Wednesday, February 10, 2010

कविता : मेरी माँ …

आज फिर अल्लसुबह
उसी तुलसी के विरवा के पास
केले के झुरमुटों के नीचे
पीताम्बर ओढ़े वो औरत
नित्य की भांति
दियना जला रही थी !
मै मिचकती आँखों से
उसे देखने में रत था ,
वो साधना
वो योग
वो ध्यान
वो तपस्या,
उस देवी के दृढ संकल्प के आगे नतमस्तक थे !
वो नित्य अपनी प्रतिज्ञा पर अडिग थी
और मैं अनभिज्ञ
अपनी दलान से,
उसे मौन देखता था !
आखिर एक दिन मैंने अपना मौन व्रत तोड़ दिया
हठात पूछ पडा
यह सब क्या है…?
क्यों है?
उसने गले लगा कर कहा ,
सब तुम्हारे लिए
और यह तथ्य मेरे ज्ञानवृत्त के परे था !
किन्तु इतना सुनते ही
मेरा सर भी नत हो गया !
उस तुलसी के बिरवे पर नहीं ,
उस केले के झुरमुट पर नही
उस ज्योतिर्मय दियने पर भी नहीं ….
मेरा सर झुका और झुका ही रह गया
उस देवी के देव तुल्य चरणों पर !
उसके चिरकाल की तपस्या का फल ,
मुझे उसी पल मिलता नज़र आया
क्योंकि….
परहित में किसी को ,
कठोर साधना
घोर तपस्या
सर्वस्व न्योछावर करते प्रथम दृष्टया देखा था !
अपनी दिनचर्या के प्रति अडिग वो औरत
मेरी माँ थी …मेरी माँ !
उस अल्पायु में मै
माँ शब्द को बहुत ज्यादा नहीं जान पाया था ,
पर,
उस दिन के अल्प संवाद ने
माँ शब्द को परिभाषित किया
और मै संतुष्ट था !
मुझे माँ की व्याख्या नहीं परिभाषा की जरुरत थी
माँ की व्याख्या इतनी दुरूह है कि
मै समझ नहीं पाता !
पर मै संतुष्ट था
संतुष्ट हूँ !
नत था
आज भी नत हूँ !
उसके चरणों में
उसके वंदन में
उसके अभिनन्दन में
उसके आलिंगन में
उसके दुलार भरे चुम्बन में !!!!!

मध्य प्रदेश में महिलाओं की स्थिति

राज्‍य में इन दिनों प्रशासन प्रदेश में महिलाओं सुदृढ़ स्थिति को लेकर फुले नहीं समा रहा है। राज्य सरकार का मानना है कि प्रदेश में महिलाओं की दयनीय हालत में सुधार हुआ है। विगत विधान सभा से लेकर पंचायत चुनावों तक महिलाए सशक्त रूप से सामने आई है, किन इस महिमा मंड़न के बाद भी प्रदेश में महिलाओं के साथ क्या-क्या हो रहा है यह बात किसी से छुपी नहीं है। प्रदेश में महिलाओं को प्रोत्साहित करने के लिए ना कितने तरह से प्रयास किये जा रहे हैं लेकिन बावजूद इसके हालात अब भी चिंताजनक ही हैं।
राजनीतिक स्थिति और हकीकत
शासन का दावा है कि प्रदेश में महिलाओं के मौजूदा हालातों में सुधार हुआ है महिलाओं को पुरूषों के बराबर का स्थान मिला है पर कितना। प्रशासन की कहना है कि इस समय प्रदेश में एक लाख अस्सी हजार महिला पंच हैं, ग्यारह हजार पांच सौ बीस महिला सरपंच हैं, तीन हजार चार सौ महिला जनपद सदस्य हैं, चार सौ पंद्रह महिला जिला पंचायत सदस्य हैं, पांच सौ छप्पन जनपदों और पच्चीस जिला पंचायतों में महिला अध्यक्ष हैं, एक हजार सात सौ अस्सी महिला पार्षद हैं, पन्चानवे नगर पंचायत में महिला अध्यक्ष हैं, बत्तीस नगर पालिका में महिला अध्यक्ष हैं, आठ नगर निगमों में महिला महापौर हैं, ये आंकड़े हैं राज्य भर में महिलाओं की राजनीतिक स्थिति के, यानी की प्रदेश की कुल 6 करोड़ की आबादी मे महिलाओं की जनसंख्या 2.5 करोड के आसपास हैं इस पूरी जनसंख्या में 3 करोड़ से भी ज्यादा पुरूष हैं। ऐसे में सिर्फ उंगलियों की संख्या में गिनी जाने वाली महिलाओं की इस उपलब्धता पर किसे गर्व करना चाहिए। 6 करोड़ आबादी वाले इस प्रदेश में महिलाएं आज भी हाशिये पर हैं। इनके पास आज भी इनकी आंखों में आंसुओं के आलवा कुछ भी नहीं है। शिवराज द्वारा घोषित महिला नीति का अभी तक क्रियान्वयन नहीं हुआ। प्रदेश सरकार भले ही यह कहकर हल्ला मचा रही है कि राज्य में महिलाओं को पुरूषों के बराबर हक दिया गया है तो खुद शिवराज की सरकार में महिलाओं की कितनी पहुंच है इसका जीता जागता प्रमाण भी है कि 230 सदस्यों वाली विधानसभा में कुल 25 महिलाएं विधायक हैं, सिर्फ दो महिलाएं ही मंत्रिमंडल में जगह पा सकीं एक हैं कैबिनेट मंत्री अर्चना चिटनीस हैं तो दूसरी स्वतंत्र प्रभार राज्य मंत्री रंजना बघेल हैं। शिवराज सिंह चौहान के दूसरी बार मुख्यमंत्री बनने के बाद होने वाले पहले विस्तार को लेकर महिला विधायक अपनी बारी का इंतजार कर रहीं थीं मगर ऐसा नहीं हुआ।
