विश्व की समस्त नदियों में पवित्रतम है गंगा। यह वर्ष हरिद्वार में पूर्ण कुंभ का वर्ष है। लाखों भक्त अब तक गंगा में स्नान कर पुण्य कमा चुके हैं और करोड़ों अभी और पहुंचेंगे। प्रति 12 साल बाद होने वाला यह पर्व अनुपम है और अद्भुत भी। जहां एक ओर तीर्थों में श्रद्धालुओं की बढ़ती संख्या देखकर मन उत्साहित होता है, वहीं कुछ लोगों का व्यवहार और पर्यावरण पर बढ़ते दबाव को देखकर मन भावी की आशंका से भयभीत हो उठता है। इसके लिए आवश्यक है कि तीर्थयात्रा को धर्मभावना से पूरा किया जाये, पर्यटन के लिए नहीं।
तीर्थयात्रा और पर्यटन का उद्देश्य भिन्न है। पर्यटन में भोग-भाव प्रमुख रहता है। इसलिए पयर्टन स्थलों पर लोग होटल, जुआघर, नाचघर, सिनेमा हॉल, पार्क आदि की मांग करते हैं। अनेक पर्यटन स्थल हिमालय की सुरम्य पहाड़ियों में स्थित हैं। अनेक नये पर्यटन स्थल भी बनाये जा रहे हैं। यहां करोड़ों रुपए खर्च कर नकली झरने, पहाड़ियां, बर्फ आदि के दृश्य बनाये जाते हैं। लोग मनोरंजन के लिए यहां आते हैं। अतः उन्हें सुविधाएं मिलें; पर तीर्थों का वातावरण एकदम अलग होना चाहिए। तीर्थ में लोग पुण्यलाभ के लिए आते हैं। अतः यहां धर्मशाला, मंदिर, सत्संग भवन, सामान्य भोजन व आवास की व्यवस्था, स्ान-ध्यान का उचित प्रबंध आदि होना चाहिए। यदि कोई दान देना चाहे तो उसका पैसा ठीक हाथों में जाए। तीर्थयात्रा में कष्ट होने पर लोग बुरा नहीं मानते; पर उनके साथ दुर्व्यवहार न हो, यह भी आवश्यक है। इन दिनों तीर्थयात्रा और पर्यटन में घालमेल होने के कारण वातावरण बदल रहा है। इसके लिए शासन-प्रशासन के साथ-साथ हिन्दू समाज भी कम दोषी नहीं हैं।
आज से 20-25 साल पहले तक दुर्गम तीर्थों पर जाने के लिए सड़कें नहीं थीं, लोग पैदल यात्रा करते थे। वहाँ के ग्रामीण यात्रियों का अपने घरों में रुकने और भोजन का प्रबंध करते थे। रात में बैठकर सब लोग अपने अनुभव बांटते थे। इससे तीर्थयात्रियों को उस क्षेत्र की भाषा-बोली, खानपान, रीति-रिवाज आदि की जानकारी होती थी। गांव वालों को भी देश में यत्र-तत्र हो रही हलचलों का पता लगता था। इसीलिए यात्रा के अनुभव को जीवन का सर्वश्रेष्ठ अनुभव माना जाता था। यात्री आगे बढ़ते समय कुछ पैसे वहां देकर ही जाते थे। इस प्रकार तीर्थयात्रियों के माध्यम से इन गांवों की अर्थव्यवस्था भी संभली रहती थी। पर अब सड़कों के जाल और मारुति कल्चर ने यात्रा को सुगम बना दिया है। इससे यात्रियों की संख्या बहुत बढ़ी ह, पर इसके साथ जो प्रदूषण वहां पहुंच रहा है, वह भी चिंताजनक है। आज से 20 साल पहले कुछ हजार तीर्थयात्री ही गोमुख जाते थे, पर इन दिनों कांवड़ यात्रा का प्रचलन पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बहुत तेजी से बढ़ा है। पहले लोग हरिद्वार से ही जल लाते थे, पर अब गंगोत्री और गोमुख से जल लाने की होड़ लगी है। इस कारण अषाढ़ और श्रावण मास में गोमुख जाने वालों की संख्या एक लाख तक पहुंचने लगी है। उन दिनों गोमुख के संकरे मार्ग पर मेला सा लग जाता है। इस संख्या का दबाव वह क्षेत्र झेल नहीं पा रहा है। भोजवासा के जंगल से भोज के वृक्ष गायब हो गये हैं। सब ओर बोतलें, पान मसाले के पाउच और न जाने क्या-क्या बिखरा रहता है। यात्री तो जल लेकर चले जाते हैं; पर कूड़ा वहीं रह जाता है। सर्दी के कारण वह नष्ट भी नहीं होता। अतः इसने स्थानीय लोगों का जीना दूभर कर दिया है।
