Sunday, March 14, 2010

शांति का आधार: शिक्षा – डॉ रामजी सिंह

शांति जीवन की आधारभूत अशंका है, लेकिन विडंबना है, वह आदिकाल से इसके लिए अशांति के आयोजन में लगा रहा है। यही कारण है अशांति कभी धर्म के रथ पर आती है तो कभी राजनीति की सखी बनकर प्रस्तुत होती है। यही कारण है कि विश्व मानवता हिंसा से लहूलुहान हो चुकी है और लगभग 20 हजार छोटे-बड़े युद्धों के बाद भी निःशस्त्रीकरण एक दिवास्वप्न हो रहा है और अभी भी परमाणु बम और आतंकवाद के विस्फोटों से हमारी धरती हिल रही है। विश्वशांति के लिए किये जा रहे प्रयास वास्तव में एक आडंबर प्रतीत होता है, या तो शांति का संकल्प एक प्रवंचना है तो क्या मान लिया जाये, जैसे बाघ और सिंह के लिए पशु और मनुष्यों का शिकार उसकी प्रकृति का अनिवार्य अंग है ही निराशावाद भी इसमें कमाल का है। भले डार्विन महोदय ने अस्तित्व के लिए जीवन संघर्ष और उसमें योग्यतम की विजय का सिद्धांत निरूपित किया है लेकिन फिर मानव जैसा सीमित शरीर बल का प्राणी किस प्रकार प्रभुसत्ता का अधिकारी बन गया। यदि हम मानव की विजय यात्रा में शरीर बल के साथ उसके बुद्धिबल के कारण उसकी विजय पताका को मानते हैं तो दूसरा प्रश्न आता है कि मानव समाज में बालक और वृद्ध, अशक्त और अक्षम व्यक्ति भी किस प्रकार सुरक्षित और संरक्षित रहते हैं। इसका अभिप्राय यह है कि शरीर बल और बुद्धिबल के अलावा भी नीतिबल और सामाजिक मर्यादा भी मानव सभ्यता का आधार है। सामाजिक और नैतिक जीवन मानवीय सभ्यता का अभिन्न अंग है जो अनुवांशिकता से कम किंतु वातावरण तथा शिक्षा और संस्कार से अधिक पाता है। मानव सभ्यता के उर्द्धचरण की कुँजी भी शिक्षा में निहित है। इसी कारण वह सभ्यता का सम्राट भी है और अपना भाग्य विधाता भी।
मानव सभ्यता के आदिकाल से सामाजिक सद्भाव और जागतिक शांति के लिए महान संतो ने असंख्य प्रयास किये लेकिन आज तक विश्व शांति मृगतृष्णा ही है। भगवान महावीर हों या बुध्द, जरथुरस्त हों या ईसा मसीह, सबों के अथक प्रयास से भी युध्द की ज्वाला और हिंसा व आतंकवाद की लपटें बुझ नहीं पायी हैं। आधुनिक युग की भुमिका में ही अगर सोचें तो 20 वीं शताब्दी यदि दो विश्वयुद्धों की और नरसंहार की शताब्दी रही तो 21 वीं सदी आतंकवाद और मानव बम की त्रासदी से कलंकित हो गई है। विश्व शांति के लिए बनायी गयी संस्थाएँ मूक और निस्तेज होकर महासंहार की तैयारियाँ और संकीर्ण राष्ट्रवाद और धर्म के नाम पर रक्तरंजित इतिहास को देख रही है। वस्तुतः आधुनिक युग की राजनीति विश्व की अशांति के समाधान का उपाय नहीं बल्कि उसका ही मूल कारण है। विश्व में विषमतामूलक आर्थिक संरचना या शोषण और संग्रह इन सबके मूल में राजनीति का शनिश्चर ही है। यहाँ तक कि पर्यावरण के विनाश और वैश्वीकरण के नाम पर छद्म पूँजीवाद और उससे होने वाले नुकसान का संचालन सूत्र भी राजनीति के हाथों में है। संक्षेप में, सभ्यता का संकट जैसा कि विश्व के 51 नोबल पुरस्कार विजेताओं ने घोषित किया है कि उसके मूल में मूल्यहीन राजनीति का ही हाथ है, इसलिए विश्व की संस्कृति की पुनःरचना के लिए शिक्षा ही अंतिम आशा है। लेकिन त्रासदी यह है कि मूल्यहीन शिक्षा व्यापारवाद की सहचरी हो गयी है और वह सत्ता एवं संपत्ति के लिए दासी बनकर निस्तेज और निःवीर्य बन गयी। उसमें शांतिमय समाज निर्माण के लिए तत्व तो नहीं ही है, उसमें न तो जीवन है और न ही जीविका की सर्वांगीण गारंटी ही है।
