प्रकाश संश्लेषण के द्वारा पौधों का भोजन तैयार करता है और यही कार्बन सूर्य की उष्मा को रोककर पृथ्वी का तापमान बढ़ाता रहा है। यह कार्बन इस वातावरण का ऐसा तत्व है जो नष्ट नहीं होता, विज्ञान के अनुसार जो पेड़ व जीव के शरीर का कार्बन था उसने ही जमीन के भीतर जाकर एक ऐसा योगिक बनाया जिसे हाइड्रोकार्बन कहा जाता है और यह हाइड्रोकार्बन कोयले व पैट्रोलियम पदार्थों का मुख्य घटक है। यह व्याख्या कार्बन क्रेडिट क्या है यह समझने में आपकी सहायता करेगी।

अत: यह तो स्पष्ट है कि पृथ्वी और उसका वातावरण एक बंद तंत्र है जहां कार्बन को न बनाया जा सकता है, न मिटाया जा सकता है। समझदारी इसमें है कि कैसे इसका सदुपयोग किया जाये।

कार्बन क्रेडिट अंतर्राष्ट्रीय उद्योग में उत्सर्जन नियंत्रण की योजना है। कार्बन क्रेडिट सही मायने में आपके द्वारा किये गये कार्बन उत्सर्जन को नियंत्रित करने का प्रयास है जिसे प्रोत्साहित करने के लिए धन से जोड़ दिया गया है। भारत और चीन सहित कुछ अन्य एशियाई देश जो वर्तमान में विकासशील अवस्था में हैं, उन्हें इसका लाभ मिलता है क्योंकि वे कोई भी उद्योग धंधा स्थापित करने के लिए यूनाईटेड नेशनस फ्रेम वर्क कनेक्शन आन क्लाइमेट चेंज से संपर्क कर उसके मानदंडों के अनुरूप निर्धारित कार्बन उत्सर्जन स्तर नियंत्रित कर सकते हैं। और यदि आप उस निर्धारित स्तर से नीचे, कार्बन उत्सर्जन कर रहे हैं तो निर्धारित स्तर व आपके द्वारा उत्सर्जित कार्बन के बीच का अंतर आप

की कार्बन क्रेडिट कहलाएगा। इस कार्बन क्रेडिट को कमाने के लिए कई उद्योग धंधे कम कार्बन उत्सर्जन वाली नई तकनीक को अपना रहे हैं। यह प्रक्रिया पर्यावरण संरक्षण के साथ-साथ धन लाभ भी देने वाली है।

इस तरह से पैदा किये गये कार्बन क्रेडिट दो कंपनियों के बीच अदला बदली भी किये जा सकते हैं व इन्हें अंतर्राष्ट्रीय बाजार के प्रचलित मूल्यों के हिसाब से बेचा भी जा सकता है साथ साथ इन क्रेडिटस को कार्बन उत्सर्जन योजनाओं के लिए कर्ज पर भी लिया जा सकता है। बहुत सी ऐसी कंपनियां हैं जो कार्बन क्रेडिटस को निजी एवं व्यवसायिक ग्राहकों को बेचती हैं। यह ग्राहक वह होते हैं जो अपना कार्बन उत्सर्जन नियंत्रित रख कर जो लाभ मिलते हैं वह लेना चाहते हैं। कई बार कार्बन क्रेडिट्स का मूल्य इस बात पर भी निर्भर करता है कि वह क्रेडिट किस प्रकार के उद्योग एवं परिस्थितियों के बीच उत्पन्न हो रही है।

जैसी स्थितियां बन रहीं हैं उससे ऐसा संकेत मिलता है कि आने वाले समय में भारत एवं चीन जैसे देश इस लायक होंगे कि वह कार्बन क्रेडिट्स बेच सकें और यूरोपीय देश इन क्रेडिट के सबसे बड़े ग्राहक होंगे। पिछले कुछ वर्षों में क्रेडिट का वैश्विक व्यापार लगभग 6 बिलियन डॉलर अनुमानित किया गया था जिसमें भारत का योगदान लगभग 22 से 25 प्रतिशत होने का अनुमान था। भारत और चीन दोनों देशों ने कार्बन उत्सर्जन को निर्धारित मानदंडों से नीचे रखकर क्रेडिट जमा किये हैं। यदि हमारे देश की बात करें तो भारत में लगभग 30 मिलियन क्रेडिटस पैदा किये हैं और आने वाले समय में संभवत: 140 मिलियन क्रेडिटस और तैयार हो जायेंगे जिन्हें विश्व बाजार में बेचकर पैसा कमाया जा सकता है।

नगरीय निकाय, रासायनिक संयत्र, तेल उत्पादन से जुड़ी संस्थाएं एवं वृक्षारोपण के लिए कार्य करने वाले लोगों के साथ-साथ ऐसी संस्थाएं जो कचरे का प्रबंधन करती हैं वे भी यूनाईटेड नेशनस फ्रेम वर्क कनेक्शन आन क्लाइमेट चेंज से संपर्क कर इन्हें कमा कर, बेच सकती हैं। इसके अतिरिक्त भारत में मल्टी कॅमोडिटी एक्सचेंज के माध्यम से भी इस क्रेडिट के व्यापार में शामिल हुआ जा सकता है। लेकिन हैरानी की बात यह है कि इस सारी प्रक्रिया की जानकारी बहुत कम लोगों को है कि कैसे पर्यावरण बचाने के साथ-साथ यह प्रयास आपको आर्थिक लाभ भी दे सकता है। जिन्हें इसकी जानकारी है उन्होंने अपने उपक्रमों व उद्योग धंधों में ऐसी तकनीकों को शामिल किया है जिसने उत्सर्जन को नियंत्रित कर क्रेडिट बचाये हैं, और फिर उन्हें अंतर्राष्ट्रीय बाजार में बेच दिया। इस दिशा में कुछ प्रबंधन सलाहकार भी सक्रिय हैं जो दोनों पक्षों के बीच

रहकर क्रेडिट का सौदा कराते हैं। इस सबके बाद भी दुखद यह है कि सरकार ने इस ज्वलंत मुद्दे पर कोई मजबूत निर्णय व नीति का निर्धारण नहीं किया है जिस वजह से भारत में कार्बन क्रेडिट के बारे में जागरूकता का अभाव है अभी तक यह तय नहीं है कि इनके उत्पादन को कैसे प्रोत्साहन दिया जावे। इसलिये इस सारे व्यापार पर आज के समय में यूरोपीय देशों का कब्जा है जहां एक टन कम कार्बन उत्सर्जन पर आप लगभग 25 से 30 यूरो कमा सकते हैं। सामान्यत: इस सब का हिसाब किताब दिसंबर माह में होता है। इसी समय क्रेडिट अनुबंधों का समापन एवं नवीनीकरण कर क्रेडिटस का आदान-प्रदान किया जाता है।

भारत में अभी अधिकतर धातु एवं उर्जा आदि के उत्पादन से संबंधित कंपनियां इस क्रेडिट व्यापार में सम्मिलित हैं जिनकी संख्या लगभग 400 से 500 के बीच है जो कि एक अच्छी उपलब्धि नहीं है। निसंदेह सरकारी उदासीनता भी इस सबका बड़ा कारण है क्योंकि अपने देश में आज भी जन चेतना सरकार की पहल की प्रतीक्षा करती है। ना जाने क्यों पर्यावरण संरक्षण एवं सुधार की बड़ी बड़ी बात करने वाले राज्यों व केन्द्र सरकार के नेता इस मसले पर पीछे क्यों हैं साथ ही पर्यावरण संरक्षण के लिये कार्य करने वाली स्वयंसेवी संस्थाएं जो अनुदान के रूप में सरकार से बड़ी रकम डकार रही हैं उनकी भूमिका भी कार्बन क्रेडिट स के क्षेत्र में नगण्य है जबकि यह आज की व आने वाले भविष्य की एक महती आवश्यकता है जो हमारे सुरक्षित भविष्य का निर्धारण करेगी।

भारत में भ्रष्टाचार की समस्या एवं निदान

भारत में वैसे तो अनेक समस्याएं विद्यमान हैं जिसके कारण देश की प्रगति धीमी है। उनमें प्रमुख है बेरोजगारी, गरीबी, अशिक्षा, आदि लेकिन उन सबमें वर्तमान में सबसे ज्यादा यदि कोई देश के विकास को बाधित कर रहा है तो वह है भ्रष्टाचार की समस्या। आज इससे सारा देश संत्रस्त है। लोकतंत्र की जड़ो को खोखला करने का कार्य काफी समय से इसके द्वारा हो रहा है। और इस समस्या की हद यह है कि इसके लिए भारत के एक पूर्व प्रधानमंत्री तक को कहना पड़ गया था कि रूपये में मात्र बीस पैसे ही दिल्ली से आम जनता तक पंहुच पाता है।

वास्तव में यह स्थिति सिर्फ एक दिन में ही नहीं बनी है। भारत को जैसे ही अंग्रेजी दासता से मुक्ति मिलने वाली थी उसे खुली हवां में सांस लेने का मौका मिलने वाला था उसी समय सत्तालोलुप नेताओं ने देश का विभाजन कर दिया और उसी समय स्पष्ट हो गया था कि कुछ विशिष्ट वर्ग अपनी राजनैतिक भूख को शांत करने के लिए देश हित को ताक मे रखने के लिए तैयार हो गये हैं। खैर बीती ताहि बिसार दे। उस समय की बात को छोड वर्तमान स्थिति में दृष्टि डालें तो काफी भयावह मंजर सामने आता है। भ्रष्टाचार ने पूरे राष्ट्र को अपने आगोश में ले लिया है। वास्तव में भ्रष्टाचार के लिए आज सारा तंत्र जिम्मेदार है। एक आम आदमी भी किसी शासकीय कार्यालय में अपना कार्य शीध्र करवाने के लिए सामने वाले को बंद लिफाफा सहज में थमाने को तैयार है। 100 में से 80 आदमी आज इसी तरह कार्य करवाने के फिराक में है। और जब एक बार किसी को अवैध ढंग से ऐसी रकम मिलने लग जाये तो निश्चित ही उसकी तृष्णा और बढेगी और उसी का परिणाम आज सारा भारत देख रहा है।

भ्रष्टाचार में सिर्फ शासकीय कार्यालयों में लेने देनेवाले घूस को ही शामिल नहीं किया जा सकता बल्कि इसके अंदर वह सारा आचरण शामिल होता है जो एक सभ्य समाज के सिर को नीचा करने में मजबूर कर देता है। भ्रष्टाचार के इस तंत्र में आज सर्वाधिक प्रभाव राजनेताओं का ही दिखाई देता है इसका प्रत्यक्ष प्रमाण तो तब देखने को मिला जब नागरिकों द्वारा चुने हुए सांसदों के द्वारा संसद भवन में प्रश्न तक पूछने के लिए पैसे लेने का प्रमाण कुछ टीवी चैनलों द्वारा प्रदर्शित किया गया।

कभी कफन घोटाला, कभी चारा – भूसा घोटाला, कभी दवा घोटाला, कभी ताबूत घोटाला तो कभी खाद घोटाला आखिर ये सब क्या इंगित करता है। ये सारे भ्रष्टाचार के एक उदाहरण मात्र हैं।

बात करें भारत को भ्रष्टाचार से बचाने के लिए तो जिन लोगों को आगे आकर भ्रष्टाचार को समाप्त करने का प्रयास कर समाज को दिशा निर्देश देना चाहिए वे स्वयं ही भ्रष्ट आचरण में आकंठ डूबे दिखाई देते है।

वास्तव में देश से यदि भ्रष्टाचार मिटाना है तो ने सिर्फ साफ स्वच्छ छवि के नेताओं का चयन करना होगा बल्कि लोकतंत्र के नागरिको को भी सामने आना होगा। उन्हें प्राणपण से यह प्रयत्न करना होगा कि उन्हें भ्रष्ट लोगों को समाज से न सिर्फ बहिष्कृत करना होगा बल्कि उच्चस्तर पर भी भ्रष्टाचार में संलिप्त लोगों का बायकॉट करना होगा। अपनी आम जरूरतों को पूरा करने एवं शीर्ध्रता से निपटाने के लिए बंद लिफाफे की प्रवृत्ति से बचना होगा। कुल मिला जब तब लोकतंत्र में आम नागरिक एवं उनके नेतृत्व दोनों ही मिलकर यह नहीं चाहेंगे तब तक भ्रष्टाचार के जिन्न से बच पाना असंभव ही है।

पहली बार किसी सूबे में महिलाओं को शक्तिशाली बनाने का हुआ है प्रयास

देश को आजाद हुए छ: दशक (बासठ साल) से अधिक का समय हो चुका है। सरकार भी बासठ साल में अपने कर्मचारी को सेवानिवृत कर देती है। इस आधार पर यह माना जा सकता है कि देश ने सरकार के हिसाब से अपनी औसत आयु की नौकरी पूरी कर ली है, पर क्या देश सेवानिवृति के लिए तैयार है। कतई नहीं, इन बासठ सालों में देश ने तरक्की के आयाम अवश्य तय किए होंगे पर यह अनेक मामलों में रसातल की ओर भी अग्रसर हुआ है।

मातृशक्ति को सभी बारंबार प्रणाम करते हैं, पर कोई भी महिलाओं को आगे लाने या सशक्त बनाने की पहल नहीं करता है। देश पर आधी सदी से ज्यादा राज करने वाली कांग्रेस ने प्रधानमंत्री के तौर पर स्व.श्रीमति इंदिरा गांधी, अपने अध्यक्ष के तौर पर श्रीमती सोनिया गांधी के बाद देश की पहली महामहिम राष्ट्रपति श्रीमतीप्रतिभा देवी सिंह पाटिल, पहली लोकसभाध्यक्ष मीरा कुमार दिए हैं, वहीं भाजपा ने मातृशक्ति का सम्मान करते हुए लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष के तौर पर श्रीमती सुषमा स्वराज को आसंदी पर बिठाया है।

इतना सब होने के बाद भी महिलाओं के लिए 33 फीसदी के आरक्षण का विधेयक लाने में कांग्रेस को नाकों चने चबाने पड रहे हैं, जाहिर है पुरूष प्रधान मानसिकता वाले देश में महिलाओं को बराबरी पर लाने की बातें तो जोर शोर से की जातीं हैं, पर जब अमली जामा पहनाने की बात आती है, तब सभी बगलें झाकने पर मजबूर हो जाते हैं।

मध्य प्रदेश में पिछले कुछ सालों से ”मां तुझे सलाम . . .” का गीत जमकर बज रहा है। सूबे के निजाम शिवराज सिंह चौहान द्वारा मध्य प्रदेश में स्त्री वर्ग के लिए जो महात्वाकांक्षी योजनाएं लागू की गई हैं, वे आने वाले समय में देश के लिए नजीर से कम नहीं होंगी। निश्चित तौर पर इन योजनाओं को या तो ‘जस का तस’ या फिर कुछ हेरफेर कर सभी राज्य लागू करने पर मजबूर हो जाएंगे।

सुप्रसिद्ध कवि मैथली शरण गुप्त की कविता की ये पंक्तियां

-”अबला जीवन हाय तुम्हारी यह ही कहानी!,

आंचल में है दूध, और आंखों में है पानी!!”

