Tuesday, February 2, 2010

हम आह भी भरते हैं तो हो जाते हैं बदनाम, वो क़त्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होती

एक अटपटा सवाल आपसे पूछता हूँ, क्या आप ऐसा विमर्श पसंद करेंगे जिसमें मुद्दा यह हो कि बलात्कार होना चाहिए या नहीं? या बहस का विषय यह होगा कि बलात्कारियों की सजा मृत्युदंड हो या आजीवन कारावास? निश्चय ही आपका विकल्प दूसरा होगा। परंतु राष्ट्रीय कहे जाने वाले मीडिया विशेष के कुछ टुच्चे सदा इसी फिराक में उलझे रहते हैं कि नक्सलवाद को कैसे जस्टिफाई किया जाये या जिन कंधों पर उसके सफाये की जिम्मेदारी है या जिन स्थानीय कलमकारों ने अपने हाथों नक्सलियों को बेनकाब करने का बीड़ा उठाया है उसको कैसे बदनाम किया जाए। भले ही टूटता रहे जेल, होता रहे नरसंहार। इन्हें तो बस विमर्श और अपनी दुकानदारी से से मतलब है।

आज़ादी के आन्दोलन से लेकर देश के नवनिर्माण की प्रक्रिया में लोकतंत्र के साथ कदम से कदम मिला कर चलने की शानदार परंपरा वाले देश में कलम के कुछ दुकानदार इस तरह उच्छृंखल हो जाएंगे, विश्वास नहीं होता। सामान्य सी बात है, किसी भी विमर्श को जन्म देने का मतलब होता है कहीं न कहीं दोनों पक्ष को वैचारिक धरातल प्रदान करना। कहीं न कहीं उसे मान्यता प्रदान करना। और निश्चय ही उस प्रदेश में जहाँ आतंकियों ने लोगों का जीना हराम कर दिया हो, जहाँ खून की नदी बह रही हो वहाँ आप विमर्श करने बैठ जायें इसे कैसे बरदाश्त कर सकता है लोकतंत्र? ना केवल विमर्श करने बैठ जाए अपितु झूठ पर झूठ गढ़ कर नक्सलियों की गोली के आगे सीना तान कर खड़े चुनी हुई सरकार के साथ-साथ प्रादेशिक मीडिया के लोगों को बिकाऊ और दलाल कहने का दुस्साहस करें, क्यूकर आपके ऐसे जुबान को हलक से बाहर ना निकाल लिया जाय?

आज जब आजिज़ आ कर राजधानी के प्रेस क्लब ने ऐसे लफंगों का प्रवेश प्रतिबंधित कर दिया है तो कृपया इसकी पृष्ठभूमि को समझने का प्रयास कीजिये। क्या आपने कभी विरप्पन का कोई आलेख देश के किसी कोने में पढ़ा था। कभी खूनी जेहाद को वैचारिक आधार प्रदान करने वाला अफजल का कोई आलेख आपने किसी पत्रिका में देखा कभी? लेकिन ऐसा छत्तीसगढ़ में होता था। सदाशयता, भोलापन या अपरिपक्वतावश अपने लोगों की लाख आलोचना झेल कर भी प्रदेश के कुछ मीडिया समूह दुर्दांत नक्सलियों किसी कथित गुरूसा उसेंडी, किसी कोसा को ससम्मान जगह देते थे। और तो और ऐसे प्रतबंधित किये गए लोगों के आलेख का जबाब खुद प्रदेश का पुलिस महानिदेशक आलेख लिख-लिख कर देता था। जिसकी आलोचना इन पंक्तियों के लेखक समेत बहुत से लोगों ने की थी। यहाँ के अखबारों में इन अभागों के ऐसे-ऐसे आलेख छापते थे जिसमे भारी बहुमत से बार-बार चुनकर आने वाले किसी मुख्यमंत्री को ऐसा राक्षस बताया जाता था जो “मर भी नहीं रहा है” जबकि लोकतंत्र की हत्या करने को अपना ध्येय बताने वाले कथित ” गुरुसा उसेंडी” को “साहब” संबोधन देकर सलाम पहुचाया जाता था। नक्सलियों की मदद करने के आरोप में जेल में बंद और पकडे जाने पर जेल में ही मोबाइल सिम गटक जाने वाले सान्याल जैसे लोगों को “श्री” का आदरणीय संबोधन दिया जाता था।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का लिहाज़ कर जितना इन लोगों को प्रदेश का हर मंच इस्तेमाल करने दिया गया, ऐसा कोई उदाहरण आपको देश में दूसरा नहीं देखने को मिलेगा। क़ानून, लोकतंत्र और सभ्यता की कीमत पर भी किये जाने वाले किसी भी विमर्श में इतने से सवालों का जबाब भी नहीं दे पाए ये अभागे कि आखिर वो किस मांग के लिए अपना आन्दोलन चला रहे हैं और यहाँ के गरीब आदिवासियों ने उनका क्या बिगाड़ लिया है। लोकतंत्र के समर्थक बुद्धिजीवियों ने इस पर कई बार दबाव बना कर अभिव्यक्ति के इन लुटेरे सौदागरों की पड़ताल करना शुरू किया तो सच प्याज के छिलके की तरह परत-दर-परत उधारना शुरू हो गया। शुरुआत यहाँ से हुई कि “गुरुसा उसेंडी” जिसका परिचय नक्सलियों की कमिटी का प्रवक्ता कह कर दिया जाता था वो भिलाई के सुविधाजन फ्लैट में रहने वाला आन्ध्र प्रदेश का कोई “रेड्डी” निकला। इसी तरह नक्सलियों के पक्ष में लिखने वाले एक नियमित स्तंभकार के रिपोर्ट को क्रोस चेक किया गया तो उसकी दी हुई सभी जानकारी झूठ का पुलिंदा निकला। पता चला कि ढेर सारे आदिवासी उपनाम का इस्तेमाल कर और सरकारी गज़ट में आदिवासी गाँव का नाम खोज-खोज कर वह स्तंभकार अपनी रिपोर्ट ऐसे बनाता है जैसे हर जगह बीह्रों तक में वो उपस्थित रहा हो। इस तरह इनके पोल खुल जाने के बाद जब उनके हर रिपोर्ट को कम से कम राज्य में संदेह की नज़र से देखा जाने लगा, तो अपनी दुकानदारी इन्हें बंद होती महसूस हुई और फिर ऐसे लोग प्रदेश को बदनाम करने के लिए पिल पड़े। रायपुर के प्रेस क्लब में ऐसे उचक्कों के प्रवेश को प्रतिबंधित किये जाने की पृष्ठभूमि यह है। अन्यथा जैसे कि उपरोक्त उद्धरणों से आप समझ गए होंगे कि प्रचलित मान्यताओं से एक कदम आगे जा कर छत्तीसगढ़ ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के सम्मान हेतु खुद को आत्मार्पित किया है।