अत्याचार और महिलाएं
यानी कहा जाये कि शासन के आकंड़े सिर्फ दिखावे के लिए हैं तो कोई ज्यादती नहीं होगी। ये बात रही महिलाओं की राजनीतिक पोजिशन की। लेकिन इन सबसे दूर समाज की एक और हकीकत है जहां आज भी महिलाओं पर अत्याचार बदस्तूर जारी हैं। ख़ुद को घुटन से आजादी दिलाने में लगी महिलाओं ने जब भी अपने लिए आवाज उठाई हैं उन्हें इस पुरूष प्रधान समाज में अगर कुछ मिला है तो सिर्फ यातना और कुछ नहीं। हालातों को चाहे जैसे दिखाया जाये लेकिन राज्य भर में महिला उत्पीड़न के मामले बढ़ते जा रहे हैं। प्रदेश सरकार भले अपने 5 सालों के आंकड़ों पर गर्व से सीना ठोंक रही हो लेकिन पिछले एक साल के आंकड़े ही इस पूरे महिमा मंड़न का मिथक तोड़ रहैं हैं। आज भी महिलाएं समाज के ठेकेदारों के लिए सिर्फ अपने रौब को जमाने का माध्यम मात्र हैं। इसकी जीती जागती मिसाल है ये आंकड़े। देश में महिलाओं के साथ बलात्कार के मामलों में तीस प्रतिशत बढ़ोतरी हुई है। इसमें मध्यप्रदेश पहले नंबर है। भाजपा की प्रदेश में सरकार बनने से लेकर अब 13 हजार से भी ज्यादा महिलाओं के साथ बलात्कार की घटना घटी हैं। धार जिले में दो महिलाओं को बुरी तरह पीटा गया और उनके मुंह पर कालिख पोतकर उन्हें निर्वस्त्र किया गया। प्रदेश में आदिवासी, दलित एवं नाबालिक युवतियां बड़ी संख्या में बलात्कार की शिकार हुई हैं। शिवपुरी जिले के पिछोर थाना एक मां अपनी सामाजिक प्रताड़ना से तंग आकर तीन बेटियों के साथ आत्महत्या कर लेती हैं। सिर्फ इतना ही नही ये आंकड़े तो उन जगहों के हैं जहां पर महिलाओं का शोषण कोई नयी बात नहीं हैं,लेकिन एक और पहलू है जहां पर महिलाएं की सुरक्षा खुद कई सवाल खड़े करती है। जी हां मैं बातकर रहा हूं पुलिस महकमे की। प्रदेश में ऐसे कई घटनाएं हैं जिन्होंने कानून को भी दीगर शोषणकर्ताओं के साथ लाकर खड़ा कर दिया है। कानून के ठेकेदार आज खुद ही महिलाओं के दलाल बन गये हैं। प्रदेश में ऐसे कई मामले हैं जिनसे वर्दी भी दागदार हुई है। बालाघाट जेल में 15 फरवरी 05 की रात 9 बजे एक जेल अधिकारी ने महिला वार्ड खुलवाकर महिला बन्दियों के साथ बलात्कार किया। आमला थाने में एक दलित महिला के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया। नीमच में 20 अक्टूबर 07 को 15 वर्षीय बालिका के साथ 5 युवकों ने बलात्कार किया और विरोध करने पर भरी पंचायत में बालिका के परिवार को अपमान सहना पड़ा। इन आकंड़ों पर तो कोई भी कह सकता है कि पुरानी बात है लेकिन मैं आपको बता कि जनवरी 2009 से जनवरी 2010 तक आंकडे किसी की भी आंखें खोलने के लिए पर्याप्त होंगे। इस एक साल के महिलाओं पर हुए आत्याचारों पर नज़र ड़ाली जाये तो इस समय सीमा में पूरे प्रदेश के 17 जिलों में महिलाओं केसाथ बलात्कार के 755, हत्या के 110, हत्या के प्रयास के 147, दहेज से मौत के 248 और अपहरण के 220 मामले सामने आये हैं। इनमें बलात्कार के सबसे ज्यादा मामलों में बैतूल 130 खंडवा 70 राजगढ़ में 67 और छ्त्तरपुर में 64 मामले दर्ज किये गये हैं। ये तो वे आकंड़े हैं जो पुलिस रिकार्ड़ में दर्ज हैं। इनके आलावा ना जाने और ऐसे कितने अमानवीय कृत्य हैं जिनकी सच्चाई सामाजिक बंधनों और ड़र की वज़ह से सामने नहीं आ पाये।
प्रशासन की योजनाएं और महिलाएं
