शाकवने रम्यं चन्दने रक्तचंदनै:।
हरीतकी कणिकार धात्री वन विभूषितम॥
द्राक्शावाल्ली नागवल्ली कणावल्ली शतावृतम।
मल्लिका यूथिका कुंदमदयन्ति सुगंधितम॥
(स्रोत : काशी खण्ड अध्याय 1, श्लोक 31-32)
विश्व भर में केवल भूख से मरनेवालों की संख्या सन् 2000 में 8 करोड़ ही थी। 2009 यानी गत वर्ष में यह 10 करोड़ हुई है। (स्रोत : FAO) गरीबी के साथ इसके मूल कारण अन्न का अभाव, अन्न में भी पर्याप्त जीवन त्तवों का अभाव और अनारोग्य हैं। अब कृषिबलों की स्थिति देखते हैं। किसानों की आत्महत्याएँ हम सबके लिए केवल दु:ख का नहीं, वरन् क्रोध, उद्वेग और अब तुरंत कृतिशील होने का विषय है। केवल संख्या की भयावहता के कारण नहीं; चूंकि आत्महत्या करने वाला हर एक किसान हिन्दू है! इसलिए भी हमें तुरंत सतर्क होकर इस विषय का अध्ययन करने की आवश्यकता है।
भारत में सबसे बड़े जो 5 राज्य हैं, उनमें किसानों की आत्महत्याएं सबसे अधिक हैं। भारत की हर 12 आत्महत्याओं में 1 कृषिबल की रही है- वर्ष 1997-2002 में। आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के 5 राज्यों को मिलाकर 1997 में 7236 किसानों ने आत्महत्या की। 1998 में 8383 किसान, 1999 में 9430 किसान, 2000 में 9837 किसान, 2001 में 10374 किसान, 2002 में 10509 किसान स्वयं की जिन्दगी समाप्त कर मर गए। ये आंकड़े केवल 5 राज्यों के हैं।
भारत में 1997 में 13622, 1998 में 16015, 1999 में 16082, 2000 में 16608, 2001 में 16415 और सन् 2002 में 17971 किसानों ने आत्महत्याएं की। दिखता यह है कि 5 राज्यों के किसानों की आत्महत्याओं का प्रमाण सबसे अधिक है। 2002 में जो प्रमाण भारत की कुल आत्महत्याओं में 59.5 प्रतिशत था, वह 2008 में 66.7 प्रतिशत जा पहुचा है। भारत में किसानों की कुल आत्महत्याएं 2008 में 1,02,424 हुईं, उनमें केवल 5 राज्यों में ही 67054 थीं। (स्रोत : NCRB Reports) केवल 2003 से 2008 में के ये आंकड़े हैं।
अब प्रश्न यह है कि, क्या हम केवल भूख से मरनेवाले आम आदमी, उसके परिवार और बच्चों के आंकड़े देते रहेंगे? नहीं! हर हिन्दू का यह उत्तरदायित्व बनता है कि इस भयंकर समस्या का विषय ठीक से समझ लें, उस पर तुरंत सोचे और भारत के गरीब और हिन्दू किसानों को बचाना यानि भारत का मूलाधार बचाना, यह समझकर कृतिशील हो।
भारत आरंभ से ही कृषि प्रधान देश है। हमारी नदियां जो जलस्रोत से भरी-पूरी होती थीं, उनके किनारे-किनारे हमारी कृषि, हमारी संस्कृति और सभ्यता फलती-फूलती गयी। जब विश्व में वनों में रहकर कच्चा मांस और कच्ची मूलियां खानेवाले विदेशी थे, तब और उसके भी पूर्व से भारत ने चक्र से लेकर अग्नि तक और पानी के विविध उपयोगों से लेकर समृद्ध कृषितंत्र तक शास्त्र ढूंढ़ निकाले थे। इन सबके कारण हिन्दू सुख और आनंद से रहते थे। फिर ऐसा क्या हुआ कि हमारा मूलाधार जो हमारी कृषि, उनकी विविध उपज, उनके विविध पशु, हमारा किसान सबों पर ऐसी बला आ धमकी कि उनका जीवन दूभर हो जाए?