को शिवराज सिंह चौहान ने कुछ संशोधित कर आंखों के पानी को खुशी के आंसुओं में तब्दील कर दिया है।

कुल पुत्र से ही आगे बढता है, की मान्यता को झुठलाते हुए शिवराज सिंह चौहान ने लाडली लक्ष्मी योजना का आगाज किया। इस योजना में आयकर न देने वाले आंगनवाडी में पंजीकृत वे पालक जिन्होंने परिवार नियोजन को अपनाया हो, अपनी कन्या का नाम दर्ज करा सकते हैं। इसमें उन्हें तीस हजार रूपए का राष्ट्रीय बचत पत्र प्राप्त होता है। इस जमा राशि से मिलने वाले ब्याज से लाडली लक्ष्मी को दो हजार रूपए एक मुश्त दिए जाते हैं, जिससे वह पांचवी तक की शिक्षा प्राप्त कर सके।

इसके उपरांत आठवीं पास करने पर चार हजार रूपए, दसवीं में पहुंचने पर साढे सात हजार रूप्ए और ग्यारहवीं तथा बारहवीं कक्षा के लिए उसे हर माह दो सौ रूपयों की मदद मिलेगी। इतना ही नहीं जब वह सयानी हो जाएगी तो उसे एक लाख रूपए से अधिक की राशि मिलेगी जो उसकी शादी में काम आएगी। मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान की यह योजना सुपरहिट साबित हुई है, अब तक साठ हजार से अधिक कन्याएं लाडली लक्ष्मी बन चुकी हैं।

इससे इतर बालिकाओं की शिक्षा के लिए शिवराज सिंह चौहान ने खासा ध्यान दिया है। सच ही है, अगर घर में मां शिक्षित और संस्कारी होगी तो आने वाली पीढी का भविष्य उज्जवल होना तय है। इसी तर्ज पर मध्य प्रदेश सरकार द्वारा संसाधन, साधन और धन के अभाव को शिक्षा में अडंगा न बनने की योजना बनाई है।

सरकार के अनेक महकमे अपनी अपनी महात्वाकांक्षी योजनाओं के माध्यम से बालिकाओं को कोर्स की किताबें, यूनीफार्म, छात्रवृत्ति तो मुहैया करा ही रहे हैं, साथ ही बालिकाओं के मन में पढाई के प्रति रूझान पैदा करने की गरज से सरकार ने जून 2008 से छटवीं कक्षा में प्रवेश लेने वाली हर कन्या को साईकिल देने का लोकलुभावना निर्णय भी लिया है।

सहज सुलभ व्यक्तित्व और सुलझे विचारों वाले सादगी पसंद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान द्वारा महिलाओं के पिछडे होने के दर्द को समझा है। उन्होंने महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने कमर कस ली है। महिलाओं में आत्मविश्वास जगाने का जिम्मा अपने कांधे पर उठाए शिवराज सिंह चौहान द्वारा एतिहासिक फैसले लेते हुए पंचायत संस्थाओं और नगरीय निकायों में पचास फीसदी, तो वन समितियों में एक तिहाई आरक्षण लागू करवा दिया है।

इतना ही नहीं 38 जिलों में महिला डेस्क, कार्यपालिक बल में सब इंसपेक्टर की भर्ती में तीस फीसदी, आरक्षक की भर्ती में दस फीसदी महिलाओं में रचनात्मकता को विकसित करने दो लाख रूपए के रानी दुर्गावती पुरूकार, समाज सेवा और वीरता के लिए राजमाता विजयाराजे सिंधिया और रानी अवंति बाई के नाम पर एक एक लाख रूपए के पुरूस्कार भी आरींा किए गए है।

इतना ही नहीं वीरांगना रानी दुर्गावती के नाम पर बहुत समय से एक बटालियन की बहुप्रतिक्षित मांग को पूरा करते हुए 329 पदों का सृजन भी कर दिया है मध्य प्रदेश सरकार ने। इसके अलावा खेलों में महिलाओं को प्रोत्साहन देने हेतु ग्वालियर में राज्य महिला अकादमी की स्थापना भी कर दी गई है। हाकी के खिलाडियों को जब केंद्र सरकार की ओर से तिरस्कार मिला तब शिवराज सिंह चौहान ने उन्हें सहारा दिया है।

इस मंहगाई के दौर में गरीब के घर सबसे बडी समस्या उसकी बेटी के कन्यादान की होती है। शिवराज सिंह चौहान ने इस दर्द को बखूबी समझा है। जब वे संसद सदस्य हुआ करते थे, तब से उनके संसदीय क्षेत्र विदिशा में सामूहिक विवाहों का आयोजन होता रहा है। अब मध्य प्रदेश सरकार द्वारा कन्यादान योजना का ही आगाज कर दिया है।

इस योजना में गरीब, जरूरत मंद, नि:शक्त, निर्धन, कमजोर परिवारों की न केवल विवाह योग्य, वरन् परित्याक्ता, विधवा महिलाओं के लिए पांच हजार रूपए और सामूहिक विवाह के आयोजनों हेतु संस्थाओं को एक हजार रूपए प्रति कन्या के हिसाब से राशि सरकार द्वारा मुहैया करवाई जाती है।

विवाह के उपरांत गर्भधारण करने पर भू्रण का लिंग परीक्षण वैसे तो केंद्र सरकार द्वारा ही प्रतिबंधित किया गया है, इस मामले में एक कदम आगे बढते हुए मध्य प्रदेश सरकार द्वारा परीक्षण करने वाले चिकित्सक अथवा संस्था को दण्ड दिए जाने का प्रावधान करने के साथ सूचना देने वाले को दस हजार का ईनाम भी देने की घोषणा की है।

बिटिया जब गर्भ धारण करती है तो उसकी गोद भराई की जवाबदारी भी मध्य प्रदेश सरकार अपने कांधों पर उठाती है। इस योजना के तहत गोद भराई आयोजन में गर्भवती स्त्री को मातृ एवं शिशु रक्षा कार्ड, आयरन फोलिक एसिड की गोलियां आदि देकर उसकी गोद भराई में नारियल, सिंदूर, चूडियां और अन्य तोहफे भी दिए जाते हैं।

फिर आती है जननी सुरक्षा योजना की बारी। इसमें गर्भवती महिलाओं को संस्थागत प्रसव के लिए प्रेरित कर आर्थिक सहायता मुहैया करवाई जाती है। इसमें प्रेरक को प्रोत्साहन राशि के अलावा स्त्री को समीपस्थ सरकारी अस्पताल पहुंचाने में होने वाले व्यय को भी दिया जाता है।

गरीब की बच्ची के अन्नप्राशन हेतु आंगनवाडी केंद्र में अन्नप्राशन संस्कार में बच्ची को कटोरी चम्मच और खाद्य पदार्थ तोहफे में दिए जाते हैं। इसके बाद पढाई के लिए लाडली लक्ष्मी योजना, आत्मनिर्भरता के लिए अनेक योजनाओं के बाद जब बेटी के हाथ पीले करने की बारी आती है तब भी मध्य प्रदेश सरकार इसे अपनी चिंता मानती है। जिस सूबे में मातृशक्ति को आत्मनिर्भर और आत्मविश्वास से लवरेज करने के प्रयास खुले दिल और दिमाग से हो रहे हों उस प्रदेश में राम राज्य आने में समय नहीं लगेगा।

Wednesday, January 27, 2010

कविता: जंगल का ‘गणतन्त्र’

चली लोकतन्त्र की आंधी, जंगल में भी हवा चली

जंगल में भी होंगे चुनाव, पशुओं में यह आस जगी।

स्वयं सिंह जो बना है राजा

उसको अब हटना होगा,

गीदड़ बोला मैं प्रत्याशी

शेर को मुझसे लड़ना होगा।

जंगल में चुनाव आयोग बैठाया गया

हाथी दादा को आयोग प्रमुख बनाया गया,

कुछ नियम-कानून बनाए गए,

आयोग द्वारा सब पशुओं को सुनाए गए।

जिस-जिस को लड़ना है वह हो जाए तैयार

जंगल में इस बार बनेगी लोकतन्त्र सरकार,

लोकतन्त्र सरकार, सिंह न केवल राजा होगा

सिंहासन मिलेगा उसको, जिसको पीछे बहुमत होगा।

चुनाव की होने लगी तैयारी

पर सिंह को यह लगने लगा भारी।

सबके सामने वह हो गया तैयार, पर

चुपचाप लगाई उसने बिरादरी में गुहार।

सिंह, बाघ, चीता, तेन्दुआ आदि

सबके यहां सन्देशा भिजवाया गया

स्वयं सिंह द्वारा उन्हें बुलवाया गया।

जब भीड़ हो गई जमा

तो सिंह गंभीर होकर बोला-

भाइयों,

आज अस्तित्व पर संकट आया है,

हमारे सिंहत्व पर प्रश्नचिन्ह लगाया गया है।

अरे भाई बाघ और तेन्दू,

आप सब अपनी बिरादरी के हैं,

चीता सहित हम सभी एक ही जाति के हैं,

मिलकर चुनाव लड़ेंगे,

अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करेंगे।

तभी तेन्दुआ बीच में ही बोला,

अपना मुंह धीरे से उसने खोला,

कहा-पहले वोट बढाइए,

बिल्ली भी स्वजातीय है,

बैठक में उसे भी बुलाइए।

तुरन्त बिल्ली बुलवाई गई,

सबके द्वारा उसकी स्तुति गाई गई।

बीच में बिल्ली को सिंह ने एकटक निहारा

धीरे से उसके मुखड़े पर उसने पुचकारा।

कुछ मीठी, कुछ सकुचाती वाणी में सिंह बोला-

मौसी!!!!!!!!!!!!!!!!

तू कहां थी!

तुझसे तो पुराने सम्बंध हैं,

कद में है तू बस छोटी,

मिलते मुझसे तेरे सब अंग हैं।

अपने पूरे परिवार के साथ जंगल में

कह दे कि तू मेरे संग है।

बिल्ली, तेन्दू, चीता, शेर और बाघ

जंगल में शुरू हो गया जातिवाद।।

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जैसे ही हुई भोर,

गीदड़ ने मचाया शोर

शेर कर रहा है जातिवाद

चुनाव आयोग से मैं करूंगा फरियाद,

लेकिन तभी उसके समीप

एक कुत्ता आया,

साथ में लोमड़ी, लकड़बघ्घे

और भेड़िए को भी लाया।

कुत्ता बोला,

बिरादर! हम भी जातिवाद करेंगे

जो हो, शेर को जीतने नहीं देंगे,

तुम आयोग में शिकायत भिजवाओ

साथ में जातिवाद का बवण्डर चलाओ।

भीषण जातिवाद देखकर,

रेंकने लगा जंगल का गधा,

क्योंकि

उसने भी था पर्चा भरा।

सोचने लगा,

मैं कैसे जातिवाद चलाऊं,

आखिर किसके पास जाऊं।

अचानक उसे ध्यान में आया

घोड़े, खच्चर और जेब्रा,

पानी में रहने वाला दरियाई घोड़ा,

ये सब तो मेरे ही स्वरूप हैं,

मेरी जाति वाले भी मजबूत हैं।

अब नहीं कोई चिन्ता,

बजने दो चुनावी डंका।

नामांकन का दिन गया बीत,

वोटिंग के दिन पास आ गए,

गधा, गीदड़ और शेर बने प्रत्याशी,

तीनों जंगल में छा गए।

अन्य सभी पशुओं ने वोटर

बनना स्वीकार किया,

किन्तु कुछेक पशुओं ने

चुनाव का बहिष्कार किया।

हिरन गले में तख्तियां लटकाए,

अपने लिए जंगल में,

पृथक ग्रासलैण्ड की

मांग कर रहे थे।

शेर, गधा और गीदड़

बारी-बारी से उनके

पास वोट की फरियाद कर रहे थे।

प्रत्याशी सभा में ‘जंगल सुरक्षा’

के सवाल पर सिंह दहाड़ा,

प्रचार में उसने सबको पछाड़ा।

शेर बोला, प्यारी हिरनों!

