दरअसल, प्रोस्पेक्टस निजी स्कूलों के लिए कमाई का एक अहम जरिया बन गया है। इस बात की पुष्टि एसोचैम के एक अध्ययन ने भी की है। इस अध्ययन के मुताबिक 2000 से लेकर 2008 के बीच सिर्फ नर्सरी और प्राथमिक कक्षाओं में दाखिला के लिए दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के स्कूलों ने प्रोस्पेक्टस बेचकर पांच हजार करोड़ रुपए कमाए हैं। इस दौरान प्रोस्पेक्टस की बिक्री में तीन सौ फीसद का इजाफा हुआ। इस अध्ययन के आधार पर यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि निजी स्कूलों के लिए दाखिलों का मौसम आर्थिक दृष्टि से किस कदर खुशगवार होता है।
जहां अधिक से अधिक लाभ कमाना प्राथमिकता बन जाए वहां सामाजिक जिम्मेदारी की बात पीछे छूट जाती है। इसलिए अब निजी स्कूलों को एक व्यवसाय की तरह देखना ही ठीक होगा। बहरहाल, एसौचैम की रपट के मुताबिक दिल्ली के एक अभिभावक को अपने बच्चे के दाखिले के लिए औसतन तकरीबन पांच हजार रुपए का प्रोस्पेक्टस खरीदना पड़ता है। इसे इस तरह से समझा जा सकता है कि दाखिला तो एक ही स्कूल में मिलता है लेकिन फाॅर्म कई स्कूल का भरा जाता है।
हर शिक्षण संस्थान में सीटों की संख्या सीमित होती है लेकिन प्रोस्पेक्टस बेचने पर कोई पाबंदी नहीं है। हर निजी स्कूल जितना चाहे उतना प्रोस्पेक्टस बेच सकता है। बच्चे के दाखिले की चाह में अभिभावकों को कई स्कूलों का प्रोस्पेक्टस खरीदना पड़ता है। अध्ययन में यह बात उभर कर सामने आई है कि 2000 में निजी विद्यालय औसतन तीन सौ रुपए प्रोस्पेक्टस के नाम पर वसूल रहे थे। जबकि 2008 में यह बढ़कर हजार रुपए हो गया। यानी यह बढ़ोतरी तीन सौ फीसद से भी ज्यादा की है।
मालूम हो कि प्रोस्पेक्टस की इतनी ज्यादा कीमत तो कई उच्च शिक्षण संस्थानों में भी नहीं हैं। वैसे कहने को तो शिक्षा निदेशालय के एक आदेश में यह कहा गया है कि स्कूल सिर्फ पचीस रुपए पंजीयन फार्म के लिए वसूल सकते हैं। आम तौर पर होता यह है कि ये संस्थान कागजी तौर पर पंजीयन फार्म तो 25 रुपए में ही बेचते हैं लेकिन उसके साथ अभिभावकों के लिए प्रोस्पेक्टस खरीदना अनिवार्य बना देते हैं। प्रोस्पेक्टस के नाम पर चल रही अराजकता का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि कई स्कूल तो प्रोस्पेक्टस खरीदने वाले अभिभावकों को रसीद भी नहीं दे रहे हैं। यानी प्रोस्पेक्टस के नाम पर वसूले जा रहे पैसे का कहीं कोई आधिकारिक हिसाब नहीं है। इसलिए यह पैसा काले धन में तब्दील हो रहा है।
इस मसले पर सरकार या शिक्षा विभाग के तरफ से कोई कार्रवाई अब तक नहीं हुई है। दिल्ली के निजी स्कूलों के प्रति सरकार की हमदर्दी का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि दिल्ली स्कूल शिक्षा अधिनियम के तहत हर स्कूल की नियमित आॅडिटिंग अनिवार्य है लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है। इससे सरकार की भूमिका भी संदेह के घेरे में है। वैसे भी यह खबर बीच-बीच में आते ही रहती है कि कई निजी स्कूल को नेता ही चला रहे हैं। तो क्या इसका मतलब यह निकाला जाना चाहिए कि निजी शिक्षण संस्थानों द्वारा आम लोगों की लूट सरकारी शह के बूते हो रहा है। कम से कम दिल्ली के निजी स्कूलों की मनमानी को देखते हुए तो ऐसा ही लगता है।