अधिक दूर के इतिहास में न जाते हुए, हम कुछ ऐसे पहलू समझें जो आज समझना उचित है, आवश्यक है-
1. हरितक्रान्ति, श्वेतक्रान्ति जैसी कल्पनाओं में बहककर भारत में ‘अति-कृषि’ हुई। इसके मायने क्या? अधिक कृषि यानि ‘अति-कृषि’ नहीं। कृषि विज्ञान भी कहता है कि किसी भी खेत में, मिट्टी को थोड़ा आराम दिए बिना, वहीं धान्य/फल/फूल की बार-बार पैदा की जाए तो वह मिट्टी कुछ समय में अपनी संधारणा-क्षमता खो बैठती है। वही हुआ। जब हमारे अनपढ़ किसान भी समझते थे कि एक बार गेहूँ उगाया तो बीच में रूकना चाहिए, बांधों और जमीन पर सब्जियां उगाना चाहिए, जमीन को थोड़ा आराम देना चाहिए, हमारी राजनीति यह जानकर भी कृषि को रेस के घोड़ों जैसी दौड़ाती रही।
परिणाम? मृद्संधारण शून्य होता गया, उपजाऊ जमीन रेगिस्तान में परिवर्तित हो गई। ‘अति-कृषि’ ने भारत की 40 प्रतिशत जमीन खा डाली। हरितक्रान्ति का अतिशयीकरण भारत को महंगा पड़ा। श्वेतक्रान्ति में गायों को अधिक दुग्धोत्पादक बनाने के चक्कर में क्या-क्या रसायनों के इंजेक्शन्स दिए गए, यह अलग विषय है- उस पर हम किसी और समय अवश्य चर्चा करेंगे। हरितक्रान्ति, श्वेतक्रान्ति के झमेले में लोभी राजनीतिज्ञों ने किसानों को सपने दिखाकर, वोट बैंक तैयार की और जो हमारा भारत ‘अश्वक्रान्ति, रथक्रान्ति, विष्णुक्रान्ति वसुन्धरा’ कहलाता था, वह बंजर होने लगा।
2. अब अगर एक ही जमीन के टुकड़े में फिर वह बड़ा हो या छोटा जमीन की मर्यादा से अधिक उपज करनी हो तो जमीन में ठूंसने के लिए विदेश से अनेकानेक रसायन मंगवाए गए। रासायनिक खाद ने इस देश की धरतीमाता को जितना पीड़ित किया है, उतना उत्पीड़न किसी भले ने अपनी जन्मदात्री, अन्नदायी मां का कभी नहीं किया होगा!
हमारा वैद्यकशास्त्र कहता है कि शरीर में यूरिया की मात्रा प्रमाण से अधिक बढ़ती है तो उससे अनावश्यक जल के साथ विषमय रसायन शरीर में बढ़ते हैं। इससे किडनी खराब होती है, रक्तप्रवाह असंतुलित होता है और हृदय क्रिया के लिए तथा मस्तिष्क की अन्य क्रियाओं के लिए आवश्यक प्राणवायु (ऑक्सीजन) की मात्रा शरीर के कम होती जाती है। परिणाम? व्यक्ति की मृत्यु! वहीं इन रासायनिक खादों ने हमारी धरती माता के साथ किया। यूरिया, अमोनिया, फॉस्फोरस, फॉस्फेट…कई रसायन हमारी समृद्ध मृत्तिका में, उसमें से हमारे शुद्ध जल स्रोतों में ठूंस दिए गए। किसी भी स्टीरिऑरड से शुरु में जैसे स्नायू अच्छे दिखते हैं, वैसे ही इन रसायनों से शुरु में अनाज, फल, फूल बड़े दिखें, अधिक उगें। बाद में शुरु हुआ संपूर्ण मृत्तिका मरने का क्रम। छोटे और मध्यम किसान इस सिलसिले में बर्बाद हो गए। महंगे रसायनों के कर्जे, जमीन मृत, झूठे सपने दिखानेवाली सरकारों के कारण लिए हुए अन्य कर्जे, बिचौलिए इन सबमें हमारा किसान मारा गया। हमारी धरती माता मारी गयी, जिसके मूलाधार उसकी समृद्ध मृत्तिका और शुद्ध जलस्रोत थे।
3. अब उपज तो लहलहाई थी शुरु में। उसको हमारे नैसर्गिक खादों से बड़ा न कर, रसायनों से बड़ा किया गया था। उपज नाजुक हो गयी। हमारा परंपरागत कृषिधन- गोबर, गोमूत्र का खाद उपयोग करने वाले कुछ राज्यों के किसानों की जमीनें बची हैं। लेकिन रसायनों से बढ़ाए धान्य कीड़े न खाएं इसलिए फिर से और रसायनों के फव्वारे, गोलियां उन पर, उनके मूल में डाली गईं। परिणाम? घातक कीड़े, जंतु शुरु में मरे, फिर इम्यून होकर ऐसे लौटे कि 2 वर्ष में लिए हुए अधिक उत्पादों का कमाया धन एक-एक कीड़ा मारने में जाना लगा। अति-कृषि की यह एक और बलि। मृत्तिका, जल के साथ-साथ धान्य, फल और फूल इन सब में रसायन भर गए। उन्हें खाकर हमारे बच्चे जवानी में प्रमेह, अंधत्व, नैराश्य आदि इनके शिकार होने लगे। जबकि इन रसायनों का उत्पादन करने वाली विदेशी कंपनियां और उन्हें भारत में लाने वाले राजकीय नेता, अधिकारी समृद्ध होते गए।
