Friday, February 5, 2010

वेदों में पर्यावरण एवं जल संरक्षण

पर्यावरण का स्वच्छ एवं सन्तुलित होना मानव सभ्यता के अस्तित्व के लिए आवश्यक है। पाश्चात्य सभ्यता को यह तथ्य बीसवीं शती के उत्तारार्ध्द में समझ में आया है, जबकि भारतीय मनीषा ने इसे वैदिक काल में ही अनुभूत कर लिया था। हमारे ऋषि-मुनि जानते थे कि पृथ्वी, जल, अग्नि, अन्तरिक्ष तथा वायु इन पंचतत्वों से ही मानव शरीर निर्मित है-

पंचस्वन्तु पुरुष आविवेशतान्यन्त: पुरुषे अर्पितानि।1

उन्हें इस तथ्य का भान था कि यदि इन पंचतत्वों में से एक भी दूषित हो गया तो उसका दुष्प्रभाव मानव जीवन पर पड़ना अवश्यम्भावी है। इसलिए उन्होंने इसके सन्तुलन को बनाए रखने के लिए प्रत्येक धार्मिक कृत्य करते समय लोगों से प्रकृति के समस्त अंगों को साम्यावस्था में बनाए रखने की शपथ दिलाने का प्रावधान किया था, जो आज भी प्रचलित है-

द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षं शान्ति: पृथिवी शान्ति राप: शान्ति रौषधय: शान्ति।

वनस्पतय: शान्तिर्विश्वेदेवा शान्तिर्ब्रह्मं शान्ति: सर्वशान्तिदेव शान्ति: सामा शान्तिरेधि।2

अत: स्पष्ट है कि यजुर्वेद का ऋषि सर्वत्र शान्ति की प्रार्थना करते हुए मानव जीवन तथा प्राकृतिक जीवन में अनुस्यूत एकता का दर्शन बहुत पहले कर चुका था। ऋग्वेद का नदी सूक्त एवं पृथिवी सूक्त तथा अथर्ववेद का अरण्यानी सूक्त क्रमश: नदियों, पृथिवी एवं वनस्पतियों के संरक्षण एवं संवर्धन की कामना का संदेश देते हैं। भारतीय दृष्टि चिरकाल से सम्पूर्ण प्राणियों एवं वनस्पतियों के कल्याण की आकांक्षा रखती आई है। ‘यद्पिण्डे तद् ब्रह्माण्डे’ सूक्ति भी पुरुष तथा प्रकृति के मध्य अन्योन्याश्रय सम्बन्ध की विज्ञानपुष्ट अवधारणा को बताती है।

स्वच्छ जल एवं स्वच्छ परिवेश किसी भी सामाजिक वातावरण के पल्लवन एवं विकसन की अपरिहार्य आवश्यकता है। जीव-जन्तुओं हेतु अनुकूल परिस्थितियों में ही जीव-जन्तुओं का समाज पुष्पित-पल्लवित होता है। अत: सामाजिक विकास में पर्यावरण तथा जल संरक्षण की अनिवार्यता को विस्मृत नहीं किया जा सकता।

अथर्ववेद में कहा गया है कि अग्नि (यज्ञाग्नि) से धूम उत्पन्न होता है, धूम से बादल बनते हैं और बादलों से वर्षा होती है।3 वेदों में यज्ञ का अर्थ ‘प्राकृतिक चक्र को सन्तुलित करने की प्रक्रिया’ कहा गया है।4 वैज्ञानिकों ने भी यह स्वीकार किया है कि यज्ञ द्वारा वातावरण में ऑक्सीजन तथा कॉर्बन डाइ ऑक्साइड का सही सन्तुलन स्थापित किया जा सकता है। अत: यह तथ्य भी विज्ञान की कसौटी पर खरा उतरा है। वेदों तथा वेदांगों में अनेक स्थलों पर यज्ञ द्वारा वर्षा के उदाहरण मिलते हैं, जिनकी भारत सरकार के तत्तवावधान में 12 फरवरी, सन् 1976 को हुए भारतीय वैज्ञानिकों के सम्मेलन में पुष्टि की जा चुकी है। यही नहीं जून 2009 में भारतीय वैज्ञानिकों ने उ.प्र. के उन्नाव जिले के कुछ खेतों में वैदिक ऋचाओं के समवेत गायन के कैसेट बजाने से पैदावार में दो से तीन गुनी तक अधिक वृद्धि लक्षित की है।