यदि मैं सत्ता में आया,

तो तुम्हें पूरी सुरक्षा दिलवाउंगा,

पृथक ग्रासलैण्ड के निर्माण के साथ,

एक शेर वहां चौकीदार बिठाऊंगा।

लेकिन अपने भाषण में

गधे ने हिरनों को समझाया,

भाइयों-बहनों, सावधान रहना,

चौकीदार शेर छुप-छुपकर

एक-एक को हजम कर जाएगा।

पृथक ग्रासलैण्ड तुम्हारे अस्तित्व की

समाप्ति का कारण बन जाएगा।

उपाय मेरे पास है, मैं सत्ता में आया

तो….इतने में गीदड़ मंच पर लपक आया।

वोट मांगते हुए बोला,

आपको सुरक्षा हम दिलवाएंगे,

गधे ने तत्काल उसे फटकारा,

उसने सबके सामने उसे लताड़ा।

गधा बोला-गीदड़ का चरित्र संदिग्ध है।

यह शेर से मिला हुआ है,

सुरक्षा के सवाल पर गीदड़ और शेर

आप सभी को बरगलाएंगे,

मेरा मानना है कि

ये दोनों मिलकर जंगल को खा जाएंगे।

इस प्रकार होने लगा प्रचार।

तीनों पक्षों में शुरू हुई तकरार।

प्रचार अभियान के सिलसिले में

शेर मधुमिक्खयों के पास पहुंचा।

मधुमिक्खयों की रानी के पास

उसने सन्देशा भेजा।

बहन, सुना है भालू

शहद के लिए तुम्हारे छत्ते

भंग करते हैं,

रह-रहकर पूरे परिवार सहित

तुम्हें तंग करते हैं।

परेशान ना हो,

मुझे वोट दो,

मैं भालुओं को दुरूस्त करूंगा,

तुम्हारी सुरक्षा मजबूत करूंगा।

उधर भालुओं के पास जाकर

सिंह ने पुचकारा

सबको बुलाकर कान में फुसकारा,

भालू भाइयों, तुम्हारे लिए शहद

के सारे छत्ते आरक्षित किए जाएंगे।

मेरे जीतने पर जंगल में शहद के

सारे लाइसेंस तुम्हें ही दिए जाएंगे।

आ गया वोटिंग वाला दिन

पशु सब निकल पड़े।

वोट देने के लिए

घर से सब चल पड़े।

वोटिंग में गधे का पक्ष होने लगा भारी

क्योंकि अचानक एकजुट हो गए शाकाहारी।

शाकाहारी पशुओं ने ठीक ही सोचा,

शेर तो मांसाहारी है और गीदड़ का क्या भरोसा।

गधा ठीक है, ये कोई

नुकसान तो नहीं ही कर पाएगा,

किसी आक्रमण के समय कम से कम,

आगे होकर ढेंचू-ढेंचू तो चिल्लाएगा।

गधे के पक्ष में चुनाव जाता देख,

क्रुद्ध सिंह ने ललकारा,

चीता तुरन्त हरकत में आया,

उसने दिया सिंह को सहारा,

बोला-

ये शाकाहारवाद यहां नहीं चलने देंगे।

सारे बूथों को बाहुबल से कैप्चर कर लेंगे।

जंगल में हो गया हंगामा

पशुओं में पड़ गई दरार,

अलग-अलग हो गए खेमे

एक शाकाहारी, दूजा मांसाहार।

सिंह ने दिया आदेश,

बूथों पर कब्जा कर लो,

जहां मिले गीदड़ और गधे

उनको वहीं दबोचो।

तेन्दू, बाघ और चीते ने

मिलकर किया प्रहार,

सारे बूथ कब्जे में

बन गई सिंह की सरकार।

बनी सिंह की सरकार, सिंह आ गया विजयी मुद्रा में

बोला, लोकतन्त्र नहीं, जंगल कानून चलेगा जंगल में।

++++++++++++++

जंगल में जुटी विजय सभा,

सिंह ने किया गर्जन,

स्वागतोपरान्त, सिंह ने दिया

अपना प्रथम राजकीय भाषण।

विजयी सिंह ने विराट जनसभा में

सर्वप्रथम चुनाव आयोग को ललकारा,

आयुक्त हाथी दादा को उसने

खुले आम जमकर फटकारा।

सिंह बोला-सुन लो हाथी दादा,

जंगल में आयोग के जन्मदाता,

आयोग भंग किया जाता है,

जाओ मौज करो जाकर, क्योंकि

कुछ मर्यादा है, अत: तुम्हें

बंधन-मुक्त किया जाता है।

लेकिन गीदड़ और गधे

कदापि छोड़े नहीं जाएंगे,

हर कीमत पर उनके

प्राण अवश्य लिए जाएंगे।

सिंह ने फिर दर्शन झाड़ा,

मनुष्यों पर भी गुस्सा

उसने उतारा।

कहने लगा-

लोकतन्त्र मनुष्यों का

उन्हें ही मुबारक हो भाई,

गधे और गीदड़ भी लड़ते चुनाव

आखिर यह कैसी पद्धति आई।

यह तो प्रकृति विरूद्ध है,

इसी से सम्पूर्ण विकास अवरूद्ध है

जिसका जितना संख्याबल,

लोकतन्त्र में बस उसी का बल!

भाइयों, यह खतरनाक निर्वाचन है!

क्योंकि हमारा तो कम संख्याबल है।

अब यदि आज मैं चुनाव हार जाता,

तो क्या मांस की जगह घास खाता!

चुनाव में झूठे नारों, वायदों से

अपना हित मैंने साधा,

मेरे अनुसार, लोकतन्त्र के विकास में

यह है सबसे बड़ी बाधा।

जो मैं कभी नहीं करता,

ऐसा मुझको कहना पड़ता था,

हिरनों की रक्षा, मधुमक्खी को भी

झूठा वायदा देना पड़ता था।

बोलो ऐसा लोकतन्त्र, क्या होगा कभी यहां सफल,

संख्या बल चले जुटाने, लेकर जातिवाद का संबल।

अरे, जिसमें जो गुण हैं, वह वैसे ही जिएंगे।

मांसाहार छोड़कर क्या हम तृण से पेट भरेंगे?

शाकाहारवाद चलाकर जो सत्ता पाने की सोच रहे,

हम उनके भरोसे ही जीवित हैं, क्यों वह भूल गए?

लोकतन्त्र का ही यह पुण्यप्रताप!

हिरनों ने मेरा उपहास किया,

पृथक ग्रासलैण्ड की मांग लिए

उन्होंने बहिष्कार का साथ दिया।

इसके पहले तो कभी नहीं,

हिरनों ने ऐसा कुछ मांगा था,

अधिकारों की बढ़ गई पिपासा

लोकतन्त्र ने ही अलगाव जगाया था।

गणतन्त्र नहीं यह समस्या तन्त्र है,

जंगलराज में यह चल नहीं सकता।

मानव जाति करे कुछ भी,

जंगल में लोकतन्त्र फल नहीं सकता।

कांग्रेस का देशवासियों को नायाब तोहफा

15 अगस्त 1947 को भारत देश को पराधीनता से मुक्ति मिली। इसके बाद 26 जनवरी 1950 को भारण गणराज्य के गणतंत्र की स्थापना हुई। भारत का गणतंत्र आज किस मुकाम पर है किसी से छिपा नहीं है। देश के जिन गण के लिए तंत्र की स्थापना की गई थी, आज वे गण तो हाशिए में सिमट गए हैं। अब तंत्र चलाने वाले गण ही सब कुछ बनकर उभर चुके हैं। किसी को भारत देश के आखिरी छोर पर बैठे आम आदमी की चिंता नहीं है, हर कोई अपनी मस्ती और मद में चूर है। शिख से लेकर नख तक समूचे गण और उसका तंत्र आकंठ विलासिता, राजशाही, में डूबकर भ्रष्टाचार और अमानवीयता का नंगा नाच दिखा रहा है।

भारत के गणतंत्र के साठ साल पूरे होने की पूर्व संध्या से पहले ही भारत सरकार ने एक एसा करिश्मा कर दिखाया है, जिसे क्षम्य श्रेणी में कतई नहीं रख जा सकता है। भारत सरकार द्वारा राष्ट्रीय बालिका दिवस पर रविवार को जो विज्ञापन प्रकाशित करवाया है, वह घोर आपत्तिजनक है। इस विज्ञापन के बारे में अब सरकार अपनी खाल बचाने की गरज से तरह तरह के जतन अवश्य कर रही हो पर तरकश से निकले तीर को वापस रखा जा सकता है, किन्तु धनुष से छूटे तीर को वापस नहीं लाया जा सकता है।

केंद्र सरकार के मानव संसाधन विभाग द्वारा कन्या भू्रण हत्या के खिलाफ प्रकाशित विज्ञापन में देश के वजीरे आलम डॉ.एम.एम.सिंह, कांग्रेस की शक्ति और सत्ता की शीर्ष केंद्र श्रीमति सोनिया गांधी के साथ पडोसी मुल्क पाकिस्तान के पूर्व एयर चीफ मार्शल तनवीर महमूद अहमद का फोटो भी प्रकाशित किया है। तनवीर महमूद का फोटो इसमें प्रकाशित किया जाना किसी भी दृष्टिकोण से प्रासांगिक नहीं कहा जा सकता है।

केंद्र सरकार के विज्ञापन सरकारी तौर पर जारी करने का दायित्व सूचना और प्रसारण मंत्रालय के दिल्ली में सीजीओ काम्लेक्स में सूचना भवन के दृश्य एवं श्रव्य निदेशालय (डीएव्हीपी) का होता है। संबंधित विभाग द्वारा विज्ञापन का प्रारूप या अपनी मंशा से इस महकमे को आवगत कराया जाता है। इसके उपरांत यह विभाग उस विज्ञापन को डिजाईन करवाकर वापस संबंधित विभाग के अनुमोदन के उपरांत प्रकाशन के लिए जारी करता है।

यहां यह उल्लेखनीय होगा कि जो भी विभाग अपने विज्ञापन का प्रकाशन करवाना चाहता है, वह विज्ञापन के साथ अनुमानित राशि का धनादेश और किन अखबारों में इसे प्रकाशित किया जाना है, उसकी सूची भी संलग्न कर भेजता है। यह समूची प्रक्रिया सूचना भवन के भूलत से लेकर नवें तल तक विभिन्न प्रभागों और अनुभागों से होकर गुजरती है। इस मामले में गलती किसकी है, यह मूल प्रश्न नहीं है, मूल प्रश्न तो यह है कि इतने हाथों से होकर गुजरने के बाद भी गलती कैसे हो गई।

दरअसल सूचना भवन में वर्षों से पदस्थ सरकारी नुमाईंदों को अब अपने मूल काम के बजाए मीडिया की दलाली में ज्यादा मजा आने लगा है। कहते हैं कि पंद्रह से पचास फीसदी तक के कमीशन पर यहां करोडों अरबों रूपयों के वारे न्यारे हो रहे हैं। सूचना प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी द्वारा अगर एक माह में ही विभागों द्वारा प्रस्तावित विज्ञापन, अखबारों की सूची, उनके देयक के भुगतान की जानकारी ही बुलवा ली जाए तो उनकी आंखें फटी की फटी रह जाएंगी कि उनकी नाक के नीचे किस कदर भ्रष्टाचार की गंगा अनवरत सालों साल से बह रही है। डीएव्हीपी में भ्रत्य से लेकर उप संचालक स्तर तक के अधिकारियों का पूरा कार्यकाल डीएव्हीपी के दिल्ली कार्यालय में ही बीत गया है।

इस मामले में अपनी खाल बचाने के लिए महिला बाल विकास मंत्री कृष्णा तीरथ द्वारा तर्क के बजाए कुतर्क देना उनके मानसिक दिवालियापन के अलावा और कुछ नहीं माना जा सकता है। यह कोई छोटी मोटी गलती नहीं जिसकी निंदा कर इसे भुलाया जा सके। अगर चाईल्ड वेलफेयर मिनिस्ट्री ने तनवीर महमूद की फोटो जारी की भी हो तो क्या डीएव्हीपी की सारी सीढियों पर धृतराष्ट्र के बंशज ही विराजमान हैं।

वायूसेना का कहना सच है कि इस तरह से सरकारी विज्ञापनों में अगर भारत के खिलाफ आतंकवाद का ताना बाना बुनने वाले पकिस्तान के पूर्व सेना प्रमुख का फोटो प्रकाशित किया जाएगा तो सैनिकों का मनोबल गिरना स्वाभाविक ही है। उपर से तीरथ के उस बयान ने आग में घी का ही काम किया है जिसमें तीरथ ने कहा है कि फोटो के बजाए विज्ञापन की भावनाओं पर ध्यान दें। तीरथ का यह बयान राष्ट्रभक्तों की भावनाएं आहत करने के लिए पर्याप्त माना जा सकता है।

अगर विज्ञापनों में फोटो महत्वहीन होती हैं तो फिर उसमें सोनिया और मनमोहन की फोटो लगाई ही क्यों गई। और अगर तीरथ के बजाए इस विज्ञापन में पाकिस्तान की किसी महिला नेत्री की फोटो लग जाती तब भी क्या तीरथ के तेवर यही रहते, जाहिर है नहीं, क्योंकि उस वक्त तो विभाग के न जाने कितने अफसरान निलंबन की राह से गुजर चुके होते।

इस तरह के विज्ञापन के लिए प्रधानमंत्री कार्यालय और तीरथ ने तो कुतर्कों के साथ माफी मांग ली है, किन्तु भारत सरकार के सूचना प्रसारण मंत्रालय (आई एण्ड बी मिनिस्ट्र) दायित्व संभालने वाली अंबिका सोनी क्यों खामोश हैं। दरअसल यह गलती सूचना प्रसारण मंत्रालय के डीएव्हीपी प्रभाग की है, सो उन्हें भी सामने आना चाहिए। गलती से अगर महिला बाल विकास विभाग ने तनवीर महमूद की फोटो जारी भी कर दी तो आई एण्ड बी मिनिस्ट्र के डीएव्हीपी प्रभाग की जवाबदारी यह नहीं बनती है कि वह संबंधित विभाग को यह बताए कि यह फोटो प्रासंगिक नहीं है।

बहरहाल देश में गण की रक्षा, समृद्धि, विकास के लिए स्थापित किए गए तंत्र ने पचास साल पूरे कर लिए हैं। आज आजाद भारत में गणतंत्र पहले से मजबूत हुआ है या कमजोर इस पर टिप्पणी करना बेमानी ही होगा, क्योंकि भारत के गणतंत्र की गाथा सबके सामने ही है। जब गणतंत्र की स्थापना के साठ साल पूरे होने के महज दो दिन पहले ही भारत सरकार का तंत्र इतनी भयानक और अक्षम्य लापरवाही करे तब गणतंत्र के हाल किसी से छिपे नहीं होना चाहिए।