इसलिए लोकतंत्र में धीरे-धीरे नागरिक शक्ति के बदले पुलिस और सैनिक शक्ति का अनुप्रवेश हो रहा है। देश की सरहद पर सुरक्षा के लिए बेतहाशा खर्च पर भारी भरकम सैनिक व्यवस्था की जरूरत तो रहती है और अब तो देश में आंतरिक शांति व्यवस्था के लिए काफी मात्रा में अर्धसैनिक बल पुलिस की संख्या बढ़ती जा रही है जिससे 20 से 25 हजार करोड़ रुपए खर्च होता है। इस आर्थिक बोझ से चिंता है लोकतंत्र पर तानाशाही का खतरा। जकर्ता से लेकर काहिरा तक एवं अफ्रिका के अन्य देशों में धीरे-धीरे लोकतंत्र की अर्थी उठने लगी जो एक अशुभ का सूचक है, इसलिए नागरिक शक्ति को सुदृढ़ एवं शक्तिमान करना लोकतंत्र के लिए आवश्यक है। दुर्भाग्य यह है कि देश की सुरक्षा के नाम पर विश्वविद्यालयों में सैनिक शिक्षा के लिए और नौजवानों में अनुशासन लाने के लिए एन सी सी के प्रशिक्षण को आवश्यक तो समझा जाता है लेकिन देश में विभिन्न प्रकार की हिंसा और बढ़ते हुए उग्रवाद के लिए शिक्षा जगत से योगदान लेने की कल्पना भी नहीं आती। यही कारण है कि देश में सांप्रादायिक, जातिगत, नक्सलवादी और माओंवादी हिंसा के अतिरिक्त हिंसा और घरेलु हिंसा का ग्राफ संकट की स्थिति को पार कर रहा है। लेकिन समस्या और भी गंभीर हो रही है। अतः विभिन्न प्रकार के असंतोष से उत्पन्न उग्रवाद और बढ़ती हुई हिंसा की समस्या के समाधान के लिए केवल पुलिस एवं सैनिक शक्ति का सहारा लेना प्रति उत्पादक तो है ही साथ-साथ लोकतंत्र पर भी संकट बढ़ेगा।
अतः देश की शिक्षा व्यवस्था को जीवन अभिमुख एवं शांतिमूलक बनाना राष्ट्र की प्राथमिकता होनी चाहिए। सौभाग्य से देश में लगभग 75 लाख शिक्षक और 6 करोड़ विद्यार्थी यदि इनका उपयोग राष्ट्र निर्माण और शांति सद्भावना के लिए करते हैं तो यह एक बड़ी उपलब्धि होगी। शांति और सुव्यवस्था के अभाव में विकास के रथ के पहिए भी अवरुध्द हो जायेंगे और जिस प्रकार आज पाकिस्तान अपनी आजादी के साथ अपनी अस्मिता के खतरे से जूझ रहा है वही बदनसीबी हमको भी हो सकती है। शांति, शिक्षा और शांतिरोध पर आज पाश्चात्य देशों में लगभग दो हजार व छोटी-बड़ी संस्थाए कार्यरत है। भारत जैसे बहुपांथिक तथा बहुभाषी, बहुआयामी देश के लिए विभिन्नताओं में एकता क ो प्रस्थापित करना उसके लिए जीवन और मरण का प्रश्न है। अतः शांति की साधना न तो महावीर, बुध्द और महात्मा गांधी की निर्जीव अर्चना बल्कि यह राष्ट्र की सुरक्षा विकास और प्रगति के लिए आवश्यक है। शांति और सद्भावना की निष्ठा भारत की सामासिक संस्कृति के लिए अनिवार्य है। अनिवार्य तो है ही यह भारतीय लोकतंत्र के लिए संजीवनी है। केवल शांति का जप किया जाये लेकिन पाठयक्रम और पाठ्यक्रम के बाहर विस्तार कार्यों का शांति और आत्मज्ञान के समुचित विकास के लिए शांति की संस्कृति के साथ-साथ विज्ञान और आत्मज्ञान के समुचित विकास के लिए शांति की संस्कृति शायद सबसे अधिक आवश्यक है। डा. राधाकृष्णन ने भी अपने भारतीय दर्शन के लिए प्रारंभ में ही यह व्यक्त किया है कि भारत में दर्शन और संस्कृति का इतना उच्च विकास इसलिए हो सका था कि यहाँ समाज में सद्भावना और देश में शांति का अर्थ मरघट की शांति से न समझा जाये। आर्थिक विपन्नता और भयानक विषमता, सामाजिक कारण है कि देश के 78 करोड़ लोगों की दैनिक आमदनी मात्र 18 रुपये है। और राष्ट्रीय विकास के राजप्रासादों में देश के केवल दस प्रतिशत लोग सूखोपभोग कर रहे हैं। इसलिए माओवाद और नक्सलवाद देश के 129 जिलों में आगे बढ़ रहा है। बिहार, झारखंड, बंगाल, उड़ीसा से लेकर आंध्र प्रदेश और केरल तक माओवाद का लाल गलियारा हमें यह संकेत दे रहा है कि सच्ची शांति के लिए हर हाथ में काम या संविधान में हर नागरिक को काम का आधिकार दाखिल होना चाहिए और देश में आर्थिक विषमता दस प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए। हमारी पंचवर्षीय योजनाएँ अब तक राष्ट्रीय और जनता की योजना नहीं कही जा सकती जब तक सबको जिविका का आधार नहीं हो सके। मक्खियाँ और मच्छर तभी पैदा होते हैं जब नालियों में गंदगी जमा हो उसी तरह माओवाद और नक्सलवाद इसीलिए बढ़ते हैं कि भूख, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार और समाजिक अन्याय की वृद्धि होती है। इसलिए हिंसा के संगठन से लड़ने के लिए हमें एक हाथ में शांति का कपोत और दूसरे हाथ में सामाजिक आर्थिक अन्याय के खिलाफ अहिंसक युद्ध के लिए एक-एक गाँव और शहर के एक-एक मुहल्ले और हर शिक्षण संस्थान में शांति सेना की फौज खड़ी करने की जरूरत है।

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