यह अलग बात है कि शासन हर स्तर पर महिलाओं के लिए शासकीय योजनाओं का ठीठोंरा तो पीटती रहती है। महिलाओं के हितों में काम करने के लिए शासन के कई विभाग बना दिये गये हैं। कई योजनाएं क्रियान्वित की गई लेकिन हालात आज भी हैं। समाचार पत्रों और बड़े-बड़े आयोजनों के माधयम से मध्‍यप्रदेश में महिला सशक्तिकरण की मुनादी भले ही की जा रही है। पूर्व से संचालित परिवार परामर्श केन्द्रों की तरफ शासन का धयान शायद हट सा गया है इनके कर्मचारियों को वेतन तक नहीं दिया जा रहा है। यह परिवार परामर्श केन्द्र बंद होने की स्थिति में आज खड़े हैं। यही हाल महिला परामर्श केन्द्रों का भी है वहाँ भी शिशु-बालिका भ्रूण हत्या को प्रदेश सरकार ने कठोर अपराधों की श्रेणी में रखा है। लेकिन पिछले कई वर्षों में एक भी प्रकरण इसके अंतर्गत पंजीबध्द नहीं किया। इसी प्रकार भ्रूण हत्या की जानकारी देने वाले व्यक्ति की 10 हजार रुपये का इनाम देने की घोषणा इस सरकार ने की थी, किंतु पिछले वर्षों से किसी को भी यह ईनाम नहीं बांटा गया। इस बात बिल्कुल इंकार नहीं किया जा सकता कि भारत के 14 जिलों में से मधयप्रदेश के भिण्ड और मुरैना में सर्वाधिक भ्रूण हत्याऐं होती हैं। महिलाओं के लिये संचालित अनेक योजनाएँ भ्रष्टाचार से अछुती नहीं है। आंगनवाड़ी कार्यकर्ता, सहायिका पर्यवेक्षक, आदि की नियुक्ति में जमकर भ्रष्टाचार हुआ है। साइकिल घोटाला, जननी सुरक्षा योजना, पोषण आहार, गरीबी रेखा, राशन कार्ड में धांधाली, पेंशन, नर्सिंग, कन्यादान योजनान्तर्गत दहेज खरीदी, लाड़ली लक्ष्मी योजना, अन्न प्राशन योजना, गोद भराई आदि योजनाएँ मात्र विज्ञापन और कागजों पर ही फलफूल रही हैं।मुख्य मंत्री कन्यादान योजना के अंतर्गत शहडोल जिलें में जिस तरह से महिलाओं के साथ कोमोर्य परीक्षण का मामला हमारे सामने है। बावजूद इसके शासन का यह दावा कि प्रदेश में महिलाएं सुरक्षित, समृद्ध और सशक्त हैं किसी आलिफ लैला की कहानियों से कम दिलचस्प नहीं है।

बस! अब बहुत! हो गया! -डॉ0 प्रवीण तोगड़िया

हिंदू संस्‍कृति पर ‘हमलावरों’ का करें आर्थिक बहिष्‍कार
IPL Logo 350x273 बस! अब बहुत! हो गया!  डॉ0 प्रवीण तोगड़ियापाकिस्तानी क्रिकेटरों को आईपीएल क्रिकेट के लिए किसी ने नहीं खरीदा। बड़े नाटकीय ढंग से ‘सेक्युलर’ समूह तथा पत्रकारों ने इसका भी दोष भारतीयों पर मढ़ना शुरु कर ही दिया था कि आईपीएल की कंपनियों के मालिकों ने स्पष्ट भूमिका ली और कह दिया कि आखिर यह हमारे पैसे और देश की सुरक्षा का प्रश्न है। एक खेल समीक्षक ने एक तथाकथित ‘सेक्युलर’ चैनल पर यहां तक कह डाला, ‘क्या आज कोई पत्रकार या पाकिस्तानी सरकार या पाकिस्तानी क्रिकेटर यह ‘गारण्टी दे सकते हैं कि आईपीएल खेलों के दौरान पाकिस्तानी आतंकवादी फिर से 26/11 जैसा हमला नहीं करेंगे? ऐसा होता है तो क्या पाकिस्तानी क्रिकेटरों को यहां कोई आने देगा?’ और अब पाकिस्तान भारत को धमकियां देता है! प्रश्न केवल खेल का नहीं है।
आजकल भारत में विशेषत: भारत के ‘हाईक्लास’ ‘सो कॉल्ड इलिट्स’ में फैशन हो गयी है कि जो भी पाकिस्तानी खेल-खिलाड़ी, कला-कलाकार, वस्त्र-परिधान, व्यंजन-खाना, सिरैमिक के बर्तन, कपास, बासमती, पीओके से ‘स्मगल’ होकर जम्मू-कश्मीर में आनेवाली गंदी सस्ती दाल इन सबको अपनाए। यह फैशन स्वयं को ‘सेक्युलर’ दिखाने की होड़ का हिस्सा है। पाकिस्तान से आ-आकर गजल गानेवाले गुलाम अली हो या गला फाड़कर चिल्लाकर ‘सूफी’ गानेवाले नुसरत फतेह अली खाँ (अब मृत) हो-अब उनका पुत्र राहत फतेह अली खाँ हो या सूफी गानेवाली पाकिस्तानी महिलाएं हों-इन सबके रंगारंग कार्यक्रम-’महफिल’ उनकी स्टाइल में-दिल्ली, मुंबई जैसी जगहों पर होती रहती हैं।
