कहां पर है कमी
मध्यप्रदेश में शिक्षा आज भी उन चुनावी मुद्दों में शामिल है जिसे कभी पूरा नहीं किया जाता है। वर्ष 2015 तक प्रदेश के सभी बच्चों को प्राथमिक स्तर की शिक्षा सुनिश्चित करवाना है। प्रदेश के गठन के 52 साल बाद भी शतप्रतिशत बच्चों को स्कूल तक लाने की कवायद ही चल रही है। मगर प्रदेश के लाखों बच्चों के नसीब में शिक्षा की लकीर नजर नहीं आती है। तमाम कोशिशों के बावजूद स्कूल छोड़ चुके ढाई लाख बच्चों को दोबारा स्कूल पहुंचाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है। डाइस की रिपोर्ट के आंकड़े खुद ब खुद इसकी हकीकत बयां करते हैं। चौंकाने वाले तथ्य तो यह हैं कि वर्ष 2000-01 में स्कूलों में प्रवेश लेने वाले बच्चों में से सिर्फ दस फीसदी ही स्कूल छोडक़र जाते थे जबकि वर्ष 2006 तक स्कूल छोडने वाले बच्चों का प्रतिशत 20 के करीब पहुंच गया। नेशनल चाइल्ड लेबर प्रोजेक्ट के अंतर्गत 17 जिलों में 59012 बाल मजदूर हैं जिनमें से सिर्फ 19072 ही स्कूल जा रहे हैं। इसी तरह इंडस योजना के तहत 5 जिलों के 73119 बाल मजदूरों में से मात्र 28184 को स्कूल में नामांकित बताया जा रहा है। इनके हक में किए जा रहे प्रयासों की पोल खोलने के लिए बैतूल का उदाहरण काफी है जहां 5000 से यादा बाल मजदूर होने पर भी इनके लिए कोई ब्रिज स्कूल आज तक नहीं खुला है। नर्मदा घाटी के विस्थापित परिवारों के हजारों बच्चे हों या पालपुर कूनो के विस्थापित 27 गांवों के बच्चे, सबकी निगाहें आने वाली सरकार पर हैं जो उन्हें स्कूल की सूरत दिखाएगी। होशंगाबाद के पास रानीपिपरिया के सपेरा समुदाय के किसी भी बच्चे को स्कूल में दाखिला नहीं दिया जाता है। सागर के पथरिया गांव की बेड़नी समुदाय की लड़क़ियों को स्कूल में इसलिए अपमानित होना पड़ता है क्योंकि उनके समुदाय की महिलाएं वेश्यावृत्ति करती हैं। पारदी समुदाय को समाज ने अपराधी मान लिया है। इनके बच्चों को स्कूल में ही अपराधी होने का बोध कराया जाता है। 2007 के बजट सत्र में राज्यपाल के अभिभाषण में इस बात का जिक्र था कि ”प्रदेश की सभी 81 हजार 335 प्राथमिक शालाओं को भवन उपलब्ध करा दिए गए हैं। वर्ष 2006-07 मे 2 हजार 284 शालाओं के लिए भवन स्वीकृत होने के पश्चात् कोई भी शासकीय शाला भवनविहीन नहीं हैं।” जबकि प्रदेश में कई प्राथमिक शालाएं अभी भी भवनविहीन हैं। डाइस रिपोर्ट (2007 में जारी) के मुताबिक 6239 प्राथमिक शालाएं भवनविहीन हैं। इस रिपोर्ट में 2006 तक के आंकड़ें हैं पर सभी प्राथमिक शालाओं को अभी भी भवन उपलब्ध नहीं कराया जा सका है, जैसा कि सरकार का दावा है। प्रदेश में अभी भी सैकड़ों प्राथमिक शालाएं भवनविहीन हैं। प्रदेश के 10 जिलों में प्राथमिक व मिडिल स्तर की 401 शालालों में मध्यप्रदेश शिक्षा अभियान हस्तक्षेप कर शिक्षा की स्थिति का आकलन कर रहा है। इनमें 332 प्राथमिक शालाएं हैं। इन प्राथमिक शालाओं में शिक्षा गारंटी शाला एवं उन्नयन की हुई शिक्षा गारंटी शालाओं का हिस्सा 40 फीसदी बैठता हैं। यह चिंतनीय तथ्य है कि 401 शालाओं में एकल शिक्षकीय शालाओं का प्रतिशत 23 फीसदी है। आदिवासी बहुल 5 जिले जिलों (धार, झाबुआ, सिवनी, सीधी एवं छिंदवाड़ा) के 237 स्कूलों में एकल शिक्षक शालाओं का हिस्सा 34.2 (81 शालाएं) फीसदी हैं जिनमें लगभग 50 फीसदी हिस्सा (40 शालांए) शिक्षा गारंटी शालाओं का है। 5 जिलों की 81 एकल शालाओं में 4964 बच्चे दर्ज है।