अनेक धर्मप्रेमी संस्थाएं गोमुख, तपोवन, नंदनवन, जिनमें दिन-रात विद्युत जनरेटर चलते हैं। इससे ग्लेशियर सिकुड़ रहे हैं। उस क्षेत्र के निवासियों तथा सर्वेक्षण के लिए प्रायः जाने वालों का कहना है कि ऐसे तो कुछ साल बाद गंगा में पानी ही रुक जाएगा। फिर टिहरी बांध में बिजली कैसे बनेगी और हरिद्वार में लोग स्ान कैसे करेंगे? इस चिंता को केवल शासन-प्रशासन पर छोड़ने से काम नहीं चलेगा। इस पर सभी धार्मिक और सामाजिक संगठनों को भी विचार करना होगा। अमरनाथ की यात्रा पहले आषाढ़ पूर्णिमा से श्रावण पूर्णिमा तक चलती थी, पर अब इसकी अवधि भी दो मास हो गयी है। इससे भी समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं। शिवलिंग से छेड़छाड़ और उसके पिघलने के समाचार कुछ साल पहले आये थे। तीर्थयात्रियों (या पर्यटकों) के लिए जब मैदान जैसी पंचतारा सुविधाएं वहां जुटाई जाएंगी, तो यह सब होगा ही। अब तो हजारों लोग अधिकृत रूप से यात्रा शुरू होने से पहले ही वहां पहुंच जाते हैं। चार वर्ष पूर्व अंतरराष्ट्रीय ख्याति के एक कथावाचक ने 600 शिष्यों के साथ सात दिन पूर्व वहां पहुंच कर कथा सुनाई। उनके अधिकांश शिष्य अति संपन्न गुजराती हैं। वे उड़नखटोले से वहां गये। उनके लिए भारी विद्युत जनरेटरों की सहायता से सुविधापूर्ण कुटिया, पंडाल और भोजनालय बनाये गये। इन्हें कितना पुण्य मिला, यह कहना तो कठिन है, पर इन्होंने पर्यावरण की कितनी हानि की, यह किसी से छिपा नहीं रहा।
यात्रा मार्ग पर लोग धर्म भावना से प्रेरित होकर भंडारे और सेवा केंद्र चलाते हैं। उनकी भावना सराहनीय ह, पर इसके हानि-लाभ पर खुले मन से विचार आवश्यक है। अब उत्तरांचल के तीर्थ भी सारे साल या फिर कुछ अधिक समय तक खुले रहें, यह प्रयास हो रहा है। किसी भी निर्णय से पूर्व इस पर निष्पक्ष भाव से धार्मिक नेता, वैज्ञानिक और पर्यावरणविदों को विचार करना चाहिए। इसका यह अर्थ नहीं है कि इन दुर्गम तीर्थ और धामों तक सड़कें न पहुंचें। सड़कों के कारण हजारों ऐसे लोग भी यात्रा कर लेते हैं, जो आयु की अधिकता या अस्वस्थता के कारण पैदल नहीं चल पाते। फिर भी पैदल या कष्ट उठाकर तीर्थयात्रा करने का महत्त्व अधिक है। अतः शासन को चाहिए कि वह सड़कों की तरह पैदल पथों का भी विकास करे और लोगों को पैदल यात्रा के लिए प्रेरित करे। युवा एवं सक्षम लोग बस, कार या उड़नखटोले की बजाय पैदल ही जाएं। भले ही जीवन में किसी तीर्थ पर एक बार जायें, पर जायें पूरी श्रध्दा के साथ। उसे एक दिवसीय फटाफट क्रिकेट न समझें। पर अभी का परिदृश्य तो दूसरा ही है। उत्तरांचल के