पिछले वर्ष भारत की एक शास्त्रीय गायिका को पाकिस्तान ने व्हिसा तक नहीं दिया था और अब ये सब ‘अमन की आशा’ नाम का षड्यन्त्र पाकिस्तानी वृत्तपत्र ‘जंग’ के साथ मिलकर चला रहे हैं। बड़ी-बड़ी बातें, लंबे-चौड़े विज्ञापन दे-देकर ‘अमन की आशा’ वाले घूम रहे हैं। जो पाकिस्तान हमारे भारत का हरा-भरा चमन उजाड़ने पर तुला है, उस पाकिस्तान के साथ ‘अमन की आशा’ का ‘मार्केट’ चलाने वाले देश के साथ गंभीर खिलवाड़ कर रहे हैं। वहाँ पाकिस्तान के सुरक्षा प्रधान भारत को धमकियां दे रहे हैं- ‘अगर पाकिस्तानी क्रिकेटरों को नहीं लिया गया तो हम भी देख लेंगे’, यहां हमारे सुरक्षा मंत्री लगातार कह रहे हैं, ‘पाकिस्तान से आतंकियों की बड़ी फौज यहां आयी है।’ फिर भी अमन की आशा की नौटंकी ये फैंसी सेक्यूलरिस्ट कर रहे हैं।
देश की सुरक्षा सर्वोपरि है, यह आम आदमी समझता है। हमारी सेना, पुलिस के जवान भी यह समझते हैं। परन्तु कुछ फैशनवाले सेक्यूलर समझकर भी ‘अमन की आशा’ जैसा सामाजिक-आर्थिक-राजकीय (Socio-Economic-Political) षड्यन्त्र चलाते हैं। इनमें से भी कुछ महनीय कलाकार सहृदय हैं, शायद उन्हें ऐसी योजनाओं के पीछे की गंभीर सच्चाई की जानकारी भी नहीं होगी। इसलिए हृदय में मधुर संबंधों की सच्ची आशा लिए वे भी कुछ दांभिक (ढोंगी) देशप्रेमियों के साथ जुड़ जाते हैं और फंसते हैं। अधिकांश भारतीय कलाकार बहुधा इनसे दूर ही रहते हैं।
‘कला के लिए कला’ या जीवन समाज के लिए कला यह विवाद वर्षों से चला आ रहा है। इस चर्चा का यह स्थान नहीं और आज वह समय भी नहीं। परन्तु यह प्रश्न अवश्य है कि क्या केवल पाकिस्तानी, मुस्लिम कलाकारों, खिलाड़ियों, फिल्म वालों को ही ‘वाणी, उच्चार, विचार, आचार स्वातन्त्र्य’ प्राप्त है? और वह भी भारत में? कोई हिन्दू या डच कलाकार मोहम्मद पैगम्बर का कार्टून बनाता है तो इनकी भावनाएं तिलमिलाने लगती हैं, जब मकबूल फिदा हुसैन दुर्गा मां और भारत माता का (एक जैसा दिखनेवाला !) नंगा चित्र बनाता है, तब ही इनको सब स्वातन्त्र्य याद आते हैं? पाकिस्तानियों और मुसलमानों के लिए रो-रो कर, चिल्ला-चिल्ला कर बोलने वाले ये सेक्युलर फैन्सीज तब कहां चले जाते हैं, जब पाकिस्तानी फिल्मकार, एक्टर, भारत में आकर भारतीय कलाकारों की रोजी-रोटी छीनते हैं? टूरिस्ट व्हिसा पर आकर वर्क व्हिसा ना लेकर फिल्में बनाकर भारतीयों का पैसा, नौकरी लूटनेवालों के विरुद्ध ये ‘अमन की आशा’, ‘जंग’ वाले क्यों चुप रहते हैं?
यही नहीं, भारत में भी कई ‘मिनी’ और ‘प्रॉक्सी’ पाकिस्तान कला, खेल, साहित्य, शिक्षा, विज्ञान और अन्य कई क्षेत्रों में बने हैं। फिल्मी दुनिया कितनी भी चमचमाती दिखे, पर्दे के पीछे हिन्दुओं के विरुध्द यहां भी पाकिस्तान और मुसलमानों का महाभयंकर षडयन्त्र चल रहा है। पाकिस्तानी एक्टरों, गायकों, निर्देशकों का भारत में आकर भारत के फिल्मवालों के पेट पर पाँव देना ही नहीं, फिल्म व्यवसाय में हिन्दुओं को सीधा-सीधा कैमरामैन की, स्टूडियो बॉय की, मेकअप मैन की भी नौकरी से कम कर उनकी जगह पाकिस्तानी/मुसलमान भरे जा रहे हैं। किसी भी फिल्म की श्रेयसूची देखें तो इसका पता चलता है। हिन्दू निर्देशक, निर्माता, नायक-नायिका इनका कोई चित्रपट न आए, इसके लिए मुसलमान निर्देशक, निर्माता, नायक-नायिका, डांस कोरिओग्राफर भयंकर षडयंत्र, गलत प्रचार करते रहते हैं। यह अन्तत: इतना फैला है कि हिन्दू निर्माता ही त्राहि माम् हो चुके हैं। यह षडयन्त्र यहां तक ही नहीं रुकता। हिन्दू परम्परा, मां गंगाजी, हिन्दू मंदिर, हिन्दू श्रद्धा, हिन्दू धर्मश्लोक इनका मजाक उड़ाना, इनका दुरुपयोग करना ये सब गतिविधियां आज चरमसीमा पर पहुंची हुई हैं। हम सबने समय रहते यदि इन पर काबू नहीं पाया तो इस्लाम और पाकिस्तान का यह व्हायरस क्रिकेट, चित्रकला, संगीत में घुसा है, जो करोड़ों रुपयों की फिल्म इण्डस्ट्री में पूर्णतया फैल जायेगा काकस हम सब क्या करें?
