Wednesday, February 10, 2010

कविता : मेरी माँ …

आज फिर अल्लसुबह
उसी तुलसी के विरवा के पास
केले के झुरमुटों के नीचे
पीताम्बर ओढ़े वो औरत
नित्य की भांति
दियना जला रही थी !
मै मिचकती आँखों से
उसे देखने में रत था ,
वो साधना
वो योग
वो ध्यान
वो तपस्या,
उस देवी के दृढ संकल्प के आगे नतमस्तक थे !
वो नित्य अपनी प्रतिज्ञा पर अडिग थी
और मैं अनभिज्ञ
अपनी दलान से,
उसे मौन देखता था !
आखिर एक दिन मैंने अपना मौन व्रत तोड़ दिया
हठात पूछ पडा
यह सब क्या है…?
क्यों है?
उसने गले लगा कर कहा ,
सब तुम्हारे लिए
और यह तथ्य मेरे ज्ञानवृत्त के परे था !
किन्तु इतना सुनते ही
मेरा सर भी नत हो गया !
उस तुलसी के बिरवे पर नहीं ,
उस केले के झुरमुट पर नही
उस ज्योतिर्मय दियने पर भी नहीं ….
मेरा सर झुका और झुका ही रह गया
उस देवी के देव तुल्य चरणों पर !
उसके चिरकाल की तपस्या का फल ,
मुझे उसी पल मिलता नज़र आया
क्योंकि….
परहित में किसी को ,
कठोर साधना
घोर तपस्या
सर्वस्व न्योछावर करते प्रथम दृष्टया देखा था !
अपनी दिनचर्या के प्रति अडिग वो औरत
मेरी माँ थी …मेरी माँ !
उस अल्पायु में मै
माँ शब्द को बहुत ज्यादा नहीं जान पाया था ,
पर,
उस दिन के अल्प संवाद ने
माँ शब्द को परिभाषित किया
और मै संतुष्ट था !
मुझे माँ की व्याख्या नहीं परिभाषा की जरुरत थी
माँ की व्याख्या इतनी दुरूह है कि
मै समझ नहीं पाता !
पर मै संतुष्ट था
संतुष्ट हूँ !
नत था
आज भी नत हूँ !
उसके चरणों में
उसके वंदन में
उसके अभिनन्दन में
उसके आलिंगन में
उसके दुलार भरे चुम्बन में !!!!!

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