तीर्थस्थानों के बारे में मेरा प्रत्यक्ष अनुभव है कि दिल्ली, मुंबई, कोलकाता के व्यापारी करोड़ों रुपए खर्च कर होटल बंना रहे हैं। इनमें कोक, पैप्सी, पिज्जा और बर्गर तो मिलते हैं, पर पहाड़ में बहुतायत से पैदा होने वाले मक्का, मडुए, कोदू आदि मोटे और गरम अन्न की रोटी या गहत और राजमां की दाल नहीं मिलती। इसीलिए इनमें पर्यटन प्रेमी सम्पन्न लोग रुकते हैं, तीर्थयात्री नहीं। इस बारे में भारत और विदेशों की सोच भिन्न है। पश्चिमी देशों में देवी-देवता और अवतारों की कल्पना नहीं है। वहां का इतिहास भी दो-तीन हजार साल से पुराना नहीं है। लोग ईसा मसीह को मानते हैं या मोहम्मद को। इनसे संबंधित स्थान चार-छह ही हैं; पर भारत में लाखों सालों का इतिहास उपलब्ध है। हिन्दू धर्म के अंतर्गत सैकड़ों पंथ और संप्रदाय हैं। सबके अलग तीर्थ और धाम हैं। सामान्य हिन्दू सबके प्रति श्रध्दा रखता है। भारत का शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र हो, जहां किसी संत या महापुरुष ने धर्म प्रचार न किया हो। इसलिए पूरी भारत भूमि ही पवित्र और पूज्य है।
पहले भारत में लोग गृहस्थाश्रम की जिम्मेदारियों से मुक्त होकर प्रायः समूह में तीर्थयात्रा पर जाते थे और लौटकर पूरे गांव को भोज देकर खुशी मनाते थे। तभी सबको पता लगता था कि जितने लोग गये थे, उनमें से कुछ राह में ही भगवान को प्यारे हो गये। इस प्रकार तीर्थाटन मानव जीवन का उत्सव बन जाता था। कुछ लोग बड़े गर्व से बताते हैं कि वे 50 बार वैष्णोदेवी हो आये हैं या वे हर साल अमरनाथ जाते हैं। क्या ही अच्छा हो कि ये लोग भारत के अन्य तीर्थों पर भी जाएं। देश में चार धाम, 12 ज्योतिलिंग, 52 शक्तिपीठ और उनकी सैकड़ों उपपीठ हैं। सिख गुरुओं के सान्निध्य से पवित्र हुए सैकड़ों गुरुद्वारे हैं। देश-धर्म की रक्षार्थ सर्वस्व होम करने वाले शिवाजी, प्रताप, छत्रसाल से लेकर हरिहर और बुक्का जैसे वीरों के जन्म स्थान हैं। अंग्रेजों के विरुध्द संघर्ष करने वाले नानासाहब और लक्ष्मीबाई से लेकर भगतसिंह और चन्द्रशेखर आजाद जैसे क्रांतिवीरों के जन्म और बलिदान स्थल भी किसी तीर्थ से कम नहीं हैं। सपरिवार वहां जाने से नयी पीढ़ी में देशप्रेम जाग्रत होगा। क्या ही अच्छा हो यदि सामर्थ्यवान लोग हर बार किसी एक प्रदेश का विस्तृत भ्रमण करें। इससे पुण्य के साथ ही इतिहासबोध और देशदर्शन जैसे लाभ भी मिलेंगे।
यदि लोग तीर्थयात्रा का मर्म समझें, तो वे इस दौरान शराब, मांसाहार आदि से दूर रहेंगे। मन शुध्द होने से मार्ग में झगड़ा-झंझट या चोरी का भय भी नहीं रहेगा। यदि कुछ कष्ट हुआ तो उसे प्रभु का प्रसाद मान कर स्वीकार करेंगे। इससे यात्रा में खर्च भी कम होगा और उसका लाभ स्थानीय ग्रामीणों को मिलेगा। व्यक्ति के जीवन में तीर्थयात्रा और पर्यटन दोनों आवश्यक हैं, पर इनके महत्व की ठीक कल्पना रहने से हमारे मन के साथ-साथ तीर्थस्थान भी सुरक्षित और साफ रह सकेंगे।
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