01 जहां कहीं पाकिस्तानी वस्तुएं, कला, संगीत, फिल्मकार, नायक-नायिकाएं, कपड़ा-परिधान, खाना आदि हैं, उन पर तुरन्त ‘बॉयकाट’ करें। महेश भट्ट जैसे दंभी-हिप्पोक्रेट-जिसके पुत्र का नाम आतंकी हेडली के साथ लिया गया है-जो हमेशा पाकिस्तानी नायिकाओं को लाते रहता है, उसकी फिल्में चलनी नहीं देना चाहिए।
02. ‘जिहाद’ का समर्थन करनेवाली बहुत सी फिल्में पेट्रो डॉलर खर्च कर या स्थानीय मुसलमानों के समर्थन से बनायी जा रही हैं। उन सब पर तुरंत पाबंदी लगाने की मांग करते हुए सड़क पर उतर कर लोकतांत्रिक आन्दोलन करना चाहिए।
03. हिन्दुओं की भावनाओं, हिन्दुओं की नौकरियाँ, इनको आहत करनेवाली जो फिल्में बनती हैं, उन पर तुरंत पाबंदी लगा देनी चाहिए। किसी भी चित्रपट में कला के नाम पर हिन्दू धर्म और संस्कृति का भद्दा मजाक उड़ाना, उनका दुरुपयोग करना इनके लिए कानूनन कार्रवाई तथा बॉयकॉट करना चाहिए। ऐसी फिल्में किसी भी चित्रपट गृह में नहीं चलानी चाहिए।
04. भारत में आकर खेलनेवाले पाकिस्तानी खिलाड़ियों के खेल का बॉयकॉट करना चाहिए।
05. भारतीय होकर या ना होकर, भारत और हिन्दू धर्म के प्रतीकों का भद्दा मजाक चित्रकला, संगीत (ओऽम् का दुरुपयोग आजकल अनेकानेक गानों में, चित्रों में, फिल्मों में दिख रहा है। यही बात टीके की, सिन्दूर की और धर्मध्वज की है।) में, फिल्मों में जो करते हैं उन पर देशद्रोह का मुकदमा चलाना चाहिए और हिन्दुओं को भी सड़क पर उतरकर इन सबका विरोध करना चाहिए।
06. हिन्दुस्तान लीवर (अब युनिलीवर) जैसी कंपनियां अपने उत्पादों के विज्ञापनों में (साबुन का विज्ञापन : बाबर का बेटा हुमायूं का बेटा अकबर) मुसलमान राज का महिमा मण्डल कर रही हैं। इन पर तुरंत पाबंदी लाना चाहिए। इसी बाबर ने हमारा राम मंदिर तोड़ा था।
07. मीडिया में क्रिश्चियन और मुसलमान धर्मप्रसारक या औषधियों के कई विज्ञापन लंबे चलते हैं जिनमें हृदयविकार, कैंसर जैसी बीमारियां ठीक करने का दावा किया जाता है। हिन्दू साधु-सन्तों, ज्योतिषियों के प्रति शत्रुत्तव का व्यवहार करनेवाले, अंधश्रध्दा निर्मूलन वाले और उनके कानून, ऐसे क्रिश्चियन, मुसलमान ढोंगी लोगों के बारे में चुप क्यों रहते हैं? हम सबका मिलकर ऐसे विज्ञापन करने वाले तथा उन्हें दिखानेवाले सभी पर तुरन्त कार्रवाई की मांग करनी चाहिए।
अब समय आ गया है कि, हम सब मिलकर कहें, ”बस ! अब बहुत हो गया!” ऐसी देशद्रोही, धर्मद्रोही नौटकियां अब और नहीं। इसका आरंभ हम कम से कम इस्लामिक फिल्में, कलाकार, गायक, उत्पाद, सब्जीवाले, पानवाले इत्यादियों पर आर्थिक बहिष्कार करके करें। जनसंख्या बढ़ाकर हमारे धर्म का संस्कृति पर हमला करने वालों को अब और आगे बढ़ने न दें। गौहत्यारे, गौभक्षक और जिहाद में विश्वास रखनेवालों का आर्थिक बहिष्कार यदि आज नहीं करेंगे तो कल हिन्दू बच्चे भूखे मरेंगे!

सांस्कृतिक चक्काजाम की धुरी है अमेरिका

आधुनिक मीडिया ने असल में ” सांस्कृतिक चक्काजाम” लगा दिया है। रेडियो, फिल्म, टीवी और इंटरनेट सांस्कृतिक जाम के सबसे बड़े मीडियम हैं। ”सांस्कृतिक चक्काजाम” की परंपरा उन सांस्कृतिक जुलूसों की तरह है जो हमारे शहरों में किसी न किसी रूप में निकलते रहते हैं। ”सांस्कृतिक चक्काजाम” का मूलाधार हैं सांस्कृतिक उद्योग के कलाकार-रचनाकार। ये वे कलाकार हैं जो नारा दे रहे हैं ”उनको कोई रोक नहीं सकता।” ”सांस्कृतिक चक्काजाम” की धुरी हैं विज्ञापन। विज्ञापनों के जरिए यह जाम लग रहा है। ”सांस्कृतिक चक्काजाम” में शामिल कलाकारों का रवैयया काफी खतरनाक है। वे हमेशा पराजय, अतिरंजना, अतिवास्तविकता, सनसनी और कुंठा के भाव में रहते हैं। इन कलाकारों के पास जिन्दगी का राग नहीं है।
”सांस्कृतिक चक्काजाम” में शामिल होने वाले लोग यह बात बार-बार कहते हैं कि वे संस्कृति की रक्षा के लिए काम कर रहे हैं। वे यह मानने को तैयार ही नहीं हैं कि उनके द्वारा सांस्कृतिक जाम लगा दिया गया है। इसके कारण संस्कृति का समूचा परिवहन ठप्प हो गया है। ऑडिएंस को सांस्कृतिक हवा मिलनी बंद हो गयी है। ”सांस्कृतिक चक्काजाम” का बुनियादी लक्ष्य है ”सांस्कृतिक भ्रम या दुविधा” पैदा करना।
