Tuesday, February 2, 2010

नक्सली मीडिया का अतिवाद और छत्तीसगढ़

नक्सलवाद और मीडिया को लेकर 2-3 साल पहले विभिन्न अखबारों और पत्रिकाओं के लिए लिखे अपने आलेख में इस लेखक ने नक्सलियों को मंच उपलब्ध करवाने एवं उसके महिमामंडन की जबरदस्त आलोचना करते हुए इसे नए तरह का अतिवाद कहा था. सम्प्रति रायपुर के प्रेस क्लब ने इन दानवाधिकारी उचक्कों से आजिज़ आ कर अपने मंच का उपयोग करने से इन्हें वंचित कर दिया है. स्वभाविक ही है कि बौखलाए दुकानदारों ने दुनिया भर में प्रदेश के पत्रकारों को बदनाम करना शुरू कर दिया है.लोकतंत्र के टेटुआ को दबा कर रखने वाले इन देशद्रोहियों को अब लोकतंत्र की याद आ रही है. बदलते परिप्रेक्ष्य में अद्यतन कर एक सामयिक आलेख का पुनर्प्रस्तुतीकरण- इमरान हैदर

मानव सभ्यता की शुरूआत से लेकर वर्तमान तक अभिव्यक्ति से सुंदर चीज आज तक नहीं हुई। अभिव्यक्ति ही वह अधिकार है जो आपको व्यक्ति बनाती है। यही आपको बेजूबानों से अलग करती है। इस स्वतंत्रता का सम्यक उपयोग ही किसी समाज के सभ्य होने की निशानी है। लेकिन पूर्वाग्रह, दुराग्रहपूर्ण अतिवाद ने इस स्वतंत्रता पर ग्रहण लगा, इसको केवल अपनी ही बपौती समझ इसका मनमाना उपयोग, भ्रांतिपूर्ण व्याख्या कर मानव के इस सहल सरस नैसर्गिक अधिकार को भी कलंकित करने का कार्य किया है। अभिवयक्ति की स्वतंत्रता के ही नाम पर फैलाए जा रहे अतिवाद और मीडिया पर विमर्श मुख्यतया दो बिन्दु पर की जा सकती है। पहला संप्रेषण माध्यमों के स्वयं के द्वारा फैलाया गया अतिवाद और दूसरा अतिवादी, उग्रवादी तत्वों को मंच प्रदान करना, उन्हें समर्थन देना। छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद और उसके विरूद्घ चलने वाला आंदोलन एक ऐसा उदाहरण है जिसमें आपको दोनों तरह के अतिवाद से एक साथ परिचय होगा। सरकार ने यहाँ पर जनसुरक्षा कानून लगाकर नक्सली संगठन को प्रतिबंधित करने के अलावा आतंकी गतिविधियों का प्रचार-प्रसार भी संज्ञेय अपराध की श्रेणी में रखा गया है। बावजूद उसके आम जनमानस किंकर्तव्यविमूढ़ हो नक्सलियों के महिमामंडल को झेलता जा रहा है। अपने आपको राष्ट्रीय कहे जाने वाले मीडिया के कुछ टुच्चे प्रतिनिधि प्रदेश के मीडिया को पानी पी-पी कर कोस रहे हैं। फलतः आजिज़ आ कर प्रदेश के प्रेस क्लब ने ऐसे किसी भी दुकानदारों को अपना मंच देने से मना कर दिया है। प्रदेश, देश, लोकतंत्र एवं मानवीयता के हित में प्रेस क्लब के इन निरे की जितनी तारीफ़ की जाय, कम है।

