Thursday, February 4, 2010

अपनी भाषा : घोषणा करो, भूल जाओ!

अंग्रेजीदां नौकरशाही है भारतीय भाषाओं की दुश्मन

slide14 300x225 अपनी भाषा : घोषणा करो, भूल जाओ!ओडिशा सरकार ने सरकारी कार्यालयों में ओडिया भाषा के प्रचलन के लिए इधर कई घोषणाएं की है। सचिव स्तरीय बैठक में इस संबंध में कुछ निर्णय किये गये हैं और उसे जोरशोर से प्रचारित किया जा रहा है। उन निर्णयों के अनुसार निचले स्तर पर यानी जिला, तहसील, प्रखंड व पंचायत स्तर पर अब सरकारी कामकाज ओडिया भाषा में होगा। इसके लिए कई और घोषणाएं भी की गई हैं। ओडिया के सरकारी भाषा के लिए भाषाकोष बनाने और विशेष साफ्यवेयर तैयार करने की बात भी कही गई।

राज्य में जितने सरकारी कार्यक्रम होते हैं, उनकी भाषा अंग्रेजी होती है। राजनेता तो ओडिया भाषा में कुछ बोल भी देते हैं, लेकिन भारतीय प्रशासनिक सेवा, भारतीय पुलिस सेवा या फिर ओडिशा प्रशासनिक सेवा के अधिकारी यानी पूरी वरिष्ठ नौकरशाही अंग्रेजीदां है। कार्यक्रम जब ओडिशा में हो रहा हो, वक्ता जब ओडिया भाषा जानता हो और श्रोता भी ओडिया भाषी हों, तो फिर अंग्रेजी में भाषण क्यों दिया जाता है, यह समझ से परे है। सिर्फ कार्यक्रम ही क्यों, पूरी सरकार अंग्रेजी के बैसाखी पर चलती है। इस दिशा में जेबी पटनायक के समय भी प्रयास हुआ था। लेकिन गोरी शक्तियों से प्रेरणा प्राप्त करने वाले नौकरशाहों की वजह से उसमें सफलता नहीं मिली और राजकाज की भाषा लोक भाषा न हो कर अंग्रेजी ही रही।

यह समस्या सिर्फ ओडिशा या ओडिया की नहीं है। समस्त भारतीय भाषाओं को ऐसी परेशानी झेलनी पड़ रही है। पंजाब में पंजाबी की बात करें या फिर तमिलनाडु में तमिल की या फिर असम में अहमिया की। सब की स्थिति ऐसी ही है। पंजाब में सरकार कांग्रेस की बने या फिर अकालियों की, दोनों पंजाबी को सरकारी कामकाज की भाषा बनाने की घोषणा करते हैं, लेकिन फिर वही ढाक के तीन पात। पंजाब में इस तरह की घोषणाएं तीन-चार बार हो चुकी हैं। पड़ोसी राज्य हिमाचल प्रदेश में तो बाकायदा विधानसभा में विधेयक तक पारित कराया गया। लेकिन कामकाज अंग्रेजी में ही होता रहा। पंजाब या हिमाचल प्रदेश यहां पर प्रतीक हैं। पंजाब या हिमाचल प्रदेश के स्थान पर किसी भारतीय राज्य का नाम लिखा जा सकता है। विभिन्न भारतीय भाषाओं की अस्मिता के सवाल पर आंचलिक पार्टियां बढ़-चढ़कर ऐसी घोषणाएं करती हैं। ओडिशा की बीजू जनता दल, तमिलनाडु की द्रमुक- अन्ना द्रमुक, असम की असम गणपरिषद हो, पंजाब की अकाली दल, महाराष्ट्र की शिवसेना या मनसे हो, सभी पार्टियां इस मामले में यानी भारतीय भाषाओं को उनका सम्मान दिलाने को हल्ला तो मचाती हैं, लेकिन सत्ता में आते ही कोट-टाई पहनने वाले नौकरशाहों की गिटिरपिटिर के समक्ष घुटने टेक देती है। हां, ये पार्टियां यह कार्य जरूर कर देती हैं कि वे भारतीय भाषाओं को हिन्दी के खिलाफ खड़ा करने में पीछे नहीं रहतीं।

महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के नेता राज ठाकरे मराठी हित की बात करते हैं और हिन्दी का विरोध करते हैं। उन्हें मुंबई की सड़कों पर हिन्दी में लिखे साइनबोर्ड नहीं चाहिए, लेकिन अगर विदेशी भाषा अंग्रेजी में साइन बोर्ड लिखा हो, तो उन्हें उसमें कोई आपत्ति नहीं है। अंग्रेजी पब्लिक स्कूलों मेंं मराठी नहीं पढ़ाई जाती, इस पर ठाकरे को कुछ नहीं कहना है।

एक उदाहरण गुवाहाटी विश्वविद्यालय का है। अगर किसी शोध छात्र को गुवाहाटी विश्वविद्यालय में हिन्दी से पीएचडी करनी है, तो वह अपनी थीसिस हिन्दी में जमा नहीं कर सकता। उसे अपनी थीसिस अंग्रेजी में लिखनी होगी। इसी तरह भारतीय भाषाओं को हिन्दी के खिलाफ खड़ा किया जा रहा है। यहां याद रखना होगा कि भारतीय भाषाएं एक दूसरे के विरोधी नहीं है, बल्कि एक दूसरे की पूरक हैं। लेकिन अंगे्रेजी मानसिकता वाले लोगों की एक ऐसी लाबी है, जो भारतीय भाषाओं को हमेशा लड़ाना चाहती है। इस लाबी को पता है कि जिस दिन लोग इस बात को समझ लेंगे कि भारतीय भाषाओं का अगर कोई दुश्मन है, तो वह अंग्रेजी है। देश के कुछ प्रतिशत लोगों को छोड़कर अधिकांश लोगों को अंग्रेजी की जानकारी नहीं है। लेकिन सारा कामकाज लोक भाषा (भारतीय भाषाओं) में न हो कर चंद लोगों की भाषा अंग्रेजी में होता है।

आखिर स्वतंत्रता के बाद भी भारतीय भाषाओं में सरकारी व न्यायालयों में काम क्यों नहीं होता है? भारतीय लोक भाषाएं हाशिये पर क्यों हैं? इसके पीछे भारत की नौकरशाही है। नौकरशाही की जड़े ब्रिटिश साम्राज्यवादी चेतना से धंसी हुई है। नौकरशाही जनता पर भय से शासन थोपना चाहती है। ओडिया/ भारतीय भाषा बोलने और लिखने से आत्मीयता तो पैदा हो सकती है, भय नहीं। गोरी शक्तियां नौकरशाह को जाते हुए यह घुट्टी पीला गये हैं, आम जनता को भय से काबू कि या जाता न कि आत्मीयता से। भाषा का डर पैदा कर भयतंत्र कायम किया जाता है। ओडिया / भारतीय भाषा व अंग्रेजी की यह लड़ाई भारतीय लोकतंत्र और ब्रिटिश साम्राज्यवादियों द्वारा नौकरशाही को पिलाई गई घुट्टी के भयतंत्र के बीच है। प्रारंभ में राजनीतिक दल भी भारतीय भाषाओं के पक्ष में खड़े हो गये थे। लेकिन पिछले तीन दशकों से ये राजनेता भी अपने लोगों से इतना कट गये हैं, अब उन्हें भी अपने ही लोगों पर राज करने के लिए भय की लाठी चाहिए, आत्मीयता का आसन नहीं।

तब सवाल यह उठता है कि बीच-बीच में राजनीतिक दल ओडिया /भारतीय भाषाओं का हल्ला क्यों मचाते हैं? इसका साफ जवाब यह है कि केवल इसलिए ताकि लोग यकीन करते रहें उनकी आस्था अभी भी लोकतंत्र में है। लोक तंत्र लोकभाषा में बसा है। वैसे एक उदाहरण और। ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन बाबू तो ओडिया जानते ही नहीं। पिछले 11 साल में वे ओडिया नहीं सीख पाये। अब जिस भाषा को वे जानते ही नहीं, उसके लागू होने की घोषणा ही जनता को बरगलाने के लिए काफी है। लागू कर देने पर राज्य के मुख्यमंत्री के रूप में सरकारी कामकाज करने के लिए उन्हें भी तो ओडिया सीखनी होगी। कौन इतनी जहमत उठाये…। घोषणा हो गयी। जनता खुश…। याद आयेगा, तो फिर एक बार घोषणा कर दी जायेगी।

-इमरान हैदर

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