”सांस्कृतिक चक्काजाम” का ” कल्चरल जैमिंग” के नाम से चले आंदोलन के साथ कोई संबंध नहीं है। वह मीडिया में विकल्प का आन्दोलन था, जबकि ”सांस्कृतिक चक्काजाम” कारपोरेट फिनोमिना है। इसके कुछ चर्चित रूप हैं जैसे ” अमेरिका ऑन वार” , सवाल किया जाना चाहिए अमेरिका कब युद्ध की अवस्था में नहीं था? जब तक शीतयुद्ध चल रहा था, अमेरिका के पास बहाना था, जब शीतयुद्ध खत्म हो गया तो उसने आतंकवाद के खिलाफ जंग का एलान कर दिया। जब अमेरिका आतंकवाद के खिलाफ जंग में मशगूल नहीं रहता तो अचानक एड्स के खिलाफ जंग आ जाती है, कभी बच्चों के कामुक शोषण के खिलाफ जंग का एलान करता नजर आता है, कहने का अर्थ यह है कि अमेरिका हमेशा जंग में लगा रहता है। गौर करें तो अमेरिका की जंग हमारी व्यक्तिगत जिन्दगी को सीधे प्रभावित करने लगती है, हम अपने जीवन के वास्तव मसलों को भूल जाते हैं।
अमेरिका के द्वारा छेड़ी गयी जंग में हमेशा अमेरिका को अपना परिप्रेक्ष्य याद रहता है, साधारण जनता का परिप्रेक्ष्य याद नहीं रहता। विन लादेन को अमेरिका ने जनप्रिय बनाया, सच यह है कि मुस्लिम देशों की मुश्किल से पांच फीसद आबादी भी उसके बारे में नहीं जानती थी, उसकी कार्रवाईयों का समर्थन नहीं करती थी,अमेरिका के द्वारा उसे पहले समर्थन दिया गया, हीरो बनाया गया और बाद में शत्रु नम्बर एक घोषित किया गया। इसके कारण विन लादेन जनप्रिय हो उठा। पहले के मीडिया में यूरोप का जगत प्रभुत्व बनाए हुए थे, बाद में अमेरिकी प्रभुत्व सामने आ गया। खबरों में इसी जगत का जाम लगा है। इसे प्रथम विश्व कहते हैं। यही ”सांस्कृतिक चक्काजाम” की धुरी है।
”सांस्कृतिक चक्काजाम” का ही परिणाम है कि हम ”मासकल्चर” का जो रूप आज देख रहे हैं, उसमें ”मासकल्चर” जैसा कुछ भी नहीं है। आज मासकल्चर में ” मास” या ” समूह” जैसा कुछ भी दिखाई नहीं देता। चॉयज के विस्फोट ने हमें दरिद्र बना दिया है।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जो संस्कृति उभरकर आई थी उसमें मासमीडियाजनित यथार्थ प्रभुत्व बनाए हुए था। किंतु इंटरनेट के आने के बाद तो स्थिति में गुणात्मक परिवर्तन आया है। इंटरनेट हमें अतीत की ओर ले गया है। लोकल की ओर ले गया है, आज हमारे सामने चॉयज हैं किंतु समझ नहीं है,सूचनाएं हैं, किंतु सूचनाओं के विश्लेषण का अभाव है। चॉयज के विस्फोट ने हमें पहले की तुलना में और भी दरिद्र बनाया है। ” सांस्कृतिक चक्काजाम” के तहत ही हमारे मीडिया के पर्दे पर ,अखबारों में हठात् कभी कभी महिलाओं के रक्षा के सवाल आ जाते हैं। इनमें से ज्यादातर सवाल जिन घटनाओं को लेकर उठते हैं, वे वास्तव घटनाएं होती हैं, किंतु इनका कभी हमने गंभीरता के साथ मूल्यांकन नहीं किया कि आखिरकार ऐसा क्यों होता है कि एक औरत की हत्या की खबर तो छोटी खबर होती है, किंतु किसी लड़की के साथ की गई छेड़खानी की खबर बड़ी खबर होती है। सवाल किया जाना चाहिए क्या औरत की मौत की खबर से ज्यादा महत्वपूर्ण सेक्सुअल हिरासमेंट की खबर होती है?
अमेरिका ने यह शर्त लगायी है कि एड्स के लिए आर्थिक अनुदान तब दिया जाएगा जब संबंधित देश वेश्यावृत्ति के खिलाफ कदम उठाए। यह सवाल किया जाना चाहिए कि एड्स के लिए दी जाने वाली आर्थिक मदद का वेश्याओं से क्या संबंध ? वेश्यावृत्ति को यदि कोई सरकार खत्म करना चाहे तो वह कानूनी प्रावधानों के तहत आसानी से कार्रवाई कर सकती है। किंतु एड्स के नाम पर दी जाने वाली मदद का लक्ष्य पहले से मौजूद वेश्यावृत्ति विरोधी कानूनों को सक्रिय बनाना नहीं है ,जबकि सच यह है कि गरीब देशों में इन कानूनों की हालत बेहद खराब है। हमें सवाल करना चाहिए वेश्यावृत्ति घृणित अपराध है अथवा स्त्री हत्या ? मैं कहना चाहूँगा कि स्त्री हत्या वेश्यावृत्ति से ज्यादा घृणित अपराध है। असल में वेश्यावृत्ति विरोधी कानूनी प्रयासों के साथ जब अमेरिका ने एड्स को जोड़ा तो जाने-अनजाने कठमुल्ले ईसाइयों के ”सेक्सुअल फ्रीडम” विरोधी एजेण्डे को ही आगे किया, उसे अपनी विदेशनीति का हिस्सा बनाया। भारत में भी धार्मिक कठमुल्ले है जो अपने ‘सेक्सुअल फ्रीडम विरोधी’ के एजेण्डे पर काम कर रहे हैं।