बिहार के गया जिले में टिकारी प्रखंड कार्यालय से लगभग 40 किलोमीटर की दूरी पर बारा नाम का एक गांव है। उसी गांव में 12 फरवरी सन् 1992 की रात को माओवादी काम्यूनिस्ट सेंटर ने 35 किसानों की गला रेत हत्या कर खूनी जलसे का आयोजन किया था। विगत दिनों उस नरसंहार से संबंधित मामले में जिला एवं सत्र न्यायाधीश के सामने गवाही गुजारी गयी। प्रत्याक्षदर्शी महिला गवाह जिसके पिता की हत्या उसके सामने की गयी थी, आतंकवादियों को देखते विलखने लगी और अपनी भावनाओं पर नियंत्रण नहीं रखने के कारण जोर जोर से चिल्ला कर कहने लगी कि हां इसी आदमी ने हमारे घर के दरवाजे को डायनामाईट से उडा दिया और मेरे पिता को बाहर लेजाकर हमारी नजरों के सामने गला रेत कर हत्या कर दी। हालांकि उस महिला ने उसके साथ हुई अपमानजनक घटना की बात न्यायालय को नहीं बतायी लेकिन उसके चेहरे के खैफ से साफ जाहिर हो रहा था कि चरम साम्यवादी दरिंदों ने उस महिला के साथ क्या किया होगा। महिला गवाह ने अपने अपमान का खुलासा शायद इसलिए भी नहीं किया होगा कि उस खुलासे के बाद महिला के साथ शायद ही कोई सादी के लिए तैयार होता। सम्भवत: इस कारण से भी मामले को दबा दिया गया होगा। ऐसा, महिला के बयान और भाव भंगिमा से प्रतीत हो रहा था। आज से लगभग 18 साल पहले घटी उस खौफ की तष्वीर महिला के चहरे से साफ दिखाई दे रही थी। गवाह महिला के आर्तनाद ने पूरे न्यायालय को मानों हिला कर रख दिया हो। हालांकि बचाव पक्ष के वकील ने माओवादी हत्यारे के बचाव में कई दलीलें दी, लेकिन बचाव पक्ष के अधिवक्ता ने जब गवाह महिला का चेहरा देखा तो एक बार वह भी सहम गये।
उन दिनों बिहार में इस प्रकार की घटनाए आम हो गयी थी। माओवादी वर्ग शत्रु के नाम पर लगातार किसानों की हत्या कर रहे थे। तर्क यह दिया जा रहा था कि सामंत तो समाप्त हो गये है लेकिन सामंती प्रवृति के कारण्ा नये वर्ग शत्रु पैदा हो रहे हैं। इसको समाप्त करने के लिए माओवादी अभियान चला रहे हैं, लेकिन अन्दरखाने मामला कुछ और था। उन दिनों संयुक्त बिहार का माओवादी समूह एक पार्टी विषेषे के लिए काम कर रहा था। उस पार्टी के द्वारा इस प्रकार की हत्याओं के लिए माओवादियों को बाकायदा पैसे दिये जाते थे और माओवादी नेता गरीब किसानों की हत्या का फरमान जारी करते थे। उन दिनों नरसंहारों के काराणें पर जब माओवादी बुध्दिजीवियों से सवाल पूछे जाते थे तो वे कहते थे कि हम भी मानते हैं कि जो लोग मारे जा रहे हैं वे न तो सामंत हैं और न ही बूर्जआ लेकिन चरम साम्यवादी, सामंती मनोवृति को परास्त करने के लिए एक खास प्रकार के वर्ग शत्रुओं को चिंहित किया है तथा उसके हत्या की रणनीति बनायी है। हालांकि रणवीर सेना के गठन के बाद बिहार में चरम साम्यवादियों को अपनी रणनीति बदलनी पडी। रणवीर सेना ने माओवादियों को रणनीति बदलने को मजबूर कर दिया। अब स्थिति और बदल गयी है। अब चरम साम्यवादी सरकारी अधिकारियों को अपना निषाना बना रहे हैं। पुलिस का हथियार लूट रहे हैं। कुल मिलाकर भारतीय माओवादियों के सिध्दांतों में न तो कोई स्थिरता है और न ही कोई स्थायित्व। माओवादी कहने के लिए चाहे कितना भी कह ले कि वे समझौतावादी नहीं हैं लेकिन उनकी रणनीति की जानकारी रखने वाले उनको