4. अब इतनी सारी उपज इतने कम समय में एक ही खेती से लेना हो तो जल? भारत की 80 प्रतिशत कृषि पर्जन्य जल पर चलती थी। इसका अर्थ यह नहीं था कि भारत में 80 प्रतिशत समय बारिश गिरती रहती थी। हमारी नदियां, उनके अनेकानेक कोनों तक पहुंचे, जलस्रोत, झरने, जीवंत झरनों से बने तालाब और कूप, बाद में अनेक राजाओं द्वारा बनाए हुए कुण्ड इन सबसे भारत में नैसर्गिक पद्धति से पर्जन्यजल संधारण तथा समृद्धि (Rainwater Conservation & Harvesting) होती थी। नदियों में खनन, गंदे नाले, रसायन कंपनियों के विष भरे उत्सर्जन इन सबसे हमारी नदियां सिकुड़ती गयीं।
जंगलों, पर्वतों को काट-काट कर कारखाने, घर, मॉल्स बनाने में वर्षा के बादल कम होते गए, कूप, तालाब, कुण्ड पाट दिए गए और किसानों को मजबूर किया गया कि वे बोअर बेल बनाए, उसके लिए कर्जें लें। जमीन से धरती माता के सहेजे हुए स्रोतों से क्रूर रीति से महाभयंकर प्रमाण में इतना जल खींचा गया कि, अब कई बार धरती ऐसी कांप उठती है कि कच्छ से लेकर हैती तक जमीन हिल जाती है। इतना कर के भी किसान गरीब होता गया, बिचौलिए अमीर ! नेता अमीर और विदेशी कंपनियां भी अमीर।
ये केवल कुछ कारण हैं। कृषि विशेषज्ञ कई ऐसे कारण जानते हैं। अब UNO ने यह वर्ष (Bio-Diversity Year) जैविक विविधता वर्ष घोषित किया है, जो हमारे किसान युगों से करते थे। अलग-अलग प्रकार की उपज लेकर जमीन, मृत्तिका को आराम और जीवन सत्तव देते थे, सेंद्रिय खेती से मृत्तिका की उपजाऊ क्रिया टिकाते भी थे, बढ़ाते भी थे, इनसे पानी कम लगता था क्योंकि, गोमय के खाद पानी संधारित करके रखते थे, गोमूत्र का छिड़काव करके कीड़ी भगायी जाती थी। धान्य, फल, फूल अधिक मात्रा में और शुद्ध आते थे। जो हम युगों से करते आए, वही सब आज, फिरंग विद्यापीठों के वैज्ञानिक कठिन शब्दों में, रंग-बिरंगे प्रेजेन्टेशन में बताने लगे हैं, वैश्विक उष्मीकरण, Climate Change जैसी बातें बच्चे भी बोल रहे हैं।
अब समय रहते हम सब हिन्दू और हिन्दू संगठन यदि एकत्रित होकर अपनी हिन्दू कृषि-पद्धति पर नहीं जोर देंगे तो भारत में अन्न और जल की ऐसी कमी आयेगी कि प्रलय भी उनसे डर जाए !
विश्व मंगल गौ ग्राम यात्रा से आरंभ हुआ ही है, किन्तु यह एक सर्वंकष हिन्दू कृषि-शास्त्र है, जो आज भारत को ही नहीं, संपूर्ण विश्व को बचा सकता है। हम कुछ हिन्दू बंधुओं ने मिलकर सोच-विचार कर इनका त्वरित अध्ययन और कृतिशीलता के लिए ‘किसान काउन्सिल प्रकल्प’ आरंभ भी किया है। कई अन्य हिन्दू बन्धु, वैज्ञानिक ऐसे अन्य कार्यों में लगे हैं, कई समझदार हिन्दू कृषि बचाने के लिए सहयोग देना चाहते हैं, चलें हम सब मिलकर हिन्दू किसान को बचाएं। यूरिया की कीमतें 10 प्रतिशत बढ़ीं तो हमारा किसान हताश न हो, ऐसी स्थितियां निर्माण करें। क्यों चाहिए यूरिया या अन्य रसायन, जब हमारी परम्परा ने हमें इतने समृद्ध नैसर्गिक खाद, कीटनाशक, मृद्संधारक दिए हैं? आइए! सब मिलकर कहें और करें- भारतीय कृषि-पद्धति, भारतीय सुख-समृद्धि का मूलाधार।
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