इनके एजेण्डे को आए दिन टीवी चैनलों में व्यापक कवरेज भी दिया जाता है। कठमुल्ले ईसाई समुदाय अमेरिका में ”एण्टी सेक्सुअल एजेण्डा” का जमकर प्रचार करते रहे हैं। इसी प्रचार का परिणाम है कि मीडिया में सेक्सुअल हिरासमेंट की खबर महत्व हासिल करती है जबकि स्त्री हत्या या डकैती की खबर दर्ज तक नहीं हो पाती। इस सवाल को उठाने का अर्थ यह नहीं है कि सेक्सुअल हिरासमेंट की हिमायत की जाए। किंतु ” सांस्कृतिक चक्काजाम” अपना काम करता है। वह स्त्री हत्या की खबर को सामने आने नहीं देता हिरासमेंट की खबर को एजेण्डा बना देता है। इस तरह की खबरे ” डिसेक्सुलाइजिंग सोसायटी” के फ्रेमवर्क में पेश की जाती है। सेक्सुअल हिरासमेंट की खबरों में स्त्री ही सत्य है, पुरूष की बातों पर कोई विश्वास नहीं करता।
” सांस्कृतिक चक्काजाम” में एक ओर अमेरिकी विरोधी उन्माद आता है तो कभी कभी अमेरिकी संस्कृति का जयगान चलता रहता है। समग्रता में देखें तो अमेरिकी मूल्यों का महिमामंडन ” सांस्कृतिक चक्काजाम” का सबसे बड़ा क्षेत्र है। हम संक्षेप में उन अमेरिकी मूल्यों को देखें जो टीवी में नजर आते हैं।
मसलन् अमेरिकी दर्शकों को खासकर अमेरिकी औरतों को गैर-अमेरिकी संस्कृति के स्थानीय मर्दों से दूर रखने की कोशिश की जाती है। इस तरह के प्रयासों को स्त्री की मुक्ति के प्रयासों के रूप में देखा जाता है। इसी तरह अन्य संस्कृति की औरतों को उनके पति से मुक्त रहने के फार्मूले सुझाए जाते हैं। इसके लिए गैर-अमेरिकी संस्कृति की औरतों में यह भावना पैदा की जाती है कि तुम्हारा पति सही व्यवहार नहीं करता अथवा बुरा व्यवहार करता है। अमेरिकी बच्चों को अन्य संस्कृति के अभिभावकों और वयस्क चरित्रों से बचाने के प्रयास किए जाते हैं। अनाथ बच्चों को अवज्ञा के लिए उकसाया जाता है। बच्चों में अमेरिकी ईसाईयत के मूल्यों का प्रचार किया जाता है।
अमेरिका यह आभास देता है कि उसका असल लक्ष्य है ग्लोबल व्यापार और सुरक्षा प्रदान करना। किंतु सच यह है कि अमेरिका का असली लक्ष्य है सांस्कृतिक चक्काजाम करना। इसके जरिए सांस्कृतिक साम्राज्यवाद को थोपा जाता है। अमेरिकी रवैयये में राजनीति दबाव का काम करती है। वे विचारधारात्मक दबाव ग्रुप की तरह इसका इस्तेमाल करते हैं।
राजनीतिक चक्काजाम का सबसे बड़ा रूप है स्वयंसेवी संगठनों का विश्वव्यापी नेटवर्क। आज यही नेटवर्क अफगानिस्तान को चला रहा है। और भी अनेक देशों में इसकी निर्णायक भूमिका है। अमेरिका के अनेक ब्रॉण्ड हैं जो अपनी वजह से नहीं स्वयंसेवी संगठनों के प्रतिवाद की वजह से जाने जाते हैं। ” सांस्कृतिक चक्काजाम” का ही परिणाम है कि आज अमेरिका का प्रधान लक्ष्य आर्थिक शोषण नहीं है बल्कि वे गैर अमेरिकी देशों के समाजों को अपने विचारों में ढ़ालना चाहते हैं, उसके लिए ही प्रयास करते रहते हैं। आर्थिक वर्चस्व स्थापित करना प्रधान लक्ष्य नहीं है बल्कि प्रधान लक्ष्य है विचारधारात्मक वर्चस्व स्थापित करना।
अमेरिकी साम्राज्यवाद के दो बुनियादी लक्ष्य हैं पहला आर्थिक है और दूसरा राजनीतिक है जिसके तहत सांस्कृतिक मालों पर कब्जा जमाना और सांस्कृतिक मालों के जरिए जनप्रियचेतना स्थापित करना। यही वह बिंदु है जो सांस्कृतिक चक्काजाम की धुरी है। सांस्कृतिक चक्काजाम ,सांस्कृतिक साम्राज्यवाद और मनोरंजन उद्योग के जरिए व्यापक मुनाफा बटोरा जाता है। वहीं दूसरी ओर लोगों को उनकी संस्कृति और जड़ों से अलग किया जाता है। उन्हें मीडियाजनित जरूरतों से बांध दिया जाता है।

सेवोन्मुख प्रगति पथ पर अग्रसर मध्यप्रदेश

