पिछडों, दलितों, अल्पसंख्यकों की पार्टी को ग्लैमराइज कर पूँजीपतियों के संपर्क में लाने वाले अमर सिंह की सपा से विदाई भले ही हो चुकी हो लेकिन सपा को अमर सिंह के प्रभाव से मुक्त होने में अभी थोड़ा वक्त लगेगा। जनसमर्थन के नजरिए से आधारहीन दिखने वाले अमर सिंह ने सपा में रहते हुए जबर्दस्त कारनामे किए जिससे पार्टी के अंदर उनका कद लगातार बढ़ता गया और जमीन से जुडे कई दिग्गज समाजवादी नेता उनके समक्ष बौने पड़ते गए। पार्टी अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने भी अमर सिंह को कमाउ पूत मान कर उन्हें हाथों-हाथ लिया और उनकी गुस्ताखियों को नजरअंदाज करते रहे। कदाचित मुलायम सिंह आखिर तक अमर सिंह के मोह में बंधे रहे तभी तो उनका इस्तीफा मंजूर करने में लगभग डेढ़ महीने का समय लिया। इस दौरान अमर सिंह लगातार आक्रामक तेवर दिखाते रहे और उन्होंने मुलायम के परिवार तक को नहीं बख्सा। दूसरी तरफ मुलायम सिंह संयम से काम लेते रहे। सपा की ओर से जब अमर सिंह से राज्य सभा की सदस्यता छोड़ने को कहा गया तो अमर सिंह ने सपा को चुनौती देते हुए कहा कि पार्टी कन्नौज या बदायूँ की सीट खाली करे तो वे चुनाव लड़ कर अपना दम-खम दिखा सकते हैं। दिलचस्प बात यह है कि कन्नौज से मुलायम सिंह के पुत्र अखिलेश सिंह तथा बदायूं से उनके भतीजे धर्मेन्द्र सांसद हैं। कल्याण सिंह के मुद्दे पर भी अमर सिंह ने मुलायम को आड़े हाथों लिया और कल्याण सिंह को पार्टी में लाने और फिर बाहर करने के लिए अप्रत्यक्ष रूप से मुलायम सिंह को जिम्मेदार ठहराया। दूसरी तरफ मुलायम सिंह ने एक बार भी अमर सिंह के खिलाफ तल्खबयानी नहीं की और इस मसले को पार्टी का अंदरूनी मसला बताते रहे। मुलायम सिंह के नरम रुख को लेकर राजनीतिक हलकों में कई तरह की अटकलबाजियाँ होती रही। मुलायम सिंह ने अमर का इस्तीफा मंजूर कर अटकलों पर विराम जरूर लगा दिया लेकिन अमर सिंह के जाने से समाजवादी पार्टी किस रूप में प्रभावित होगी इसे लेकर एक नई बहस शुरू हो गई।
वैसे देखा जाए तो समाजवादी पार्टी के उत्थान में अमर सिंह का कोई उल्लेखनीय योगदान नहीं रहा। अमर सिंह के सपा में आगमन से पूर्व ही पार्टी उत्तर प्रदेश में न सिर्फ अपनी जडें बेहद मजबूती से जमा चुकी थी बल्कि दो बार यूपी की सत्ता हासिल करने में भी कामयाब रही थी। 1989 और 1993 में मुलायम सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बन चुके थे। इस कामयाबी में उनकी अपनी मेहनत और समाजवादी आंदोलन से जुड़े उनके सहयोगी नेताओं का महत्वपूर्ण योगदान रहा था। यूपी में यादवों के साथ पिछड़ों और अल्पसंख्यकों को मिला कर मुलायम सिंह ने एक मजबूत वोट बैंक तैयार किया था। इसी के परिणामस्वरूप वर्ष 1996 में केंद्र में संयुक्त मोर्चा सरकार के गठन में मुलायम सिंह यादव ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और रक्षा मंत्री बनाए गए। लेकिन संयुक्त मोर्चा सरकार के पतन के बाद अचानक अमर सिंह का सपा में उद्भव हुआ और वे पार्टी के लिए बेहद महत्वपूर्ण हो गए। पार्टी में अमर सिंह के बढ़ते प्रभाव से जमीन से जुड़े कुछ सपा नेताओं का क्षुब्ध होना स्वाभाविक था। हालाँकि जनेश्वर मिश्र, बेनी प्रसाद वर्मा और मोहन सिंह जैसे नेता चाहते हुए भी अमर सिंह की राह में रोड़े नहीं अटका सके और अमर सिंह का काफिला आगे बढ़ता रहा। अमर सिंह ने मुलायम के दलितों और पिछड़ों का मसीहा बनने की रणनीति के उलट पार्टी में पूँजीवादी संस्कृति को जोर-शोर से बढ़ावा दिया और फिल्मी सितारों व उद्योगपतियों को पार्टी से जोड़ कर वाहवाही लूटते रहे। उन्होंने जहाँ पूंजीपतियों को सपा से जोड़ कर पार्टी को नई ताकत दी वहीं उनके मनमौजी रवैये से पार्टी को नुकसान भी उठाना पड़ा और