यास्कीय निघण्टु में वन का अर्थ जल तथा सूर्यकिरण एवं पति का अर्थ स्वामी माना गया है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि वैदिक ऋषि इस विज्ञानसम्मत धारणा से अवगत थे कि वन ही अतिवृष्टि तथा अनावृष्टि से उनकी रक्षा कर सकते हैं। इसलिए ऋग्वेद में वनस्पतियों को लगाकर वन्य क्षेत्र को बढ़ाने की बात कही गयी है।5 सम्भवत: इसी कारण से उन्होंने वन्य क्षेत्र को ‘अरण्य’ अर्थात रण से मुक्त या शान्ति क्षेत्र घोषित किया होगा, ताकि वनस्पतियों को युद्ध की विभीषिका से नष्ट होने से बचाया जा सके।6 अथर्ववेद में जल की महत्ताा को प्रतिपादित करते हुए कहा गया है कि जिससे बढ़ने वाली वनस्पतियाँ आदि अपना जीवन प्राप्त करती हैं, वह जीवन का सत्व पृथ्वी पर नहीं है और न द्युलोक में है, अपितु अन्तरिक्ष में है तथा अन्तरिक्ष में संचार करने वाले मेघमण्डल में तेजस्वी पवित्र और शुद्ध जल है। जिन मेघों में सूर्य दिखाई देता हो, जिनमें विद्युत रूपी अग्नि कभी व्यक्त और कभी गुप्त रूप से दिखाई देती हो, वह जल ही हमें शुद्धता, शान्ति और आरोग्य दे सकता है, जिसे विज्ञान भी स्वीकार करता है।7

सुप्रसिद्ध इन्द्रवृत्र आख्यान भी जल के महत्तव को प्रतिपादित करता है। इन्द्र वर्षा के जल को बाधित करने वाले दैत्य वृत्रासुर रूपी अकाल का ऋषि दधीचि की सहायता से संहार करते हैं तथा स्वच्छ वारिधाराओं का धरती पर निर्बाध विचरण सुनिश्चित करते हैं। यही कारण है कि इन्द्र को जल के देवता की भी संज्ञा दी गई है।8 वैदिक ऋषि जल के औषधीय स्वरूप से भी भली-भाँति परिचित थे, सम्भवत: इसी कारण उन्होंने जल को ‘शिवतम रस’ की संज्ञा दी थी।9 ऋग्वेद का ऋषि प्रार्थना करते हुए कहता है कि हे सृष्टि में विद्यमान जल ! तुम हमारे शरीर के लिए औषधि का कार्य करो ताकि हम नीरोग रहकर चिर काल तक सूर्य का दर्शन करते रहें, अर्थात् दीर्घायु हों।10 यजुर्वैदिक ऋषि शन्नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये। शन्योरभिस्त्रवन्तु न:11 कहकर शुद्ध जल के प्रवाहित होने की कामना करता है। अथर्ववेद में पृथिवी पर शुद्ध पेय जल के सर्वदा उपलब्ध रहने की ईश्वर से कामना की गयी है-