अधर में लटके अमर

समाजवादी पार्टी में अमर सिंह का अमरत्व लगभग खत्म हो गया है। हां, अभी पूरा अध्याय खत्म नहीं हुआ है, क्‍योंकि अमर सिंह द्वारा सभी पदों से दिया इस्तीफा मुलायम सिंह यादव ने स्वीकार कर लिया है। लेकिन अभी अमर सिंह ने पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफा नहीं दिया है। और ना ही राज्यसभा से इसलिए तकनीकी रूप से अमर सिंह पार्टी के सदस्य जरूर है। अमर सिंह मंझे हुए राजनीतिज्ञ है, अमर सिंह समाजवादी पार्टी से अपनी बोरिया-बिस्तर समेंटने से पहले अपने लिए एक सुरक्षित घर की तलाश पूरी करना चाहते है लेकिन अमर सिंह की सबसे बडी दिक्कत उनकी छवि है। फिलहाल कोई भी पार्टी उनके जैसी छवि के व्यक्ति को अपनी पार्टी में आसानी से हजम नहीं कर सकती है। अमर सिंह भी इस बात को समझते है कि जो स्वतंत्रता और बोलने की आजादी उन्हें समाजवादी पार्टी प्रमुख मुलायम सिंह ने दी थी वह किसी भी अन्य पार्टी में नसीब नहीं होगी। और अमर सिंह जैसे बाडबोले नेता बिना बोले रह नहीं सकते है।

अमर सिंह की उल्टी गिनती दरअसल कल्याण सिंह को समजावादी के साथ जोडने के साथ ही शुरू हो गई थी। मुलायम-कल्याण गठजोड न तो पार्टी के आम नेताओ को रास आया और ना ही मुलायम के परिवार को। इस गठजोड का पुरजोर विरोध मुलायम के बेटे अखिलेश और भाई रामप्रसाद यादव ने जमकर किया था। परन्तु अमर के साथ मुलायम के होने के कारण घर का विरोध घर में ही दबा दिया गया। उसके बाद आजम खां द्वारा खुला विरोध करने पर भी मुलायम ने जिस तरफ आजम खा को नजरअंदाज कर अमर सिंह का साथ् दिया वह भी मुलायम के पुत्र एवं भाईयों को नागवार गुजरा। अखिलेश खुद जयाप्रदा की रामपूर से उम्मीदवारी वापस लेकर आजम खां को संतुष्ट करना चाहते थे। परंतु अमर के प्रभाव के चलते मुलायम सिंह यादव ने अखिलेश यादव को दरकिनार कर दिया। आजम खां के विद्रोह और कल्याण के साथ के चलते समाजवादी पार्टी का एक भी मुसलमान प्रत्याशी चुनाव नहीं जीत सका इस स्थिति ने अमर के खिलाफ पार्टी में माहौल गर्माने लगा। इसके बाद अमर सिंह की सबसे बडी गल्ली यू.पी.ए. सरकार को बाहर से समर्थन देने के फैसले में है। दरअसल, मुलायम भी बाहर से समर्थन देने से ज्यादा सत्ता में आकर महत्वपूर्ण मंत्रालय लेने के विचार में थे। मुलायम सिंह अपने पुत्र अखिलेश को महत्वपूर्ण मंत्रालय में मंत्री देखना चाहते थे और अखिलेश भी केंद्र में मंत्री बनने को आतुर थे। मुलायम का पूरा परिवार यू.पी.ए. सरकार में सत्ता की भागीदारी चाह रहा था। परंतु अमर सिंह ने यहा भी अपना पेच फसाया और मुलायम को ऐसा गणित समझाया कि पूरा परिवार विपक्ष में बैठने को मजबूर हो गया। उसके बाद डिम्पल यादव की हार ने मुलायम के परिवार का सब्र का बांध तोड दिया। हालात इतने विस्फोटक हो गए थे कि अखिलेश ने स्पष्ट मुलायम सिंह से कह दिया था कि वे अमर और अखिलेश में से किसी एक का चुनाव कर ले। अखिलेश के साथ उनके चाचा रामगोपाल यादव और शिवपाल यादव का पूरा समर्थन था। अखिलेश की तरफ से मोर्चा राम गोपाल यादव ने सम्भाला था और अंत में मुलायम ने अपने परिवार का साथ देते हुए अमर सिंह से कह दिया कि ‘अब पार्टी के नितिगत फैसले अखिलेश यादव एवं रामगोपाल यादव मिलकर लेंगे। बेहतर हो आगे से आप किसी भी विषय पर पहले अखिलेश का विचार जान ले और उसके बाद ही मीडिया में कोई बयान दे। पार्टी में अब अखिलेश का निर्णय ही अंतिम माना जाएगा।’

मुलायम के मुख से यह सुनते ही अमर सिंह समझ गए कि अब उनका वनवास निश्चित है और उन्हें अपनी प्रासंगिता बनाए रखने के लिए और दलों को खटखटना होगा। इसी को ध्यान में रखते हुए सिंगापुर इलाज कराने के लिए रवाना होने से पहले अमर सिंह ने सोनिया गांधी से मिलने का तीन बार समय मागा परंतु अपनी व्यस्तता का हवाला देकर सोनिया ने मिलने में असमर्थता जताई। अमर सिंह समझ गए कि कांग्रेस के दरवाजे उनके लिए खुलना आसान नहीं है। दरअसल अमर सिंह के लिए कांग्रेस की राह में सबसे बडा रोडा उनका बच्चन परिवार का अत्यत करीबी होना है। सोनिया गांधी कभी नहीं चाहेगी कि गांधी परिवार और बच्चन परिवार में दुरिया बढाने वाला शख्स कांग्रेस में आए। कांग्रेस में उनकी वापसी का दूसरा बडा रोडा पेट्रोलियम मंत्री मुरली देवडा है, मुरली देवडा मुकेश अम्बानी के करीबी है। जबकि अमर सिंह अनिल के करीबी है। ऐसी स्थिती में भी अमर कांग्रेस का सहारा नहीं पा सकते है। इसके बाद राष्ट्रवादी कांग्रेस में भी अमर का आना संभव नहीं है कारण राष्ट्रवादी में नागरिक उड्डयन मंत्री प्रफुल्ल पटेल है और प्रफुल्ल पटेल मुकेश अंबानी के उतने ही करीबी है जितने अमर सिंह अनिल अंबानी के। अमर सिंह लाख कोशिश कर ले प्रफुल्ल पटेल के रहते अमर सिंह राष्ट्रवादी में आ नहीं सकते है। अमर सिंह उसी स्थिति में राष्ट्रवादी में आ सकते है जब वे अनिल से सम्बध विच्छेद कर ले और मुकेश अंबानी से माफी मांग ले। जो फिलहाल संभव नहीं है। भाजपा में संघ के संस्कार और नितीन गडकरी के प्रभाव के चलते भाजपा के दरवाजे बंद है।

दरअसल अमर सिंह की परेशानी यह है कि वह जमीनी नेता नहीं है कभी चुनाव लडे नहीं। राज्यसभा को सुशोभित करते रहे है। अमर सिंह जैसे नेता जमीन पर महल बना सकते है। लेकिन खुद के लिए जमीन नहीं बना सकते क्योंकि जमीन बनाने के लिए जमीन से जुडा नेता होना पहली प्राथमिकता है। जो अमर सिंह के पास नहीं है। अमर सिंह ने अपना महल मुलायम सिंह की जमीन पर खडा किया है अब वह जमीन उनके पैरों के नीचे से खसक चुकी है। और कोई जमीनी नेता भी उनके साथ नहीं है। जयाप्रदा ने तो अमर सिंह से पूछ ही लिया कि ”समाजवादी पार्टी नहीं तो फिर कौन?”

अब अमर सिंह कह रहे है कि अभी तक मुलायमवादी था अब समाजवादी बनूंगा। समाजवाद के सच्चे पैरोकारो में आचार्य नरेन्द्र देव, जयप्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया, राज नारायण का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। अब अमर सिंह किस समाजवाद की बात कर रहे है यह वही बता सकते है। निश्चित रूप से अमर सिंह का समाजवाद इस समाजवादिया से भिन्न होगा। अब अमर सिंह नया समाजवाद स्थापित करना चाहते है। राममनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण, राजनारायण के समाजवाद का स्थान अब अमरसिंह, अनिल अंबानी, जया बच्चन, जयाप्रदा एवं संजय दत्त जैसे पूंजीपतियों ने ले लिया है। ये समजावाद के कलयुगी अवतार है। डॉ. लोहिया की सप्त क्रांति के सपनों को अमरसिंह जैसे कलयुगी समाजवादियों ने सात तालों में बंद कर दिया है और उसकी चाबी पूंजीपतियों के हवाले कर दी है। समाजवाद के यह मौखिक पैरोकार खूद ही पूंजीपतियों के गोद में बैठ गए है।

बरहहाल अब अमरसिंह क्या करेंगे? अब अमरसिंह समजावादी पार्टी में रहकर ही पार्टी को तोडने काम करेंगे। दल बादल कानून के तहत एक तिहाई सदस्यों द्वारा विद्रोह करने पर उन्हे अलग गुट के रूप में मान्यता मिल सकती है। अमरसिंह अभी पार्टी के दस सांसदो को तोडकर अपना अलग गुट बनाने की रणनिती पर काम कर रहे है। इसके बाद वे अपना दल बनाकर छोटे छोटे दलो को अपने ग्लैमर और पैसो की ताकत पर एक छतरी के नीचे इकट्टा करेंगे। अमरसिंह ने जिन लोगो से मिलना और एक मंच पर लाने की कोशिश शुरू की है उसमें सांसद दिग्विजय सिंह, पूर्व कॉग्रेसी नटवर सिंह, पूर्व भाजपाई जसवंत सिंह है। इसके अलावा अमरसिंह, कल्याणसिंह को जोडकर पिछडे को अपनी तरफ मोडने का प्रयत्न करेंगे। पूर्वाचल राज्य का समर्थन करके एवं हरित राज्य का समर्थन करके अजीतसिंह को भी साधने की कोशिश करेंगे।

दरअसल अब अमरसिंह, समाजवाद की नहीं ठाकुरवाद की राजनीति पर जोर दे रहे है। अमरसिंह जिस योजना पर काम कर रहे है उसमें वह सबसे पहले सभी पार्टियों के सभी असंतुष्टों को खासकर ठाकुरों को साधने में लगे है।

मुलायम सिंह भी अमर सिंह की रग रग से वाकिफ है इस स्थिति को भापकर ही मुलायम सिंह ने डेमेंज कन्ट्रोल की कवायत शुरू कर दी है। मुलायम का पूरा कुनबा पार्टी के सांसदों एवं विधायकों को साधने में लग गया है। लखनऊ में मोर्चा अखिलेश यादव व उनके चाचा शिवपाल यादव ने सम्हाला है जबकि दिल्ली को बचाने का जिम्मा खुद मुलायम एव उनके भाई रामगोपाल यादव ने सम्भाला है। अमरसिंह जानते है कि मुलायम की पूरी जमा पूंजी ही उत्तर प्रदेश है। अमरसिंह इसी जमा पूंजी को लूटने का काम करेगे और खूद न लूट पाने की स्थिति में किसी और दल को लुटवाने में मदद करेंगे। कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह जो उ.प्र. के प्रभारी है यह भी समाजवादी के कुछ सांसदों को सम्पर्क में है और जल्दी ही कुछ सांसद कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण कर सकते है। अमर के पूंजीपतियों मित्रों में सहारा के सुब्रोतो राय काफी पहले ही अमर से दूरी बना चुके है। अनिल अंबानी शुद्ध व्यवसायी है। हर रिश्ते को नफा-नुकसान के तराजू पर तोलते है। अभी अनिल अंबानी मौन है, इस बात की प्रबल सभावनाएँ है कि जल्दी ही अनिल अंबानी का रिलायन्स का नम्बर अमर सिंह से आऊट ऑफ रिच हो जाएगा।

अमरसिंह ग्लैमर की चकाचौध और अंबानी के पैसों के दम पर अपनी प्रासंगिकता बनाए रखना चाहते है। लेकिन अमरसिंह भूल रहे है कि बच्चन परिचार का ग्लैमर और पैसो की ताकत पिछले विधानसभा चुनावों के काम न आ सकी थी।

देख लेना बच्चन परिवार का ग्लैमर और अंबानी का पैसा भी अमरसिंह को पार नहीं लगा जाएगा। या तो अमरसिंह वापस लौटकर मुलायमवादी हो जाएगे या भारतीय राजनीति में अप्रासंगिक हो जाएंगे। देखते है अमरसिंह क्या होना पसंद करते है।

Tuesday, January 26, 2010

गुरुकुल कांगडी विश्वविद्यालय को बंद करने की साजिश

कपिल सिब्बल के मंत्रालय ने सर्वोच्च न्यायालय में कुछ ऐसे शिक्षा संस्थानों की सूची प्रस्तुत की है। जिनकी मान्यता रद्द की जानी चाहिए। इन शिक्षण संस्थानों व विश्वविद्यालय अधिनियम आयोग के अंतगर्त मानद विश्वविद्यालय की मान्यता दी गई थी। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग अधिनियम में प्रावधान है कि यदि किसी शिक्षा संस्थान को अपने क्षेत्र में काम करते हुए लंबा अर्सा हो जाए और उसका काम भी तसल्लीवक्श होतो उसे विश्वविद्यालय के समकक्ष माना जाता है। तब यह शिक्षा संस्थान विभिन्न विषयों का पाठ्यक्रम भी स्वयं ही निर्धारित करता है और विद्यार्थियों की परीक्षा भी लेता है, और स्वयं ही उन्हें डिग्री आबंटित करता है। आयोग ने बहुत गिने-चुने शिक्षण संस्थानों को जिनको अपने क्षेत्र में कार्य करते हुए कई दशक हो गए थे, और इन्हें समकक्ष विश्वविद्यालय का दर्जा प्रदान किया हुआ था। लेकिन जब मानव संसाधन मंत्रालय का कार्यभार अर्जुन सिंह के पास आया तो उन्होंने अनेकानेक कारणों से कुकुरमुत्तों की तरह नए-नए उग आए शिक्षा संस्थानों को भी समकक्ष विश्वविद्यालय का दर्जा दे दिया। कुछ लोगों का यह भी कहना है कि इसके पीछे पैसे के इधर-उधर होने का कारण भी था। जहां तक कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के कुछ अधिकारियों ने भी अर्जुन सिंह के इन प्रयासों का भी विरोध किया था परंतु राजनीति में रहने वाले लोग जानते हैं कि लक्ष्मी के आगे अर्र्जुन सिंह तो क्या युधिष्ठिर चंद भी टें बोल जाते है।