बेनी प्रसाद वर्मा, आजम खान और राज बब्बर जैसे कई नेता सपा से अलग हो गए। इन नेताओं के स्थान पर जिन लोगों को पार्टी से जोड़ा गया उनका राजनीति से कोई वास्ता नहीं था। परिणामस्वरूप समाजवादी पार्टी कुछ हद तक अपनी दिशा से अलग होकर गरीबों-पिछड़ों के नाम पर राजनीति करने के बजाए अस्थाई रूप से ग्लैमर की चकाचौंध में उलझ कर रह गई। विगत लोकसभा चुनाव के दौरान अमर सिंह के ग्लैमर-प्रेम की वजह से ही आजम खान सपा छोड़ कर चले गए थे। जाहिर है, अमर सिंह ने पार्टी में अपनी एक अलग लॉबी बनाने की कोशिश की थी लेकिन खुद अमर सिंह की तरह पार्टी में उनके समर्थकों के पास भी कोई ठोस जनाधार नहीं होने की वजह से अमर सिंह को कोई खास फायदा नहीं मिला। दूसरी तरफ सपा को कोई बहुत बडा नुकसान होता भी नहीं दिख रहा।
उत्तर प्रदेश की राजनीति में अमर सिंह का प्रभाव सपा और मुलायम सिंह की वजह से था। हालाँकि अमर सिंह ने यूपी के राजपूतों का नेता बनने की जी तोड़ कोशिशें की थी लेकिन उन्हें प्रत्याशित सफलता नहीं मिली। हालाँकि सपा से उनके जाने के बाद मुलायम सिंह ने एक अन्य राजपूत नेता मोहन सिंह को पार्टी में तरजीह देकर संभावित कमी की भरपाई करने का प्रयास किया है। सपा से निकाले जाने के बाद अमर सिंह ने लोकमंच का गठन कर दावा किया है कि उन्हें सपा के 25 विधायकों का समर्थन हासिल है। वैसे, अभी तक उनके समर्थन में सिर्फ चार विधायक खुल कर सामने आए हैं। अमर सिंह के राजनीतिक भविष्य को लेकर भी तरह-तरह की अटकलें लगाई जा रही हैँ। वे अब किधर का रुख करेंगे यह फिलहाल किसी को मालूम नहीं है। वैसे भी अमर सिंह सिद्धांतवादी राजनीति करने के आदी नहीं है। समाजवादी पार्टी में रहते हुए बहुत कुछ हासिल कर चुके अमर सिंह कदाचित अपना अगला शिकार तलाश रहे हैं। यही वजह है कि वे फिल्म अभिनेत्री जया प्रदा व अन्य सहयोगियों को साथ लेकर मीडिया से रूबरू तो हो रहे हैं लेकिन अपनी रणनीति का खुलासा नहीं कर रहे। पूछने पर कहते हैं- ”पर्दे में रहने दो, पर्दा न उठाओ, पर्दा जो उठ गया तो भेद खुल जाएगा। वैसे अमर सिंह का भेद खुलने में अधिक समय नहीं लगेगा क्योंकि वे आदतन ज्यादा समय तक ‘बेकार’ नहीं रह सकते ेइसलिए इस बात की पूरी संभावना है कि वे जल्दी ही अपना अगला ठिकाना ढूंढ लेंगे। मुनमकिन है, कुछ राजनीतिक दल बॉलीवुड और कॉर्पोरेट जगत में अमर सिंह की पहुंच को देखते हुए उनकी तरफ देख रहे हों लेकिन जो उन्हें पनाह देंगे उनके लिए यह खतरा हमेशा बना रहेगा कि कहीं अमर सिंह उनकी राजनीतिक गाडी भी पटरी से न उतार दें। सपा से निकाले जाने के बाद अमर सिंह कह रहे हैं कि पार्टी ने कूड़े की तरह उनका इस्तेमाल किया। लगे हाथ उन्हें यह भी बता देना चाहिए कि उन्होंने सपा और मुलायम सिंह का इस्तेमाल किस रूप में किया। जब वे मुलायम सिंह के सिपहसालार के रूप में काम कर रहे थे तब मुलायम और सपा के प्रति उनकी नि?ा सैलाब की तरह बहा करती थी फिर अचानक उन्हें अहसास हुआ कि पार्टी उनका इस्तेमाल कर रही है और उन्होंने पार्टी छोड़ने का फैसला कर लिया। अमर का यह तर्क किसी के गले नहीं उतर रहा।
दरअसल, अमर सिंह जैसे हवाई राजनीति करने वाले नेता एक ठिकाने पर अधिक समय तक बसेरा नहीं कर सकते। सपा में रहते हुए उन्होंने धुऑंधार पारी खेली और अब रिटायर्ड हर्ट होने का दिखावा कर रहे हैं। दूसरी तरफ अमर सिंह की वजह से सपा के जो कार्यकर्ता उपेक्षित महसूस कर रहे थे वे उनके जाने के बाद एक बार फिर पूरे उत्साह के साथ सक्रिय हो जाएंगे जिसका लाभ पार्टी को जरूर मिलेगा। हालांकि यूपी की जनता पर पहले की तरह पकड़ बनाने के लिए मुलायम सिंह और उनके सहयोगियों को काफी पसीना बहाना पड़ेगा।
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