शुद्धा न आपस्तन्वे क्षरन्तु यो न: सेदुरप्रिये तं नि दध्म:।

पवित्रेण पृथिवि मोत् पुनामि॥12

भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भागवद्गीता में स्वयं को नदियों में भागीरथि गंगा तथा जलाशयों में समुद्र बताकर (स्त्रोतसास्मि जाह्नवी सरसामस्मि सागर:) जल की महत्ताा को स्वीकृति प्रदान की है। भारतीय मनीषा की दृष्टि में जलस्त्रोत केवल निर्जीव जलाशय मात्र नहीं थे, अपितु वरुण देव तथा विभिन्न नदियों के रूप में उसने अनेक देवियों की कल्पना की थी।13 इसी कारण स्नान करते समय सप्तसिन्धुओं में जल के समावेश हेतु आज भी इस मंत्र द्वारा उनका आह्वान किया जाता है-

गंगे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति।

नर्मदे सिन्धु कावेरी जलेऽस्मिन सन्निधिम् कुरु॥14

वैदिक काल में भी पर्यावरण के प्रदूषित होने की समस्या उपस्थित हुई थी तथा समुद्र मन्थन और कुछ नहीं, अपितु देवताओं एवं असुरों द्वारा प्रकृति का निर्दयतापूर्वक दोहन था, जिससे अमृत के साथ-साथ हलाहल के रूप में प्रदूषण ही निकला होगा। कुछ वैज्ञानिकों का मत है कि यह जहरीली फास्जीन गैस थी। 15 उस समय भगवान शिव ने प्रदूषण रूपी हलाहल का पान का सृष्टि को प्रदूषण मुक्त किया था। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि सम्भवत: भगवान शिव ने प्रदूषण फैलाने वाले स्त्रोतों को नष्ट कर धरती को प्रदूषण से रहित किया होगा।

बृहदारण्यकोपनिषद में जल को सृजन का हेतु स्वीकार किया गया है और कहा गया है कि पंचभूतों का रस पृथ्वी है, पृथ्वी का रस जल है, जल का रस औषधियाँ हैं, औषधियों का रस पुष्प हैं, पुष्पों का रस फल हैं, फल का रस पुरुष हैं तथा पुरुष का रस वीर्य है, जो सृजन का हेतु है।16 मत्स्य पुराण में पादप का अर्थ पैरों से जल पीने वाला बताया गया है।17 इस तथ्य से भी वनस्पतियों एवं जल के वैज्ञानिक सम्बन्धों की पुष्टि की गई है।

सन्दर्भ ग्रन्थ

1- यजुर्वेद 23.52

2- यजुर्वेद 36.17

3- शतपथ ब्राह्मण 05.03.05.17

4- ऋग्वेद 10.90.06, 01.164.51, यजुर्वेद 31.04 तथा श्रीमद्भागवद्गीता 03.11.14

5- ऋग्वेद 10.101.11

6- वनस्पतिम् शमितारम्, यजुर्वेद 28.10

7- अथर्ववेद 01.33.01

8- पर्यावरण और वांड.मय सम्पादक डॉ. महेश दिवाकर तथा डॉ. हरमहेन्द्रसिंह बेदी में डॉ. हरमहेन्द्रसिंह बेदी का आलेख संस्कृत साहित्य में पर्यावरण, पृ0 186.

9- यजुर्वेद 32.13

10- ऋग्वेद 01.23.21

11- यजुर्वेद 32.12

12- अथर्ववेद 12.01.30

13- ऋग्वेद 10.75.06

14- पर्यावरण और वांड.मय सम्पादक डॉ. महेश दिवाकर तथा डॉ. हरमहेन्द्रसिंह बेदी में डॉ. हरमहेन्द्रसिंह बेदी का आलेख संस्कृत साहित्य में पर्यावरण, पृ0 183.

15- पर्यावरण और वांड.मय सम्पादक डॉ. महेश दिवाकर तथा डॉ. हरमहेन्द्रसिंह बेदी में डॉ. हरमहेन्द्रसिंह बेदी का आलेख संस्कृत साहित्य में पर्यावरण, पृ0 186.

16- बृहदारण्यकोपनिषद 06.04.01

17- मत्स्य पुराण 187.43

No comments:

Post a Comment