भले ही रुदालियाँ लाख दुष्प्रचार करते रहें लेकिन आप सोंचे, प्रचार की यह कैसी भूख? उच्छृंखलता की कैसी हद? लोकतंत्र के साथ यह कैसी बदतमीजी ? बाजारूपन की यह कैसी मजबूरी कि अपने ही देशवासियों-आदिवासियों के खून से लाल हुए हाथ को महिमामंडित किया जाय! दुखद यह कि ऐसा सब कुछ असभ्य आचरण अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और मानवाधिकार जैसे उन्हीं शब्दों की आड़ में हो रहा है,जिनके द्वारा मानव को सभ्यतम बनाने का प्रयास किया गया था। इन्हीं सारी चीजों का दुरूपयोग कर आज के “मीडिया-विशेष” ने हर तरह के उग्रवाद को प्रोत्साहित कर समाज की नाक में दम कर रखा है। राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में भी दर्जनों उदाहरण के द्वारा इस तरह के अतिवाद की चर्चा की जा सकती है। लेकिन सार्वाधिक उपेक्षित बस्तर वैसे तो आजतक किसी भी बाहरी मीडिया की प्राथमिकता में नहीं था और अब नक्सलियों के प्रचारक समूहों, वामपंथियों द्वारा पहनाये गये चश्मा से देखकर अंचल को बदनाम करने का प्रयास किया जा रहा है। और अपने इस लाल चश्में को वे लोग “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता” का जामा पहना रहे हैं।

भारतीय साहित्य में अभिव्यक्ति का काफी सुंदर उदाहरण देखने को मिलता है। रामायण में हनुमान सीता को भगवान राम का संदेश सुनाते हुए करहते हैं “कहेहु ते कुछ घटि होई, काह कहौं यह जान न कोई” यानि तुमसे बिछडऩे का जो दुख है, वह कह देने से कुछ कम अवश्य हो जायेगा, लेकिन किसको कहूं? मानस का यह चौपाई ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का व्याख्या करने हेतु काफी है। जब रहीम कहते हैं कि ”निजमन की व्यथा मन ही राखो गोय” तो यह कहीं से भी उपरोक्त का विरोधाभास नहीं है। मतलब यह कि आपकी अभिव्यक्ति कुछ मर्यादाओं के अधीन हो तभी उचित है, अन्यथा चुप ही रहना बेहतर। किसी ने कहा है कि कुछ कह देने से दुख आधा हो जाता है और सह लेने से पूरा खत्म हो जाता है। आशय यह कि यदि पत्रकारीय प्रशिक्षण की भाषा का इस्तेमाल करूँ तो आपकी अभिव्यक्ति भी – क्या, क्यूँ, कैसे, किस तरह आदि 6 ककार के अधीन ही होनी चाहिए इस मर्यादा से रहित बयान, भाषण या लेखन ही अतिवादिता की श्रेणी में आता है।

भारतीय संविधान ने उपरोक्त वर्णित अभिव्यक्ति के इसी सांस्कृतिक आत्मा का इस्तेमाल कर हर व्यक्ति को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रदान की है। मीडिया को इस अधिकार का इस्तेमाल करते हुए दो खास चीज का ध्यान रखना चाहिए, जिसका अंजाने या जानबूझकर उपेक्षा की जाती है। अव्वल तो यह कि अनुच्छेद 19 (1) ”क” किसी प्रेस के लिए नहीं है। यह आम नागरिक को मिली स्वतंत्रता है और इसका उपयोग मीडिया को एक आम सामान्य नागरिक बनकर ही करना चाहिए और उसके हरेक कृत्य को आम नागरिक का तंत्र यानि लोकतंत्र के प्रति ही जिम्मेदार होना चाहिए। लोकतंत्र, लोकतांत्रिक परंपराओं के प्रति सम्मान, चुने हुए प्रतिनिधि के साथ तमीज से पेश आना इसकी शर्त होनी चाहिए। किसी भी तरह की बदतमीजियों से बचकर ही आप एक आम नागरिक की तरह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हिस्सेदार हो सकते हैं। राज्य की यह जिम्मेदारी भी बनती है कि यदि कोई मीडिया समूह, स्व-अनुशासन नहीं लागू कर पाये तो उसे सभ्य बनाने के लिए संवैधानिक उपचार करें। यदि परिस्थिति विशेष में बनाये गये कानून को छोड़ भी दिया जाए तो भी संविधान ही राज्य को ऐसा अधिकार प्रदान करती है कि वह उच्छृंखल आदतों के गुलामों को दंड द्वारा भी उन्हें वास्तविक अर्थों में स्वतंत्र करे। उन्हें यह ध्यान दिलाये कि विभिन्न शर्तों के अधीन दी गई अभिव्यक्ति की महान स्वतंत्रता आपके बड़बोलापन के लिए नहीं है। आपको उसी अनुच्छेद (19)”2″ से मुंह मोडऩे नहीं दी जायगी कि आप, राज्य की सुरक्षा , लोक व्यवस्था , शिष्टïचार और सदाचार के खिलाफ कुछ लिखें या बोलें या आप किसी का मानहानि करें। भारत की अखंडता या संप्रभुता को नुकसान पहुंचायें। ”बिहार बनाम शैलबाला देवी” मामले में न्यायालय का स्पष्ट मत था कि ”ऐसे विचारों की अभिव्यक्ति या ऐसे भाषण देना जो लोगों को हत्या जैसे अपराध करने के लिए उकसाने या प्रोत्साहन देने वाले हों, अनुच्छेद 19 (2) के अधीन प्रतिबंध लगाये जाने के युक्तियुक्त आधार होंगे।” न केवल प्रतिबंध लगाने के वरन ”संतोष सिंह बनाम दिल्ली प्रशासन” मामले में न्यायालय ने यह व्यवस्था दी थी कि ”ऐसे प्रत्येक भाषण को जिसमें राज्य को नष्ट-भ्रष्ट कर देने की प्रवृत्ति हो, दंडनीय बनाया जा सकता है।”