अर्जुन सिंह के ही एक अन्य सहयोगी अजीत जोगी ने निजी (प्राईवेट) विश्वविद्यालय खुलवाने का धंधा चालू किया था। बाद में उच्चतम न्यायालय ने इस धंधे पर रोक लगाने की कोशिश भी की परंतु व्यापार जगत में जैसा कि होता है, जब कोई धंधा एक बार चल निकले तो फिर उसे रोकना असंभव नहीं तो कठिन तो होता ही है। अर्जुन सिंह की देखा-देखी विभिन्न प्रांतों में उनकी शिष्ट मंडली ने भी प्राईवेट विश्वविद्यालय के नाम पर शिक्षा की दुकानें खुलवा दी। अब अर्जुन सिंह की जगह मानव संसाधन मंत्रालय का काम एक वकील कपिल सिब्बल के हवाले कर दिया है। कपिल सिब्बल के शौक अर्जुन सिंह की तरह देसी नहीं हैं बल्कि विदेशी है। इसलिए वे विदेशी विश्वविद्यालयों को हिंदुस्तान में लाने की जोड-तोड में लगे रहते है, जाहिर है इसके लिए उन्हें सोनिया गांधी का समर्थन भी प्राप्त होगा ही। शिक्षा की विदेशी दुकानें खुलवानी हैं तो देसी दुकानों को बदनाम भी करना पडेगा और हटाना भी पडेगा तभी नई दुकानों की जगह बन पाएगी।

शिक्षा की देसी दुकानें हटाने के दो तरीके हो सकते थे। एक तो उनकी गहराई से छानबीन की जाती और जो सचमुच शिक्षा के नाम पर दुकान चला रहे हैं उनकी गर्दन पकडी जाती। जो शिक्षा संस्थान अर्से से सचमुच शिक्षा के प्रचार-प्रसार में लगे हैं उन्हें प्रोत्साहित किया जाता। यह लोकतांत्रिक तरीका था और लाभकारी भी। लेकिन भारत सरकार दरअसल एक तीर से दो शिकार करना चाहती थी वह देसी दुकानों को बंद करवाने की आड में भारतीय शिक्षा के सुप्रसिद्ध गुरूकुल कांगडी विश्वविद्यालय को बंद करवाना चाहती थी।

गुरूकुल कांगडी विश्वविद्यालय की स्थापना आज से सौ साल पहले 1902 में स्वामी श्रद्धानंद ने की थी इसका उद्देश्य भारत में प्रचलित ब्रिटिश शिक्षा पद्धति के मुकाबले भारतीय शिक्षा पद्धति का माडल स्थापित करना था और यह कार्य इस विश्वविद्यालय ने सफलतापूर्वक किया और आज भी कर रहा है। भारत के आजादी की लडाई में इस विश्वविद्यालय की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। अपने जन्मकाल से ही यह विश्वविद्यालय अंग्रेजी शासकों की आंखों में खटकने लगा था। लेकिन वे इस गुरूकुल के पक्ष में भारी जनमत को देखते हुए इसे बंद नहीं करवा पा रहे थे। अंग्रेजों के चले जाने के बाद भी यह विश्वविद्यालय उन लोगों की आंखों में खटकता रहा जो शिक्षा के क्षेत्र में हर स्थिति में ब्रिटिश विरासत को चलाए रहने के पक्षधर थे। जाहिर है गुरूकुल कांगडी विश्वविद्यालय ऐसे लोगों की आंखों में खटक रहा है। इन लोगों को या तो विदेशी विश्वविद्यालय चाहिए या फिर अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय यही कारण है कि कपिल सिब्बल का मंत्रालय अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय का विस्तार अन्य राज्यों में भी करने में जुटा हुआ है और विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में लाने के प्रयास कर रहा है अब भारत सरकार ने एक तीर से दो शिकार किए हैं। जिन समकक्ष विश्वविद्यालयों को बंद करने की घोषणा की गई है, उनमें गुरूकुल कांगडी विश्वविद्यालय, हरिद्वार का नाम भी डाल दिया गया है। जो काम अंग्रेज सरकार चाहते हुए भी नहीं कर सकी, वह काम सोनिया गांधी और कपिल सिब्बल मिलकर कर रहे हैं। गुरूकुल कांगडी विश्वविद्यालय इस देश की विरासत ही नहीं बल्कि अस्मिता की पहचान भी है। नालंदा और तक्षशिला विश्वविद्यालय को अरबों और तुर्कों की सेनाओं ने घ्वस्त कर दिया था। भारतीय विद्यालयों को मेकाले की शिक्षा पद्धति खा गई थी। अब गुरूकुल कांगडी विश्वविद्यालय को कपिल सिब्बल की योजनाएं ध्वस्त कर रही हैं। जब नालंदा और तक्षशिला विश्वविद्यालय ध्वस्त हुए थे तो भारत के लोग उसका मुकाबला नहीं कर पाए थे और न उसे रोक सके थे लेकिन अब 21 वी शताब्दी में यही काम गुरूकुल कांगडी विश्वविद्यालय के साथ हो रहा है और इस काम को करने वाले भी दुर्भाग्य से वही लोग हैं जो सिर्फ शक्ल से भारतीय हैं या फिर जिन्होंने कानूनी रूप से भारत की नागरिकता प्राप्त कर ली है। लेकिन इस बार शायद कपिल सिब्बलों के लिए यह करना इतना आसान नहीं होगा।

कहां ले जा रहा है इलेक्ट्रानिक मीडिया समाज को!

दोपहर, देर रात और सुबह सवेरे अगर आपने अपना बुद्धू बॉक्स खोलें तो आपको स्वयंभू भविष्यवक्ता अंक ज्योतिषी और ना ना प्रकार के रत्न, गंडे, तावीज बेचने वाले विज्ञापनों की दुकानें साफ दिख जाएंगी। यह सच है कि हर कोई अनिष्ट से घबराता है। मानव स्वभाव है कि वह किसी अनहोनी के न घटने के लिए हर जतन करने को तत्पर रहता है। इसी का फायदा अंधविश्वास का व्यापार करने वाले बडे ही करीने से उठाते हैं। विडम्बना यह है कि इस अंधविश्वास की मार्केटिंग में ”न्यूज चैनल्स” द्वारा अपने आदर्शों पर लालच को भारी पडने दिया जा रहा है।

धार्मिक आस्था और मान्यताओं को कोई भी चेलेंज करने की स्थिति में नहीं है। आदि अनादि काल से चली आ रही मान्यताओं को मानना या ना मानना निश्चित तौर पर किसी का नितांत निजी मामला हो सकता है। इन्हें थोपा नहीं जा सकता है। हर काल में नराधम अधर्मियों द्वारा इन मान्यताओं को तोड मरोडकर अपना हित साधा है। आज के युग में भी लोगों के मन में ”डर” पैदा कर इस अंधविश्वास के बाजार के लिए उपजाउ माहौल तैयार किया जा रहा है।

जिस तरह से बीसवीं सदी के अंतिम और इक्कीसवीं सदी के पहले दशक में स्वयंभू योग, आध्यात्म गुरू और प्रवचनकर्ताओं ने इलेक्ट्रानिक मीडिया को अपने बाहुपाश में लिया है, वह चमत्कार से कम नहीं है। समाचार चैनल्स यह भूल गए हैं कि उनका दायित्व समाज को सही दिशा दिखाना है ना कि किसी तरह के अंधविश्वास को बढावा देना।

चैनल्स पर इन स्वयंभू गुरूओं द्वारा अपने शिविरों में गंभीर बीमारी से ठीक हुए मरीजों के साथ सवाल जवाब का जिस तरह का प्रायोजित कार्यक्रम आयोजित किया जाता है, उसे देखकर लगता है कि मीडिया के एक प्रभाग की आत्मा मर चुकी है। अस्सी के दशक तक प्रिंट मीडिया का एकाधिकार था, इसके बाद इलेक्ट्रानिक मीडिया का पदार्पण हुआ, जिसे लोगों ने अपनी आंखों का तारा बना लिया।

अपनी इस सफलता से यह मीडिया इस कदर अभिमान में डूबा कि इसे अच्छे बुरे का भान ही नहीं रहा। अपनी सफलता के मद में चूर मीडिया के इस प्रभाग ने जो मन में आया दिखाना आरंभ कर दिया। कभी सनसनी फैलाने के लिए कोई शिगूफा छोडा तो कभी कोई। रही सही कसर अंधविश्वास की मार्केटिंग कर पूरी कर दी। आज कमोबेश हर चेनल पर आम आदमी को भयाक्रांत कर उन्हें अंधविश्वासी बना किसी न किसी सुरक्षा कवच जैसे प्रोडेक्ट बेचने का मंच बन चुके हैं आज के समय में न्यूज चेनल्स।

कभी संभावित दुर्घटना, तो कभी रोजी रोजगार में व्यवधान, कभी पति पत्नि में अनबन जैसे आम साधारण विषय ही चुने जाते हैं लोगों को डराने के लिए। यह सच्चाई है कि हर किसी के दिनचर्या में छोटी-मोटी दुर्घटना, किसी से अनबन, रोजगार में उतार चढाव सब कुछ होना सामान्य बात है। इसी सामान्य बात को वृहद तौर पर दर्शाकर लोगों के मन में पहले डर पैदा किया जाता है, फिर इसके बाद किसी को फायदा होने की बात दर्शाकर उस पर सील लगाकर अपना उत्पाद बेचा जाता है।

जिस तरह शहरों में पहले दो तीन लोग घरों घर जाकर यह पूछते हैं कि कोई बर्र का छत्ता तोडने वाले तो नहीं आए थे, ठीक उसी तर्ज पर इन अंधविश्वास फैलाने वालों द्वारा ताना बाना रचा जाता है। इसके कुछ ही देर बाद एक बाल्टी में कुछ मरी बर्र के साथ शहद लेकर दो अन्य आदमी प्रकट होते हैं और शुद्ध शहद के नाम पर अच्छे दाम वसूल रफत डाल देते हैं। एक दिन बाद जब उस शहद को देखा जाता है तो पाते हैं कि वह गुड के सीरा के अलावा कुछ नहीं है।

इतना ही नहीं इस सबसे उलट अब तो टीवी के माध्यम से अपने पूर्व जनम में भी तांकझांक कर लेते हैं। आप पिछले जन्म में क्या थे, आज आपकी उमर 20 साल है, पिछले जन्म में 1800 के आसपास के नजारे का नाटय रूपांतरण देखने को मिलता है। अरे आपकी आत्मा ने जब आपका शरीर त्यागा तब से अब तक आपकी आत्मा कहां थी। यह रियलिटी शो बाकायदा चल रहा है, और चेनल की टीआरपी (टेलिवीजन रेटिंग प्वाईंट) में तेजी से उछाल दर्ज किया गया।

इस शो में पूर्वजनम आधारित चिकित्सा, ”पास्ट लाइफ रिग्रेशन थेरिपी का इस्तेमाल किया जाना बताया जाता है। इस थेरिपी का न तो कोई वैज्ञानिक आधार है और न ही यह प्रासंगिक भी कही जा सकती है, और न ही चिकित्सा विज्ञान में इसे चिकित्सा पद्यति के तौर पर मान्यता मिली है।

जानकारों का कहना है कि आज जब हिन्दुस्तान साईंस और तकनालाजी के तौर पर वैज्ञानिक आधार पर विकास के नए आयाम गढने की तैयारी में है, तब इस तरह के शो के माध्यम से महज सनसनी, उत्सुक्ता, कौतुहल आदि के लिए अंधविश्वास फैलाने की इजाजत कैसे दी जा सकती है। इस तरह के प्रोग्राम का प्रसारण नैतिकता के आधार पर गलत, गैरजिम्मेदाराना और खतरनाक ही है।

यह बात भी उसी तरह सच है जितना कि दिन और रात, कि पूर्व जन्म को लेकर हिन्दुस्तान में तरह तरह की मान्यताएं, भांतियां और अंधविश्वास अस्तित्व में हैं। इक्कीसवीं सदी में अगर हम पंद्रहवीं सदी की रूढीवादी मान्यताओं का पोषण करेंगे तब तो हो चुकी भारत की तरक्की। इस तरह के कार्यक्रम लोगों को अंधविश्वास से दूर ले जाने के स्थान पर अंधविश्वास के चंगुल में फंसाकर और अधिक अंधविश्वासी बनाने के रास्ते ही प्रशस्त करते हैं।

एसा नहीं कि मीडिया के कल्पवृक्ष के जन्मदाता प्रिंट मीडिया में अंधविश्वासों को बढावा न दिया जा रहा हो। प्रिंट मीडिया में ”सेक्स” को लेकर तरह तरह के विज्ञापनों से पाठकों को भ्रमित किया जाता है। तथाकथित विशेषज्ञों से यौन रोग से संबंधित भ्रांतियों के बारे में तरह तरह के गढे हुए सवाल जवाब भी रोचक हुआ करते हैं। सालों पहले सरिता, मुक्ता जैसी पत्रिकाओं में सवाल जवाब हुआ करते थे, किन्तु उसमें इसका समाधान ही हुआ करता था, उसमें किसी ब्रांड विशेष के इस्तेमाल पर जोर नहीं दिया जाता था।

आज तो प्रिंट मीडिया में इस तरह के विज्ञापनों की भरमार होती है, जिनमें वक्ष को सुडोल बनाने, लिंगवर्धक यंत्र, के साथ ही साथ योन समस्याओं के फटाफट समाधान का दावा किया जाता है। प्रिंट में अब तो देसी व्याग्रा, जापानी तेल, मर्दानगी को दुबारा पैदा करने वाले खानदानी शफाखानों के विज्ञापनों की भरमार हो गई है। ”गुप्तज्ञान” से लेकर ”कामसूत्र” तक के राज दो मिनिट में आपके सामने होते हैं। मजे की बात तो यह है कि देह व्यापार का अड्डा बन चुके ”मसाज सेंटर्स” के विज्ञापन जिसमें देशी विदेशी बालाओं से मसाज के लुभावने आकर्षण होते हैं को छापने से भी गुरेज नहीं है प्रिंट मीडिया को।