निजी स्कूलों से होने वाली बेहतरीन आमदनी की वजह से देश के बड़े शहरों के साथ-साथ देश के ग्रामीण इलाकों तक में निजी स्कूल कुकुरमुत्ते की तरह उग आए हैं। इनकी संख्या दिनोंदिन बढ़ती ही जा रही है। हर साल फीस बढ़ाने और दाखिले के नाम पर बड़ी संख्या में प्रोस्पेक्टस बेचने के अलावा इन स्कूलों ने अपनी कमाई को बढ़ाने के कई रास्ते तलाश लिए हैं। परिवहन शुल्क के नाम पर भी अभिभावकों से मोटी रकम की वसूली की जा रही है। स्कूल प्रशासन का तर्क होता है कि यह पैसा तो पूरा का पूरा परिवहन के मद में ही खर्च हो जाता है। पर यह बात किसी से छिपी हुई नहीं है कि इसका एक हिस्सा स्कूल संचालकों के बैंक खाते में जमा रकम को भी बढ़ाने का काम करता है।
इसके अलावा पाठय पुस्तकों के जरिए पैसा कमाने का तो अपना एक अलग ही अर्थषास्त्र है। कई निजी स्कूलों ने तो बाकायदा अपने ब्रांड के पाठय पुस्तक अपने स्कूल में लागू कर रखा है। जिन्होंने ऐसा नहीं किया वो प्रकाशनों से मोटा कमीशन खाकर उनके पुस्तकों को अपने यहां लगा रहे हैं। इसके अलावा अपने स्कूल के लोगो वाले नोटबुक बेचना भी निजी स्कूलों के लिए कमाई का एक अहम जरिया है। जाहिर है कि इसमें सबसे ज्यादा नुकसान अभिभावक का ही होता है।
ऐसा भी नहीं है कि इससे सत्ता को संचालित करने वाले वाकिफ नहीं हैं। पर वे इन निजी स्कूलों के खिलाफ कोई भी कदम इसलिए नहीं उठा पाते कि उनके भी हित निजी स्कूलों के मनमानी में ही सधते हैं। ऐसे नेताओं की फेहरिस्त छोटी नहीं है जो निजी स्कूलों के कारोबार में हैं। ऐसे सियासतदान किसी एक राज्य या क्षेत्र में नहीं बल्कि पूरे देश में हैं। दरअसल, आज स्कूली शिक्षा का कारोबार मुनाफे और रसूख का ऐसा जरिया बन गया है कि इस व्यवसाय में उतरने का लोभ संवरण कर पाना आसान नहीं है।
सत्ता और व्यवस्था से इन स्कूलों को संरक्षण मिल रहा है। इसी वजह से निजी स्कूल किसी भी कायदे-कानून का पालन नहीं करते हुए भी शान के साथ अपना कारोबार चमका रहे हैं। इसे इस तरह से समझा जा सकता है कि दिल्ली में पब्लिक स्कूलों को बेहद कम दाम पर शहर के अहम स्थानों पर जमीन दी गई है। सरकार जब यह जमीन उन्हें दे रही थी तो उस वक्त यह तय हुआ था कि इसके बदले निजी स्कूल अपने यहां उपलब्ध सीटों में से एक निश्चित हिस्सा समाज के पिछडे़ तबके के विद्यार्थियों को देंगे। इस बाबत समय-समय पर खबरें आती रहती हैं। उन खबरों में हर बार इन स्कूलों की तरफ से इस मसले पर वादाखिलाफी की ही बात होती है। पर इसके बावजूद इन स्कूलों के खिलाफ व्यावहारिक तौर पर कोई ठोस कार्रवाई नहीं होती। हर बार बात आई-गई हो जाती है।
-इमरान हैदर
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