आशय यह कि संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों का ढोल पीटते समय आप उसपर लगायी गयी मर्यादा को अनदेखा करने का अमर्यादित आचरण नहीं कर सकते। इसके अलावा आपकी अभिव्यक्ति दंड प्रक्रिया की धारा “499″ से भी बंधा हुआ है और प्रेस भी इससे बाहर नहीं है। प्रिंटर्स मैसूर बनाम असिस्टैण्ट कमिश्नर मामले में स्पष्ट कहा गया है कि प्रेस भी इस मानहानि कानून से बंधा हुआ है। इसके अलावा संविधान के 16वें संसोधन द्वारा यह स्थापित किया गया है कि आप भारत की एकता और अखंडता को चुनौती नहीं दे सकते। ”यानि यदि भारत और चीन का युद्घ चल रहा हो तो आपको “चीन के चेयरमेन हमारे चेयरमेन हैं” कहने से बलपूर्वक रोका जाएगा। हर बार आपको आतंकियों को मंच प्रदान करते हुए, उन्हें सम्मानित करते हुए, जनप्रतिनिधियों को अपमानित करते हुए, उनके विरूद्घ घृणा फैलाते हुए, नक्सलवाद का समर्थन करते हुए, अपने विज्ञापनों द्वारा ”कानून हाथ में लेने” का आह्वान करते हुए उपरोक्त का ख्याल रखना ही होगा। स्वैच्छिक या दंड के डर से आपको अपनी जुबान पर लगाम रखना ही होगा। मीठा-मीठा गप्प-गप्प करवा-करवा थू-थू नहीं चलेगा। संविधान के अनुच्छेद 19 (1) का रसास्वादन करते हुए आपको 19 (2) की ”दवा” लेनी ही होगी। आपको महात्मा गांधी के शब्द याद रखने ही होंगे कि ”आजादी का मतलब उच्छृंखलता नहीं है। आजादी का अर्थ है स्वैच्छिक संयम, अनुशासन और कानून के शासन को स्वेच्छा से स्वीकार करना।” आज अगर प्रदेश का मीडिया एक जुट हो ऐसे अभिव्यक्ति के दुकानदारों का बहिष्कार कर, उन्हें “स्वैच्छिक संयम और अनुशासन” का पाठ पढ़ा कर उनकी औकात बताने को उद्यत एवं मजबूर हुआ है तो इसे संविधान द्वारा आम आदमियों को प्रदत्त “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता” के अधिकार को कायम रखने का भ्रिहद प्रयास मान कर उसकी तारीफ़ की जानी चाहिए..बाकी हाथी चले बाज़ार, कुत्ता भुके हज़ार.

- इमरान हैदर

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