सवाल यह उठता है कि मीडिया अब किस स्वरूप को अंगीकार कर रहा है। अगर मीडिया की यह दुर्गत हो रही है तो इसके लिए सिर्फ और सिर्फ कार्पोरेट मानसिकता के मीडिया की ही जवाबदेही मानी जाएगी। ज्यादा से ज्यादा लाभ कमाने के चक्कर में आज मीडिया किसी भी स्तर पर उतरकर अपने दर्शक और पाठकों को भ्रमित करने से नहीं चूक रहा है। इसे अच्छी शुरूआत कतई नहीं माना जाना चाहिए। मीडिया के सच्चे हितैषियों को इसका प्रतिकार करना आवश्यक है अन्यथा मीडिया की आवाज कहां खो जाएगी कहा नहीं जा सकता है।

Monday, January 25, 2010

‘गण’ सुस्त और ‘तंत्र’ अनियंत्रित हो जाये तो कैसे सफल होगा ‘गणतंत्र’

पूरा देश इकसठवां गणतंत्र दिवस उल्लास के साथ मना रहा हैं। 26 जनवरी, 1950 को हमने अपने देश का संविधान लागू किया था। जनता के द्वारा, जनता के लिये, जनता के शासन की व्यवस्था इस संविधान में की गयी थीं। समस्त कार्यों के सुचारु रूप से संचालन के लिये कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के साथ-साथ पारदर्शी प्रशासन के मूल उद्देश्य से प्रेस को चौथे स्तंभ के रूप में मान्यता दी गयी थी।

संविधान में सभी स्तंभों के कार्यक्षेत्र का स्पष्ट विवरण दिया गया हैं। लेकिन कई बार ऐसे मौके भी आये जब इनमें यह होड़ मच गयी कि कौन सर्वोच्च हैं? ऐसे अवसर भी आये जब कभी विधायिका और न्यायपालिका आमने सामने दिखी तो कभी कार्यपालिका और विधायिका में टकराहट के स्वर सुनायी दिये तो कभी प्रेस पर स्वच्छंदता के आरोप लगे। ऐसे दौर में कुछ ऐसे अप्रिय वाकये भी हुये जो कि निदंनीय रहे।

‘गण’ को शिक्षित कर जागृत करने के अभियान को गति देने के प्रयास किये गये। लेकिन शिक्षा के क्षेत्र में इतने अधिक प्रयोग किये गये कि यह लक्ष्य हमसे आज साठ साल भी दूर ही दिखायी दे रहा हैं। वर्तमान में सरकार शिक्षा की गारंटी देने के उसी प्रकार प्रयास कर रही है जैसा कि रोजगार गारंटी योजना के तहत रोजगार की गारंटी दी गयी हैं। शिक्षा को प्रोत्साहन देकर जागृति लाने की महती आवश्यकता आज भी महसूस की जा रही हैं। ताकि ‘गण’ चुस्त हो सके।

‘तंत्र’ को नियंत्रित रखना अत्यंत आवयक हैं। ‘तंत्र’ यदि निरंकुश हो जाये तो ‘गण’ के अधिकारो को सुरक्षित रख पाना एक दुष्कर कार्य हो जाता हैं। एक समस्या यह भी हैं कि यदि देश में कोई ईमानदार हैं तो वो बाकी पूरे देश को बेइमान मानने लगता हैं। ऐसी घारणा हैं कि तंत्र को नियंत्रित रखने के लिये पारदर्शी प्रशासन होना अत्यंत आवश्यक हैं। इस दिशा में सरकार द्वारा लागू किया गया सूचना का अधिकार कानून कारगर साबित हो सकता हैं। लेकिन कानूनी बारिकियों और प्रशासनिक अमले की हठधर्मिता कई मामलों में आड़े आते दिखायी दे रही हैं। राजनेता भी तंत्र से राजनैतिक काम लेकर उन्हें नियंत्रित करने में असहाय दिख रहें हैं। जिससे तंत्र अनियंत्रित ही दिखायी दे रहा हैं।

‘गण’ यदि सुस्त हो और ‘तंत्र’ अनियंत्रित हो भला ‘गणतंत्र’ कैसे सफल हो पायेगा? 61 वें गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर हमारी यही कामना हैं कि ‘गण’ जागृत हो, ‘तंत्र’ नियंत्रित हो और राजनेता इस दुष्कर कार्य को कर सकें ताकि ‘गणतंत्र’ सफल हो सके।

हम और हमारा गणतंत्र

मरते मिटते रहते कई दंगों में, मरना हो तो वतन पे मरो

वतन की मौत बड़ी रंगीन होती है

पैरों से ना रौंदों माथे से लगा लो देश की मिट्टी तो सिंदूर होती है
हम गणतंत्र दिवस की 61 वी वर्षगांठ मना रहे हैं…यूं तो हमें आजादी 15 अगस्त को ही मिल गई थी लेकिन 26 जनवरी 1950 तक हम भारतीयों के शोषण युक्त कलम से लिखे संविधान के अनुसार ही चलते रहे। किसी भी देश के संविधान का ना होना उस देश की रीढ़ की हड़्ड़ी ना होने के समान है,.यानी कि हमें असली आज़ादी 26 जनवरी को मिली जब हमारे देश के नेताओं ने वर्षों से भारतीयों के शोषण युक्त कलम से लिखी इबारत को तोड़कर अपना संविधान लागू किया। लेकिन अंधानुकरण के इस दौर में गणतंत्र सिर्फ ‘धन’ और ‘गन’ का तंत्र बन कर रह गया है..जिस गणतंत्र पर सारे भारतीयों को गर्व है उसी की धज्जियां सरे आम उठाई जा रही है। और इस घिनौने काम को अंज़ाम दे रहे हैं हमारे ही बीच के कुछ तथाकथित नेता जिनके लिए इस संविधान का मतलब सिर्फ कागजों पर लिखी चंद पंक्तियों से ज्यादा और कुछ नहीं है। हमारा गणतंत्र हमारे लिए उस धुरी की तरह से जिसके चारों और देश का पहिया चक्कर लगाता है। गणतंत्र का मतलब है ‘ जनता का तंत्र जनता के लिए’ अर्थात् इस संविधान में सर्वोपरि है जनतंत्र पर क्या मौज़ूदा हालातों के बाद कहा जा सकता है कि इस जनतंत्र(गणतंत्र) में जनता का सर्वोपरि स्थान आज भी वैसा ही मौज़ूद है जिसकी परिकल्पना हमारे राष्ट्र भक्त शहीदों और नेताओं ने की थी। तमाम प्रयासों के बाद आज भी देश की जनता के पास अगर कुछ है तो सिर्फ एक मूकदर्शक की सीमा, बुरा मत देखों बुरा मत सुनों ,बुरा मत कहो की तर्ज पर आज हमारे पास है बुरा देखने की बुरा सुनने की लेकिन उस बुराई का प्रतिवाद नही कहने(करने) की सीमा। जिस विदेशी भाषा, विदेशी विचार, और विदेशी तंत्र के लिए आवाजें उठाई गई उन आदर्शों के मायने बैमानी साबित हो रहे है। आज इस देश के गणतंत्र को खुली चुनौती दी रही है…पाकिस्तान सीमा पार से आतंकवादियों को भेज कर हमारे देश की नींवों को खोखला करता जा रहा है, नक्सलवाद लगातार हमारी छाती पर अपने उपद्रवकी कीलें ठोकता जा रहा है…उसके बाद भी हमसे सिवाय ढ़िढ़ौरा पीटने के और कुछ नहीं हो पा रहा है…हमारे पास सिवाय दूसरों के समाने हाथ फैलाकर चिल्लाने के आलावा कोई रास्ता ही नहीं होता…

आखिस क्यों हम ये भूल रहे हैं कि शांति दूत गांधी की इस धरती पर आज़ाद और भगतसिंह ने भी जन्म लिया है…।आइए इस गणतंत्र दिवस की पावन बेला पर एक बार फिर से इस देश को बापू के सपनों का भारत बनाने की कोशिश शुरू करें। आइए जातिवाद को छोडकर एक बार फिर से कमजोर पड़ चुकी देश की नींव को मजबूत करें।कम से कम यह एक सच्ची श्रद्धांजलि तो होगी उन अमर शहीदों की….

तुम हो हिन्दू तो मुझे मुसलमां जान लो

तुम हो गीता तो मुझे कुरान मान लो

कब तक रहेगें अलग अलग और सहेगें ज़ुदा ज़ुदा

मैं तुम्हें पूंजू , तुम मुझे अज़ान दो

गणतंत्र दिवस और राष्ट्रीय उत्सव का मिथक

गणतंत्र दिवस आ रहा है। पूरे देश में इसे मनाने की कोशिश शुरू हो जाएगी। गणतंत्र दिवस को हमारी सरकार और उसके अनुयायी राष्ट्रीय उत्सव कहते हैं। देश के सारे विद्यालयों और सरकारी संस्थानों में इस राष्ट्रीय उत्सव को मनाने की बाध्यता है। सवाल यह है कि उत्सव क्या बाध्यता से मनाए जाते हैं? एक ऐसा समारोह जिसे बाध्य करके मनवाया जाता हो, को उत्सव कहना कितना उचित है और एक ऐसे उत्सव को राष्ट्रीय उत्सव कहना कितना उचित होगा? ये सवाल हो सकता है कि आज के सरकारी शिक्षा और नौकरी में फंसे लोगों को देशद्रोहिता से परिपूर्ण लगें, परंतु जो इस देश की सनातनता और गरिमामय इतिहास से परिचित हैं, उन्हें इस अल्पजीवी, भारीदोषयुक्त और देश की अस्मिता व पहचान से दूर संविधान की स्थापना का समारोह एक सरकारी वितंडावाद से अधिक कुछ भी नहीं प्रतीत होगा। क्या इसे हम सरकार की विफलता नहीं कहेंगे कि साठ वर्षों बाद भी उसका राष्ट्रीय उत्सव देश के आम आदमी तक नहीं पहुंच पाया है?

होना तो यह चाहिए था कि वर्ष में कभी भी एक बार बैठ कर इस संविधान पर विचार-विमर्श किया जाता कि आज के दौर में यह कितना उपयोगी रह गया है और क्या हमें एक नए संविधान की आवश्यकता नहीं है। परंतु आज के कट्टरपंथी, सांप्रदायिक व समाजतोड़क लोगों की जमात हल्ला मचाने लगेगी कि इस संविधान से परे कुछ भी नहीं सोचा जा सकता। हमें जो कुछ भी सोचना है, वह इस संविधान के दायरे में रह कर ही सोचना है। परंतु वे इस बात का जवाब देने के लिए तैयार नहीं हैं कि जब इस देश में लाखों वर्षों से चले आ रहे मनुस्मृति जैसे संविधानों को आपत्तिजनक होने पर छोड़ा जा सकता है तो इस संविधान को क्यों नहीं? वे यह बताने के लिए तैयार नहीं होते कि आखिर इस संविधान में ऐसा क्या है जिससे इस देश को कुछ फायदा हुआ हो? क्या इस संविधान के लागू होने के बाद देश में अलगाववाद घट गया, क्या इस संविधान ने शासकों की तानाशाही व निरंकुशता पर लगाम लगा दी, क्या इस संविधान ने आम आदमी को इतनी क्षमता दे दी कि वह अपने शासकों से कोई स्पष्टीकरण मांग सके, क्या इस संविधान ने हमारे देश के कानून-व्यवस्था की स्थिति को सुधार दिया? ध्यान से देखें तो इन सारे प्रश्नों का उत्तर नहीं में है। आज देश में जितने अलगाववादी आंदोलन चल रहे हैं, उतने 1950 में नहीं थे। आज कहने के लिए देश में लोकतंत्र है लेकिन वास्तव में देश की राजनीति में आम आदमी की भूमिका शून्य ही है। आम आदमी आज इतना असहाय हो गया है कि वह चाहे या न चाहे, सरकारें बन ही जाती हैं और नेतागण अपना पेट भरने के लिए स्वतंत्र हो जाते हैं। कानून-व्यवस्था की स्थिति तो इतनी खराब है कि उसकी चर्चा करना ही व्यर्थ है। सोचने की बात यह है कि यदि यह सब कुछ नहीं हो पाया है तो फिर इस संविधान की प्रासंगिकता क्या है?

गणतंत्र दिवस को यदि राष्ट्रीय उत्सव नहीं कहें, इसमें संविधान का अपमान नहीं है। इसे मनाने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन इसे राष्ट्रीय उत्सव कहना राष्ट्र और उत्सव दोनों शब्दों के साथ मजाक करना है। इसे राजकीय उत्सव तो कहा जा सकता है परंतु राष्ट्रीय उत्सव कदापि नहीं। जो उत्सव देश के आम आदमी के मन को उत्साहित नहीं करता हो उसे राष्ट्रीय उत्सव कैसे कहें? वास्तव में स्वाधीनता प्रप्त करने के बाद अपने देश में एक नई संस्कृति विकसित करने और एक नया राष्ट्र गढने की कोशिश शुरू हुई थी। इसलिए इस देश के राष्ट्र से जुड़ी सभी पुरानी चीजों को दूर करने की कोशिश की गई। नए महापुरूष गढे गए, नया इतिहास लिखा गया, नए उत्सव बनाए गए। ये सारे प्रयत्न इस देश की प्राचीन अस्मिता को नष्ट करके एक नई अस्मिता गढने के लिए किए गए। यदि इस नई संस्कृति, राष्ट्र व अस्मिता में वास्तव में देश की भलाई होती तो उसे लोगों ने हाथों-हाथ लिया होता। परंतु ऐसा नहीं था। आज हम देख सकते हैं कि पुराने जीवन-मूल्यों व परंपराओं और देश की सनातनता की उपेक्षा करने से समस्याएं बढी ही हैं।

इसलिए गणतंत्र दिवस को संविधान स्थापना के समारोह के रूप में मनाया जाता है तो इसमें कुछ भी गलत नहीं है, लेकिन इसे राष्ट्रीय उत्सव कहना इस राष्ट्र का अपमान है। ऐसा नहीं है कि हमारे देश में कोई राष्ट्रीय उत्सव नहीं है। उदाहरण के लिए मकर संक्रांति एक राष्ट्रीय उत्सव ही है। इसे मनाने के लिए सरकार को कुछ भी नहीं करना होता है और यह पूरे देश में भिन्न-भिन्न नामों से मनाया जाता है। कहीं पोंगल, तो कहीं बिहु, कहीं मकर संक्रांति तो कहीं टुसु के नामों से पूरा देश इसे मनाता है और सरकार द्वारा छुट्टी नहीं दिए जाने के बावजूद मनाता है। इसप्रकार के अनेक उत्सव हैं, जिन्हें राष्ट्रीय उत्सव कहा जा सकता है। इसलिए इस गणतंत्र दिवस पर आइए सोचें कि इस देश की राजनीति को इस देश की मिट्टी से कैसे जोड़ा जाए? सोचें कि आखिर क्यों बापू चाहते थे कि भारत की राजनीति धर्माधारित हो, सेकुलर नहीं?