अस्थई चरम शक्ति के रूप में ही देखते रहे हैं। विगत दिनों जमुई जिला में हुए नरसंहार ने एक बार फिर दलेलचक बघैडा, साहोबिगहा, रामपुर चौरम और सेनारी की घटना को ताजा कर दिया। एक ही गांव के 12 र्निधन आदिवासियों को माओवादियों ने मौत की निन्द सुला दी। इस गांव के आदिवासियों की गलती यह थी कि उसने डाक डालकर भाग रहे कुछ गुंडों को मार गिराया था। माओवादियों ने घोषणा की कि मारे गये डकैत नहीं माओवादी कार्यकर्ता थे, और जिसने उनको मारा उसको भी मौत की सजा दी जाएगी। फिर जो होना था वहीं हुआ और 12 निरपराध आदिवासियों को अपनी जान गवानी पडी। पष्चिम बंगाल में भी एक घटना घटी और 25 के करीब पुलिस को मौत के घाट उतार दिया गया। अब इसके बाद भी माओवादी समर्थक समूह लगातार गाल बजा रहा है कि माओवादी तो गरीबों के लिए बंदूक उठाए हुए है। अगर सचमुच माओवादी गरीबों के लिए लड रहे हैं तो गरीबों के बच्चे जहां पढते हैं उस विद्यालय को डायनामाईट से क्यों उडाया जा रहा है। षिक्षक, चिकित्सक, या कोई अन्य ग्रामीण क्षेत्रों में काम करने वाला अधिकारी माओवादी प्रभाव वाले क्षेत्र में अब जाता ही नहीं है। माओवादी उनके वेतन का कुछ पैसा लेकर उन्हें काम पर नहीं आने की छूट दे रखे हैं। माओवादी विस्तार वाले क्षेत्र में 100 एकड से भी ज्यादा जमीन जोतने वाले ठाठ से रह रहे हैं। वे ठाठ से गरीबों का शोषण भी कर रहे हैं लेकिन माओवादियों को तो अपने लेभी से मतलब है। शहुकार ब्याजखोरी में मगन है लेकिन माओवादियों को लेभी देता है और गरीबों का शोषण करने की उसे छूट दे दी जाती है।
कुछ प्रांतों को छोड कर पूरे देश में माओवादी सक्रिय हो गये हैं। माओवादी आग लगा रहे हैं। माओवादी गरीब, किसानों की हत्या कर रहे हैं। माओवादी ईसाई मिसनरियों के इषारे पर हिन्दु संतों के खिलाफ अभियान चला रहे हैं। माओवादी पुलिस पर आक्रमण कर रहे हैं। माओवादी खान, जंगल, तेनु के पत्ते और नासपाती के बागनों का बंदोवस्त कर रहे हैं। लोगों से लेभी के नाम पर करोडों रूपये वसूल रहे हैं। भष्ट अधिकारियों व्यापारियों, उद्योगपतियों से पैसे लेकर उनको ठेका दिलवा रहे हैं। उडीसा के संत लक्ष्मनानंद की हत्या के बाद यह साबित हो गया कि माओवादी ईसाई मिसनरियों से भी पैसे ले रहे हैं। इन तमाम गैर कानूनी काम करने वाले माओवादियों को जब पकडा जाता है तो उसको प्रथम दर्जे के राजनीतिक कैदी का दर्जा दिया जाता है। उसके लिए सारी सुख सुविधा सरकार के खीसे से उपलब्ध करायी जाती है। लेकिन उनके नेताओं को जेल में अपराधियों के जैसा सलूक नहीं होना चाहिए। नार्को परीक्षण हुआ तो मिसनरियों के द्वारा संपोषित मानवाधिकार संगठन दुनिया भर में प्रचारित करेगा कि भारत में मानवाधिकार की धज्जियां उडाई जा रही है। पहले तो मात्र जेहादी ही भारतीय संघ का दामाद हुआ करता था आजकल माओवादी नेताओं को भी वही दर्जा प्रप्त हो गया है। माओवादी नेताओं पर करोडों रूपये खर्च किये जा रहे हैं। उन्हें लैपटॉप मुहया कराया जा रहा है। माओवादी नेताओं के लिए जेल में ही पंचसितारा सुविधायुक्त कार्यालय खोल दिये गये हैं। वहां वे किसी से भी मिल सकते हैं। ऐसे में बहुप्रचारित माओवाद के खिलाफ जंग देश की जनता के साथ छलावा नहीं तो और क्या है?