चीजें कई है, यदि उपरोक्त को छोड़ दिया जाय तो भी यह निश्चय के साथ कहा जा सकता है कि प्रदेश के समाचार माध्यमों ने बहुधा अपने सरोकारों में कई राष्ट्रीय कहे जाने वाले मीडिया को पीछे छोड़ दिया है। आप देखेंगे कि देश के किसी अन्य जगह आतंकी हमला होने पर सारे दृश्य-श्रव्य मीडिया का दिन भर का विषय वही रहता है लेकिन बस्तर में 50 निरीह मार दिये जायें तो सभी राष्ट्रीय चैनल एक कोने या ज्यादे-से-ज्यादा डेढ़ मिनट का पैकेज देकर छुट्टी पा जाते हैं या कई बार दिल्ली में किसी लड़की का आत्महत्या करना भी छत्तीसगढ़ के दर्ज़नों जवानों की शहादत पर भारी पड़ जाता है। तो राष्ट्रीय मीडिया की बात वे लोग जाने किन्तु कुछ उपरोक्त वर्णित उच्छृंखल समूहों से ज्यादा उपलब्धियों भरा रहा है प्रदेश के माध्यमों का सफ़र। बात-बात में शुरू किये गये छत्तीसगढ़ी भाषा का दोस्ताना आंदोलन एक उदाहरण हैं जिसमें कमोवेश सभी अखबारों ने जनमानस को स्वर दिया और यह मीडिया का ही साफल्य कहा जाएगा कि इतनी आसानी से छत्तीसगढज़नों को अपना प्राप्य प्राप्त हो सका। इसी तरह शासन की विभिन्न जनकल्याणकारी योजनाओं को लोगों तक पहुंचाने में भी अखबारों की भूमिका उल्लेखनीय रही है और इसमें भी खासकर छोटे-छोटे एवं आंचलिक अखबारों की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। इसके अलावा सरकार के किसी घपले-घोटाले को भी उजागर कर यहाँ के मीडिया ने लोकतंत्र को मज़बूत किया है। यहाँ के एक छोटे से अखबार ने “धान घोटाले” का उद्भेदन कर सरकार की नाक में दम कर दिया था।

तो अभी भी कम से कम छत्तीसगढ़ का मीडिया ख़बरों की चूहा-दौड़ में शामिल होने से बहुत हद तक बचा हुआ है। मोटे तौर पर हम प्रदेश के ऐसे समाचार माध्यम की कल्पना करते हैं जो मानवाधिकारवादियों की आंख में आंख डाल के पूछ सके कि क्यूँ भाई केवल मुट्ठी भर नक्सलियों का ही मानवाधिकार है? रानीबोदली के दर्जनों पुलिसवाले या एर्राबोर की बच्ची ज्योति कुट्टयम को जीने का अधिकार नहीं? जाब्बाज़ पुलिस अधिकारी विनोद चौबे समेत मदनबाड़ा में शहीद हुए उन ३० पुलिस जवानो को जीने का अधिकार ज्यादा था या गुरुसा उसेंडी का? वो माओवादियों से साहस के साथ सवाल पूछे कि लोकतंत्र से उतनी ही नफरत है तो नेपाल में क्यूँ लोकतंत्र के लिए लड़ रहे थे? वामपंथियों से पूछे कि नंदीग्राम में नक्सली का बहाना कर लोगों को मार रहे हो तो बस्तरों में क्यूँ उनका मनोबल बढ़ाने पहुंच जाते हो? गुरूदास दासगुप्ता से पूछे कि भाई सिंगुर में टाटा सही है तो बस्तर में कैसे गलत हो गया? अपने भाई बंधुओं, पत्रकारों से भी पूछे कि विज्ञापनदाताओं का पैसा इसलिए है कि आप नराधमों का महिमा मंडन करें? और हाँ सरकार से भी बार-बार इस बात को पूछने का साहस करें कि क्या आपने जनता से किये अपने संकल्पों को पूरा किया? नेपोलियन कहा करता था हजारों फौज से मुझे कोई डर नहीं लगता, लेकिन एक ईमानदार पत्रकार को देखकर मेरी घिग्घी बंध जाती है। अपने ही बिरादरी के कहे जाने वाले कुछ नराधमों के खिलाफ खड़े होकर प्रदेश के मीडिया ने ऐसे ही इमानदारी का परिचय दिया है

-इमरान हैदर


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