गणतंत्र दिवस और राष्ट्रीय उत्सव का मिथक

गणतंत्र दिवस आ रहा है। पूरे देश में इसे मनाने की कोशिश शुरू हो जाएगी। गणतंत्र दिवस को हमारी सरकार और उसके अनुयायी राष्ट्रीय उत्सव कहते हैं। देश के सारे विद्यालयों और सरकारी संस्थानों में इस राष्ट्रीय उत्सव को मनाने की बाध्यता है। सवाल यह है कि उत्सव क्या बाध्यता से मनाए जाते हैं? एक ऐसा समारोह जिसे बाध्य करके मनवाया जाता हो, को उत्सव कहना कितना उचित है और एक ऐसे उत्सव को राष्ट्रीय उत्सव कहना कितना उचित होगा? ये सवाल हो सकता है कि आज के सरकारी शिक्षा और नौकरी में फंसे लोगों को देशद्रोहिता से परिपूर्ण लगें, परंतु जो इस देश की सनातनता और गरिमामय इतिहास से परिचित हैं, उन्हें इस अल्पजीवी, भारीदोषयुक्त और देश की अस्मिता व पहचान से दूर संविधान की स्थापना का समारोह एक सरकारी वितंडावाद से अधिक कुछ भी नहीं प्रतीत होगा। क्या इसे हम सरकार की विफलता नहीं कहेंगे कि साठ वर्षों बाद भी उसका राष्ट्रीय उत्सव देश के आम आदमी तक नहीं पहुंच पाया है?

होना तो यह चाहिए था कि वर्ष में कभी भी एक बार बैठ कर इस संविधान पर विचार-विमर्श किया जाता कि आज के दौर में यह कितना उपयोगी रह गया है और क्या हमें एक नए संविधान की आवश्यकता नहीं है। परंतु आज के कट्टरपंथी, सांप्रदायिक व समाजतोड़क लोगों की जमात हल्ला मचाने लगेगी कि इस संविधान से परे कुछ भी नहीं सोचा जा सकता। हमें जो कुछ भी सोचना है, वह इस संविधान के दायरे में रह कर ही सोचना है। परंतु वे इस बात का जवाब देने के लिए तैयार नहीं हैं कि जब इस देश में लाखों वर्षों से चले आ रहे मनुस्मृति जैसे संविधानों को आपत्तिजनक होने पर छोड़ा जा सकता है तो इस संविधान को क्यों नहीं? वे यह बताने के लिए तैयार नहीं होते कि आखिर इस संविधान में ऐसा क्या है जिससे इस देश को कुछ फायदा हुआ हो? क्या इस संविधान के लागू होने के बाद देश में अलगाववाद घट गया, क्या इस संविधान ने शासकों की तानाशाही व निरंकुशता पर लगाम लगा दी, क्या इस संविधान ने आम आदमी को इतनी क्षमता दे दी कि वह अपने शासकों से कोई स्पष्टीकरण मांग सके, क्या इस संविधान ने हमारे देश के कानून-व्यवस्था की स्थिति को सुधार दिया? ध्यान से देखें तो इन सारे प्रश्नों का उत्तर नहीं में है। आज देश में जितने अलगाववादी आंदोलन चल रहे हैं, उतने 1950 में नहीं थे। आज कहने के लिए देश में लोकतंत्र है लेकिन वास्तव में देश की राजनीति में आम आदमी की भूमिका शून्य ही है। आम आदमी आज इतना असहाय हो गया है कि वह चाहे या न चाहे, सरकारें बन ही जाती हैं और नेतागण अपना पेट भरने के लिए स्वतंत्र हो जाते हैं। कानून-व्यवस्था की स्थिति तो इतनी खराब है कि उसकी चर्चा करना ही व्यर्थ है। सोचने की बात यह है कि यदि यह सब कुछ नहीं हो पाया है तो फिर इस संविधान की प्रासंगिकता क्या है?

गणतंत्र दिवस को यदि राष्ट्रीय उत्सव नहीं कहें, इसमें संविधान का अपमान नहीं है। इसे मनाने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन इसे राष्ट्रीय उत्सव कहना राष्ट्र और उत्सव दोनों शब्दों के साथ मजाक करना है। इसे राजकीय उत्सव तो कहा जा सकता है परंतु राष्ट्रीय उत्सव कदापि नहीं। जो उत्सव देश के आम आदमी के मन को उत्साहित नहीं करता हो उसे राष्ट्रीय उत्सव कैसे कहें? वास्तव में स्वाधीनता प्रप्त करने के बाद अपने देश में एक नई संस्कृति विकसित करने और एक नया राष्ट्र गढने की कोशिश शुरू हुई थी। इसलिए इस देश के राष्ट्र से जुड़ी सभी पुरानी चीजों को दूर करने की कोशिश की गई। नए महापुरूष गढे गए, नया इतिहास लिखा गया, नए उत्सव बनाए गए। ये सारे प्रयत्न इस देश की प्राचीन अस्मिता को नष्ट करके एक नई अस्मिता गढने के लिए किए गए। यदि इस नई संस्कृति, राष्ट्र व अस्मिता में वास्तव में देश की भलाई होती तो उसे लोगों ने हाथों-हाथ लिया होता। परंतु ऐसा नहीं था। आज हम देख सकते हैं कि पुराने जीवन-मूल्यों व परंपराओं और देश की सनातनता की उपेक्षा करने से समस्याएं बढी ही हैं।

इसलिए गणतंत्र दिवस को संविधान स्थापना के समारोह के रूप में मनाया जाता है तो इसमें कुछ भी गलत नहीं है, लेकिन इसे राष्ट्रीय उत्सव कहना इस राष्ट्र का अपमान है। ऐसा नहीं है कि हमारे देश में कोई राष्ट्रीय उत्सव नहीं है। उदाहरण के लिए मकर संक्रांति एक राष्ट्रीय उत्सव ही है। इसे मनाने के लिए सरकार को कुछ भी नहीं करना होता है और यह पूरे देश में भिन्न-भिन्न नामों से मनाया जाता है। कहीं पोंगल, तो कहीं बिहु, कहीं मकर संक्रांति तो कहीं टुसु के नामों से पूरा देश इसे मनाता है और सरकार द्वारा छुट्टी नहीं दिए जाने के बावजूद मनाता है। इसप्रकार के अनेक उत्सव हैं, जिन्हें राष्ट्रीय उत्सव कहा जा सकता है। इसलिए इस गणतंत्र दिवस पर आइए सोचें कि इस देश की राजनीति को इस देश की मिट्टी से कैसे जोड़ा जाए? सोचें कि आखिर क्यों बापू चाहते थे कि भारत की राजनीति धर्माधारित हो, सेकुलर नहीं?

Sunday, January 24, 2010

संदर्भ:नक्सलवाद/ जो तटस्थ है समय लिखेगा उनका भी अपराध!

सामान्यतया बौद्धिक वैचारिक सेमिनार आदि औपचारिक किस्म के होते हैं। विषय चाहे जितना गंभीर या शोकप्रद हो आपको पुष्पगुच्छ, स्वागत-गान आदि देखने को मिल ही जायेंगे। छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद ख़ास कर “सलवा जुडूम” पर कुछ समय पहले दिल्ली आयोजित एक सेमिनार का याद आ रही है जो देखते ही देखते अनौपचारिक सा हो गया था। छत्तीसगढ़ के सुदूर अंचल सुकमा से आये एक पीड़ित ने जब अपनी व्यथा-कथा अपने टूटे-फूटे शब्दों में सुनाना शुरू किया तो सभी उपस्थित जनों की आंखें नम हो गई थी। अपने पति के जघन्य हत्या की गवाह एक अन्य आदिवासी महिला जब बुक्का फाड़कर रोने लगी और नक्सलियों द्वारा किये जा रहे कुकृत्य से लोगों को अवगत कराया तो भौंचक से रह गये कई दिल्लीजन। आश्चर्य लगा उनको कि देश के किसी कोने में किसी विचार के नाम पर ऐसा भी कुकृत्य किया जा रहा है, या उन कुकर्मियों के विरूद्ध “सलवा-जुडूम” जैसा कोई आंदोलन भी चल रहा है।

परंतु अंतत: राष्ट्रीय राजधानी के उस नक्कारखाने में तूती की तरह ही साबित हुई उन लोगों की आवाज। मुबंई की रामभाऊ म्हालगी प्रबोधनी द्वारा आयोजित इस सेमिनार को दिल्ली में आयोजित करने का ध्येय था कि स्वतंत्रता बाद के सबसे अनूठे इस आंदोलन सलवा जुडूम से देश अवगत हो तथा संपूर्ण देश वनवासी बंधुजनों से एकात्म होकर उन्हें नैतिक समर्थन प्रदान करें। प्रायोजक की ये सोच भी रही होगी कि राष्ट्रीय मीडिया भी इस मामले में अपनी भूमिका का निर्वाह कर अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे बस्तरजनों को संबल प्रदान करें।

आदिवासी जनों का दुर्भाग्य कि सेमीनार का दिन 14 फरवरी था। सो एक तो बाज़ार के प्रति महती जिम्मेदारी का बोझ अपने नाज़ुक कंधे पे उठाता “राष्ट्रीय” कहा जाने वाला मीडिया और ऊपर से ऐन वेलेन्टाईन डे का “पावन पर्व”! उस दिन कौन-सा अखबार या दृश्य मीडिया इस सेमीनार को कवर करने का “जोखिम” उठाता। जब महानगर के सारे उद्यान नवयुवक-यौवनाओं से गुलजार हो। जब आपको आठ-आठ कॉलम में छापने के लिए उत्तर आधुनिकाओं के अधर-चुंबन का चित्र सहज ही उपलब्ध हो, एक दूसरे से लिपट-चिपट रहे नग्नप्राय युगलों की “स्टोरी” जब घंटों परोसकर संपूर्ण देश को “जागरूक” करने का मसाला आपके पास उपलब्ध हो, तो कौन फिकर करता है देश के किसी कोने से उठ रहे ऐसे आवाज की? कौन कंपनी विज्ञापन देगी ऐसे किसी दीन-हीन से दिख रहे “काले-कलूटे” लोगों को कवर करने के लिए? ऐसे किसी खबरों से थोड़े किसी चैनल की रेटिंग बढऩी है?

उस “गोरे” समाचार माध्यम से किसी सामाजिक सरोकारों की उम्मीद पूरी नहीं होने पर हम अपनी भड़ास निकाल रहे हो ऐसी बात नहीं है। निश्चित ही बस्तर जैसे दूर-दराज़ के अंचल के वनवासीगण ऐसे किसी मीडिया के “कारण” बल्कि उसके “बावजूद” ज़िंदा हैं और रहेंगे। खून तो तब खौल उठता है जब वो पतित मीडिया, प्रदेश को बदनाम करने के लिए अपनी सारी ऊर्जा लगा देता है। तमाम तरह के झूठ की खेती कर जब कलम के ये व्यापारीगण जब अंचल पर डाका भी डालना शुरू करते हैं, नक्सलियों को प्रश्रय देने में प्रदेशभक्त मीडिया का इस्तेमाल ना कर पाने पर जब बौखला कर अनाप-शनाप लिखने लगते हैं, या मासूम आदिवासीयों की हत्या पर उफ़ तक ना करने वाले ये वहशी एक नक्सली की कानूनी गिरफ्तारी पर भी आसमान सर पर उठा लेते हैं। गांधीवाद को बेच खाने वाले हिमांशु जैसे लोगों का समर्थन करना शुरू करते हैं।

खैर! दिनभर के चिंतन एवं प्रस्तुतिकरण के बावजूद उस सेमीनार में जिस प्रश्न को अनुत्तरित रह जाना था, वह यह कि नक्सली आखिर क्यों मार रहे हैं इन मासूमों को! एर्राबोर के शिविर में एक साल की “ज्योति कुट्टयम” को मारकर वह क्या साबित करना चाहते हैं? दिनभर की हाड़तोड़ मेहनत करने के बाद भी मुश्किल से दो मुट्ठी भात का इंतजाम कर सकने वाले उन निरीह लोगों को मारकर किस ‘”सर्वहारा” राज्य की स्थापना करना चाहते हैं ये कुकर्मी। तथाकथित वर्ग संघर्ष की कौन सी स्थिति उपलब्ध है वहां पर? शोषण के विरूद्ध आवाज उठाने का दम भरने वाले इन नक्सली विरप्पनों का क्या शोषित कर लिया इन भोल-भाले आदिवासियों ने? उनके ‘”बुर्जुआ” की परिभाषा में कहां टिकते हैं ये मेहनतकश! क्या कोई सरफिरा पागल भी उन वनवासीजनों को ”शोषक” कह सकता है?