पिछले साल कोबाद घांटी नामक चरम साम्यवादी आतंकवादी को गिरफ्तार किया गया। उसके लिए कैदीगृह में ही पंचसिताराई कार्यालय का निर्माण किया गया है। घांटी अपने कार्यालय में बाकायदा बैठते हैं और अपने समर्थकों से मिलते हैं। जब नार्को परीक्षण के लिए पुलिस ने उनपर सिकंजा कसा तो जन संगठनों के नेताओं ने तो इसका विरोध किया ही सरकार भी इसके लिए तैयार नहीं हुई। माओवादी नेता अरबों खरबों कमा रहे हैं। माओवादियों की अईयासी को देख अरबपति दंग रह जाते हैं। लूट हत्या डकैती में संलिप्त माओवादियों को जेल के अंदर भी सुविधा दी जता है लेकिन जिन हिन्दु संतों पर आरोप सिध्द भी नहीं हुआ होता है उनको पुलिस तो प्रताडित करती ही है उनके खिलाफ मीडिया ट्रायल भी प्रारंभ हो जाता है। या यों कहें कि मीडिया को उनके खिलाफ ट्रयल के लिए उकसाया जाता है। ऐसे में एक निष्पक्ष राज्य की परिकल्पना बेमानी नहीं तो और क्या है?
माओवादियों के द्वारा मारे गये लोगों के परिजनों को न्याय नहीं मिला। बडे किसानों, पूंजी पत्तियों और उद्योग पत्तियों पर मेहरवान तथा साधारण लोगों के खिलाफ माओवादी अभियान चलाने वाले माओवादियों के प्रति चाहे सरकार कुछ भी कह ले लेकिन वह नरम रवैया अपना रही है। लेकिन याद रहे जो लोग माओवादियों को हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं माओवादी उनका भी भला नहीं करेगा। बिहार में उन दिनों जब माओवादी कथित वर्ग शत्रुओं को खोज खोज कर मौत के घाट उतार रहे थे, उस समय बिहार में शहर के अंदर रहने वाले लोग यह कहते थे कि गांव में सामंती प्रवृति के कारण ऐसी घटना घट रही है। प्रशासन भी माओवादियों से हमदर्दी रखती थी, लेकिन आज माओवाद अपने आवरण से बाहर निकल आया है। गांव में उसने किसानों को साथ लेकर शहरियों और प्रषासन को निषाना बनाने लगा है। अब प्रशासन और शहर में रहने वाले लोगों को ऐहसास होने लगा है कि माओवाद सचमुच में एक समस्या है। यह गरीबी के कारण नहीं एक आतंकी मनोवृति के कारण विस्तार प्रप्त कर रहा है। माओवाद और कुछ भी नहीं केवल संगठित आपराधिक समूह बर कर रह गया है। माओवाद के नाम पर माओवादियों को पैसे चाहिए, सराब चाहिए, काम वासना की तृप्ति के लिए जवान लडकियां चाहिए। ऐसे में माओवादियों के वर्तमान समर्थकों को समझ लेना चाहिए कि यह न तो व्यवस्था परिवर्तन की लडाई है और इससे अमीरी गरीबी की खाई भी पटने वाली है। यह लोकतंत्र के खिलाफ कुछ अराजक तत्वों का अभियान है जिसे कराई से नहीं निवटा गया तो यह घाव नासूर हो जाएगा और फिर देश को विघटित होने से कोई रोक नहीं सकता है।
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