1986 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति के अनुसार अच्छी शिक्षा के लिए 30 बच्चों पर एक शिक्षक लगाया जाना जरूरी है एवं छात्र शिक्षक अनुपात 1:30 रखे जाने की अनुशंसा की गई है। सर्वशिक्षा अभियान के तहत यह अनुपात 1:40 कर दिया गया है। शाला में 1:40 के अनुपात में शिक्षक नियुक्ति एवं प्राथमिक शाला में कम से कम 2 शिक्षक, माध्यमिक शाला में कक्षावार एक शिक्षक नियुक्त किए जाने का प्रावधान सर्व शिक्षा अभियान के तहत तय है। अफसोसजनक स्थिति है कि उपरोक्त पांच जिलों में 4964 बच्चे एकल शिक्षक शाला में दर्ज होकर बदतर शिक्षा ग्रहण करने को मजबूर है। डाईस प्रतिवेदन 2008 के अनुसार मध्यप्रदेश में प्रारंभिक शिक्षा स्तर पर एकल शिक्षक शालाओं का प्रतिशत 22.12 हैं। यानी 19405 शालाओं में एक-एक शिक्षक नियुक्त है। इन प्राथमिक शालाओं में दर्ज बच्चों का प्रतिशत 19.04 है अर्थात कक्षा 1 से 5 में दर्ज लगभग 21460595 बच्चों की पढ़ाई एकल शिक्षक शाला में की जाती है। यह चौंकाने वाली बात है कि मध्यप्रदेश में वर्ष 2004-05 में एकल शिक्षक शालाओं में पढ़ने वाले बच्चों का प्रतिशत 17.7 था, जो वर्ष 2005-6 में 19 प्रतिशत तक बढ़ गया। वर्ष 2004-05 में 100 से ज्यादा बच्चों पर एक शिक्षक के औसत वाली शालाओं का प्रतिशत 4.7 था जो वर्ष 2005-6 में 6 प्रतिशत हो गया।
क्या किया जाये कि बच्चे ज़रा स्कूल जायें
उपरोक्त तथ्तों के आधार पर कहा जा सकता है कि धार, झाबुआ, सिवनी, सीधी,मंड़ला एवं छिंदवाड़ा जैसे पिछड़े ज़िलों पर अभी भी शिक्षा के व्यापक प्रचार-प्रसार और तकनीकी रूप से कार्य करने की आवश्यकता है। ऐसे प्रत्येक जिलों में एक शिविर का आयोजन करते हुए गांव के शिक्षित वर्ग को आगे आने के लिए प्रेरित किया जा सकता है। साथ घर की महिलाएं जो बच्चे की पहली शिक्षक होती है को ज्यादा से ज्यादा शिक्षित और सही मायनों में साक्षर किया जाये ताकि बच्चे की साक्षर होने की शुरूआत को सही दिशा मिल सके।उन इलाकों को विकास की मुख्य धारा से जोड़ने का प्रयास किया जाये जहां पर अभी विकास के नाम पर महज रोजगार गांरटी योजना जैसी योजनाओं का ही क्रियान्वयन किया गया है। अभी इन जिलों में अभी ऐसे कई गांव हैं जहां पर पढ़ने जाने के लिए कई किमी का सफर छात्रों को करना पड़ता है। इन जिलों में जाकर प्रशासन से मिलकर इनकी इस दुविधाओं को दूर करने का प्रयास किया जाना चाहिए। हर स्कूल में मौजूद शिक्षकों के सामान्य ज्ञान और उनकी जागरूकता को जाचां और परखा जाना चाहिए ताकि कक्षा में मौजूद छात्र के सर्वांगीण विकास का आधार तय किया जा सके। बच्चों का मन कोमल होता है वे जिस तरह का माहौल अपने आसपास देखते हैं उसी के अनुरूप ख़ुद को ढ़ाल लेते हैं,यह माहौल ही बच्चों के भविष्य का निर्णायक होता है।॥अगर शिक्षा को सही मायनों में इन आदिवासी जिलों के बच्चों के लिए कारगर बनाना है तो इन आदिवासियों जिलों के पहुँचविहीन इलाकों में जाकर वातावरण को शिक्षा के योग्य बनाने की कोशिश की जानी चाहिए। ज्यादा से ज्यादा कोशिश की जाये किबच्चों के लिए स्कूल महज़ मध्यान भोजन और समय बिताने का कमरा ना हो बल्कि यह उनके लिए उनके भविष्य को संवारने का एक माध्यम बन सके। स्कूल से घर और घर से स्कूल तक का सफर बच्चे के लिए उसके स्वणिम भविष्य का रास्ता हो…..।
इमरान हैदर
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