यदि वैश्विक स्तर पर इनके विचारों की बात करे, तो आप वितृष्णा से भर जायेंगे। पता नहीं ”द्वंदात्मक भौतिकवाद” किस चिडिय़ा का नाम रखा है इनके आकाओं ने, परंतु इनके नक्सलियों, अमानवाधिकारियों एवं एक्टिविस्ट मीडिया के “दोगले बाजारवाद” को समझने की जरूरत है। यही तथाकथित माओवादी, छत्तीसगढ़ में लोकतंत्र के खिलाफ लडऩे की बात करते हैं, वहीं नेपाल में उन्होंने “लोकतंत्र” के लिए हिंसक आंदोलनों का दौर चला रखा था, सत्ता की संभावना दिखते ही इनकी लार टपकने लगी और वहां के कांग्रेस के साथ मिलकर सत्ता की बंदरबांट में लग गये। जिस पूंजीवाद के विरूद्ध वामपंथी विचारों का जन्म हुआ था, उन्हीं पूंजिवादियों के लिए तो इनकी सरकार बंगाल में लाल कालीन बिछाये हुए थी! सिंगूर में उपजाऊ जमीन अधिग्रहित कर इन्होंने तो अपने दो मुंहापन का परिचय दे ही दिया। जिस धर्म को ये अफीम मानते हैं, उसी धर्म के नाम पर दुनिया में हिंसा का नग्न तांडव करने वाले अफजलवादियों के लिए पैरवी करते उन्हें अहिंसा की याद आ जाती है और तब उस अफीम रूपी थूक भी चाटना इन्हें प्यारा लगने लगता है। इतने विश्लेषण के बाद जाकर थोड़ी सी बात समझ में आती है कि इनका मूलमंत्र है देशद्रोह और सत्ता के लिए संघर्ष। इनके देशद्रोहिता के संदर्भों से तो खैर इतिहास भरा पड़ा है। यह स्थापित तथ्य है कि केरल के वामपंथी मंत्रियों को आदेश के लिए मास्को का दौड़ लगाना पड़ता था या चीनी आक्रमण के बाद भी इन्हें “माओ” को अपना चेयरमैन बताने में कोई गुरेज नही था। उस माओ को जो विश्व इतिहास का सबसे बड़ा तानाशाह था जिसने शांति काल में 7 करोड़ लोगों की क्रांति विरोधी होने के नाम पर हत्या करवायी। कुख्यात तानाशाह हिटलर, मुसोलिनी तो माओ के आगे कुछ नहीं थे।

वैसे आपको माओवादी, नक्सली, वामपंथी, मार्क्सवादी आदि सभी मुखौटे चाहे अलग-अलग दिखें, लेकिन थोड़ा सा विचार करने पर आपको उन सभी के लक्ष्य में साम्यता दिखेगी। आपको महसूस होगा कि ये सब अलग-अलग गिरोह अंतत: एक ही लक्ष्य के लिए खून की नदियां बहाने तैयार हैं और वह है किसी भी तरह से सत्ता पर कब्जा जो बकौल इनके आका बन्दूक की नली से निकलती है। इस गिरोह में आपको (अ)मानवाधिकारवादी, अफजलवादी, अभिव्यक्ति को उच्छृंखलता प्रदान करने वाले मीडियावादी और लोकतंत्र में आस्था का स्वांग रचने को मजबूर मार्क्सवादी सभी मिल जायेंगे। आपको ताज्जुब होगा, अपने जन-जंगल-जमीन, अपनी संस्कृति को खोने के बाद जान बचाने को शिविर में रहने को मजबूर गरीब आदिवासी की आवाज ये भले न छापे, लेकिन नक्सलियों के प्रेस विज्ञप्ति को संपादकीय आलेख बनाकर छापने वाले जनद्रोही आपको गली-कूचे में मिल जायेंगे। इन मजलूमों की हत्या भले ही मानवाधिकार का हनन न होता हो लेकिन एक नक्सली के वध पर हायतौबा मचाने वाले स्वयंभू संगठन आपको कुकुरमुत्ते की तरह उगे मिलेंगे। वैश्विक स्तर पर फैले इन गुंडों के गिरोह का सफाया लोकतंत्र के लिए अत्यावश्यक है।

यदि पुन: छत्तीसगढ़ की बात करें, तो इससे कोई इनकार नहीं करेगा कि बिचौलियों, व्यवसायियों ने छत्तीसगढ़ का जमकर शोषण किया है। दुनिया के सबसे अमीर धरती में से एक इस अंचल के संसाधनों से निश्चय ही भोपाल और दिल्ली गुलजार होता रहा है, और यहां के माटीपुत्र अन्न वस्त्र को मुंह ताकते रहे हैं। लेकिन आज स्थितियां बदली है, समस्याओं को दूर करने की दिशा में सार्थक प्रयास भी किये जा रहे हैं। अलग राज्य की स्थापना के बाद यहां के संसाधनों के उचित उपयोग का मार्ग भी प्रशस्त हुआ है। बावजूद इसके विसंगतियां कई हो सकती हैं। हो सकता है आपके पास कुछ अच्छे विचार हों जिसे लागू कर प्रदेश के विकास का मार्ग प्रशस्त किया जा सकता है। लेकिन विश्व के इस महान लोकतंत्र में आपके बुलेट की आवाज निश्चय ही आपका सर्वनाश करके ही दम लेगी। आखिर जिस आदिवासीजनों के नाम पर आपने अपनी दुकान खोल रखी है उन्हें ही मारकर आप किस शांति का सूत्रपात करने का प्रयास कर रहे हैं? अंचल की जिस थाली में आप खा रहे हैं, उनमें ही छेदकर तो आप जानवर कहलाने लायक भी नहीं बचे हैं। शांतिप्रिय वनवासीजनों के द्वारा नक्सलियों के विरुद्ध आरम्भ आन्दोलन का संदेश यही है कि सत्ता किसी भी वंश या विचार की बपौती नहीं है। यह आंदोलन आपके समक्ष यही चुनौती प्रस्तुत करता है कि यदि वास्तव में दम है आपमें, प्रासंगिकता है आपके विचारों की, वास्तव में जनसमर्थन है आपके साथ, तो बुलेट नहीं बैलेट का सहारा लेकर अपनी सत्ता स्थापित करें।

समाज की मुख्य धारा में शामिल हों। लाख बुराईयों के बावजूद भारत के लोकतंत्र का डंका सारी दुनिया में बजता है, यहां की चुनाव प्रणाली विकसित देशों को भी प्रेरणा एवं दिशा प्रदान कर रही है। जिस कथित जनसमर्थन की बात आप करते हैं उसे साबित करने का लोकतंत्र ही एकमात्र जरिया है।

भूमिपुत्रों का नक्सलियों के विरुद्ध शांतिपूर्ण शंखनाद, यह आंदोलन राह से भटके लोगों को जहां मुख्यधारा में शामिल होने का अंतिम अवसर प्रदान करता है, वहीं भोले-भाले लोगों को बरगला कर अपना उल्लू सीधा करने वाले “विरप्पनों” को यह चेतावनी भी देता है कि यथाशीघ्र अपनी आतंक की दुकान समेट लें अन्यथा उन्हें अपनी बर्बादी पर दो बूँद आंसू भी नसीब नहीं होंगे।

उपरोक्त का आशय यह है कि बौखलाये हुए इन अपराधियों के विरूद्ध आर-पार की लड़ाई लडऩे का समय आ गया है। इन नक्सलियों के विरूद्ध समाज के सभी तबकों को एकजुट होना होगा। समाज के तथाकथित प्रगतिशील जनवादी पत्रकारों, बुद्धिजीवियों से तो कोई अपेक्षा नहीं ही की जा सकती, लेकिन नक्सली आतंक के विरूद्ध तटस्थ रुख अपनाने वाले समाज के सभी पक्षों से जरूर यह आशा है कि स्वयं में मगन न रहें, अपनी चुप्पी और तटस्थता छोड़ें। मार्टिन लूथर किंग ने कहा था दुनिया के किसी भी कोने में हो रहा अन्याय सारी मानवता के लिए खतरा है। भोले-भाले सीधे-सच्चे वनवासियों के अस्तित्व के इस धर्मयुद्ध में तटस्थ देशवासियों को समझना होगा….समर शेष है नहीं पाप का भागी केवल ब्याध। जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध॥

अपना दुखड़ा रोने के बजाए अपनी बात में असर पैदा करें राज्यमंत्रीगण

हाल ही में प्रधानमंत्री के साथ एक भेंट में मंत्रिपरिषद् के कुछ राज्य मंत्रियों ने शिकायत की कि तवज्जो नहीं मिलती है और केबिनेट मंत्री भाव नहीं देते हैं। इन राज्यमंत्रियों का का दर्द उभर कर सामने आया। उनका कहना था कि वह लगभग बेरोजगार हैं और उनके पास फाइलें ही नहीं आती हैं। यह एक संगीन मामला है और दर्शाता है कि जब राज्यमंत्रियों का यह हाल है तब एक आम सांसद की क्या स्थिति होगी? जाहिर है इस अप्रिय स्थिति के लिए स्वयं प्रधानमंत्री और उनके केबिनेट सहयोगी भी दोषी हैं। लेकिन यह तस्वीर का एकपक्षीय पहलू ही है और उस चश्‍मे से देखा गया अर्धसत्य है जिस पर राज्यमंत्रियों के शीशे चढ़े हुए हैं। तस्वीर का दूसरा पहलू भी है और यह पहलू इन राज्यमंत्रियों की दलील को अगर झुठलाता नहीं है तो कम से कम इस दलील पर सवाल तो उठाता ही है।

पहला सवाल यही है कि क्या केवल फाइल निपटाने से ही मंत्री जी का काम हो जाता है? फाइलें निपटाने के अलावा मंत्रियों के पास और कोई काम नहीं होता? फिर तो बहुत से ऐसे केबिनेट मंत्री भी हैं जिनके पास फाइलें कम ही होती हैं। क्या इसका तात्पर्य यह है कि उन मंत्रियों के पास काम नहीं है? जबकि कई मंत्री ऐसे भी हैं जिनके पास फाइलें तो कम ही होती हैं लेकिन महीनों वह फाइलें देख ही नहीं पाते। आखिर काम होने का पैमाना क्या है?

अभी ज्यादा समय नहीं बीता होगा जब गृह मंत्री पी चिदंबरम ने कहा था कि उनके ऊपर काम का इतना बोझ है कि उनके विभाग को दो हिस्सों में बांट देना चाहिए। ऐसे में क्या देश का आम आदमी यह जानता है कि चिदंबरम के अलावा गृह विभाग में राज्यमंत्री भी होते हैं? फिर इस स्थिति के लिए कौन दोषी है? क्या चिदंबरम भी अपने राज्यमंत्रियों को काम नहीं देते हैं। इसी तरह बहुत से सांसद ऐसे हैं जो मंत्री तो नहीं हैं लेकिन उनकी बात गम्भीरता से सुनी जाती है और सरकार तथा नौकरशाही को उनकी बात पर गौर करने की मजबूरी होती है। यह उन सांसदों की योग्यता की वजह से है। सरकार की बात छोड़ भी दीजिए तो विपक्ष में ही कई ऐसे सांसद ऐसे हैं जिनकी अपनी एक पहचान और आवाज है जबकि वह कभी मंत्री नहीं रहे। नीलोत्पल बसु, वृन्दा कारत, गुरदासदास गुप्ता, कलराज मिश्रा, दिग्विजय सिंह ऐसे ही सांसद हैं। स्वयं कांग्रेस में मनीष तिवारी, मीनाक्षी नटराजन और अशोक तंवर कुछ ऐसे नाम हैं जिनकी अपनी एक पहचान है और उनके पास काम की भी कोई कमी नहीं है क्योंकि वह अपने क्षेत्र में काम करते हैं और जनता के बीच रहते हैं। इसी तरह राज्यमंत्रियों में सीपी जोशी, जितिन प्रसाद को काम न होने के लिए रोना नहीं पड़ता।

इस बात को दो तीन उदाहरणों से समझा जा सकता है। मरहूम राजेश पायलट आन्तरिक सुरक्षा राज्य मंत्री थे। लेकिन शायद अपने समकालीन केबिनेट मंत्रियों से ज्यादा व्यस्त भी थे और उनकी देश में एक वॉइस भी थी। पिछली यूपीए-वन सरकार में भी श्रीप्रकाश जायसवाल भी राज्यमंत्री ही थे लेकिन उन्होंने अपनी पहचान बनाई। जबकि लालकृष्‍ण अडवाणी के साथ आईडी स्वामी राज्यमंत्री थे उन्होंने भी अपनी पहचान बनाई। इन सभी के पास काम होने में उनके केबिनेट मंत्रियों का कोई रोल नहीं था।

अब अगर इन राज्यमंत्रियों का ‘काम’ से तात्पर्य ठेके, परमिट, कोटा लाइसेंस देने से है तब तो उनका दुखड़ा जायज हो सकता है कि केबिनेट मंत्री सारी मलाई खुद मार लेते हैं और उन्हें (राज्यमंत्रियों) कोई नहीं पूछता। तब तो वाकई प्रधानमंत्री को मलाई का सही अनुपात में बंटवारा करने की व्यवस्था करनी चाहिए।

इन राज्यमंत्रियों के एक दर्द से बिना किसी किंतु परंतु के सहमत हुआ जा सकता है कि राज्यमंत्रियों की बात को अधिकारी नहीं सुनते। लेकिन यह समस्या भी केवल राज्यमंत्रियों के साथ नहीं है। बल्कि इस मुल्क में अफसरशाही बहुत ताकतवर और बेलगाम है। अफसर केवल उस केबिनेट मंत्री की ही बात सुनते हैं जो या तो स्वयं तेज हो और सौ फीसदी राजनीतिज्ञ हो या फिर प्रधानमंत्री का नजदीकी हो और उनका कुछ बिगाड़ने की हैसियत रखता हो। वरना मंत्री जी खुद अपनी फाइलें ढूंढते रह जाते हैं और फाइलें सरकारी चाल से ही चलती हैं। इस स्थिति के लिए भी केवल अधिकारियों को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। कारण बहुत साफ है। जब संसद में तीन सौ करोड़पति सांसद पहुंच गए तो जाहिर है कि यह तीन सौ सांसद व्यापारी पहले हैं और राजनीति इनके लिए दोयम दर्जे का काम है। ऐसे में क्या उम्मीद की जा सकती है कि अधिकारी इन सांसदों और ऐसे मंत्रियों की बात सुनेंगे? इसलिए बेहतर होगा कि यह राज्यमंत्रीगण अपना दुखड़ा रोने के बजाए अपनी बात में असर पैदा करें और यह असर तभी पैदा होगा जब वह सौ फीसदी राजनीतिज्ञ बनेंगे वर्ना चाहे राज्यमंत्री बन जाएं या केबिनेट यह दुख दूर नहीं होगा।