भारतीय जनसंघ से लेकर भारतीय जनता पार्टी के विकास तक निरंतर संगठन की अपनी विशिष्टता के पीछे इसकी कार्यकर्ता आधारित प्रकृति रही है। इससे हमारी पहचान राजनीतिक दल से अधिक राष्ट्रवादी विचार, राष्ट्र समर्पित भावना के विस्तार के आंदोलन के रूप में बनी है। इसकी भूमिका राष्ट्रीय अभ्युदय अनुष्ठान के रूप में परिभाषित हुई है। प्रारंभिक रूप से ही सेवा के संस्कार को संगठन के शृंगार के रूप में आत्मसात किया है। मध्यप्रदेश में राष्ट्रवाद के प्रवर्तन में 1951 के दशक से ही जो बयार बही, उससे शहरी अंचल और ग्रामीण प्रांतर सुरभित हुए हैं और देश में मध्यप्रदेश को एक आदर्श (मॉडल) संगठन के रूप में लोकप्रियता हासिल हुई है। मध्यप्रदेश में संगठन को नेतृत्व प्रदान करने के लिए कार्यकर्ताओं में न तो स्पर्धा हुई और न अभाव दृष्टि गोचर हुआ। कांग्रेस तथा अन्य राजनीतिक दलों और संगठनों में जहां विचारधारा गौण बनी और अवसरवादिता और सत्ता लिप्सा का प्राघान्य हुआ, जनसंघ और भाजपा में परिवार भावना में लोकतंत्रीय भावना से संस्कार जनित उत्तराधिकार मिला। सामान्य कार्यकर्ता को संगठन के नेतृत्व और सत्ता के सूत्र संभालने का गौरव प्राप्त होना यहां आकस्मिकता नहीं सामान्य प्रक्रिया बन चुकी है। नवम्बर 2006 में पार्टी का नेतृत्व जब नरेन्द्र सिंह को सौंपा गया सर्वसम्मति से हुए निर्णय को स्वीकार करते हुए नरेन्द्र सिंह तोमर ने प्रदेश के मंत्रिमंडल से तत्काल त्यागपत्र देकर प्रदेश के कार्यकर्ताओं की भावनाओं का सम्मान किया। संगठन के श्रेष्ठि वर्ग के आदेश को शिराधार्य किया। सत्ता और संगठन में नरेन्द्र सिंह तोमर ने संगठन के संवर्धन, जनता की सेवा का पथ चुन कर ऐसा आदर्श प्रस्तुत किया, जो आने वाले समय में पथ प्रदर्शन करेगा।
प्रदेश अध्यक्ष नरेन्द्र सिंह तोमर का कार्यकाल वास्तव में अवसर और चुनौतियों, संघर्ष और सेवा का ऐसा संगम है, जिसे पार्टी के कार्यकर्ताओं के परिश्रम, संगठन और सत्ता के समन्वय ने स्मरणीय बना दिया। मुंह में शक्कर और पैरों में चक्कर की उक्ति को उन्होंने चरितार्थ कर दिखाया। विधानसभा के उपचुनाव, विधानसभा के चुनाव, लोकसभा के चुनाव, प्रदेश में नगरीय निकायों के चुनाव और पंचायती राज संस्थाओं के चुनाव के बावजूद पार्टी संगठन ने रचनात्मक और संगठनात्मक गतिविधियों की अविरल धारा प्रवाहित की। कई मिथक तोड़े। नये-नये कीर्तिमान गढ़े और सेवा के नये नये अनुष्ठान लेकर सतत जनता से संवाद बनाए रखा। यही कारण था कि प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी सरकार का पांच वर्ष का कार्यकाल सफलता पूर्वक पूर्ण हुआ। पार्टी की पिछली तीन सरकारें अल्प जीवी रही। प्रदेश में दूसरी बार भाजपा शानदार विजय के साथ सत्ता में लौटी और लोकसभा चुनाव में भी कांग्रेस को पीछे छोड़ दिया। चुनावी अश्वमेघ का घोड़ा कांग्रेस को नगरीय निकायों के चुनाव और पंचायती राज संस्थाओं के चुनाव में भी रौंधता हुआ आगे बढ़ा। तथापि संगठन और कार्यकर्ता न तो आत्ममुग्ध हुए और न आत्मश्लाधा के वशीभूत हुए। पल-पल सेवा संस्कार की सतत यात्रा में संलग्न है। मध्यप्रदेश में भारतीय जनता पार्टी अजेय और सेवान्मुख होने के साथ सबसे बड़े, व्यापक जनाधार वाली पार्टी बनी है।
नरेन्द्र सिंह तोमर ने संगठन सूत्र संभालते ही हर कार्यकर्ता को काम और हर व्यक्ति को संस्कार देने की रचनात्मक पहल की जिससे प्रदेश स्तर से लेकर जमीनी स्तर तक संवाद और विश्वास का सेतु बना। कार्यकर्ता सत्ता के पूरक बने। सेवोन्मुख कार्यकर्ताओं ने हमेशा सरकार को जनता की नब्ज की जानकारी देकर शासन का अधिक संवेदनशील बनाया। नरेन्द्र सिंह तोमर और प्रदेश संगठन महामंत्री माखन सिंह चौहान ने कार्यकर्ताओं की प्रतिभा को निखारा और उनकी रचनात्मक ऊर्जा को दिशा दी। लोकतंत्र की बहाली में जिन कार्यकर्ताओं ने मीसाबंदी बन कर अपना सर्वस्व न्यौछावर किया उनका अभिनंदन किया गया। उनके त्याग, तपस्या और पीड़ा का सम्मान कराया गया। लोकनायक जयप्रकाश सम्मान निधि से उन्हें सम्मानित किया गया। कार्यकर्ताओं को संस्कारित करने के लिए जिलों में अभ्यास वर्ग, प्रशिक्षण शिविर कार्यकर्ता सम्मेलनों का सिलसिला अनवरत जारी रहा। विधानसभा चुनावों की दृष्टि से ये सम्मेलन विधानसभा क्षेत्र स्तर तक सफलतापूर्वक संपन्न हुए। प्रदेश में छब्बीस मोर्चा और प्रकोष्ठों के गठन के साथ समाज के हर वर्ग में पार्टी का विस्तार कर संगठन को सर्वस्पर्शी , सर्वव्यापी बनाया गया। मोर्चा और प्रकोष्ठ जनता के प्रति अपनी जवाबदेही के प्रति तत्पर रहे। केन्द्र सरकार की विफलता को सतत बेनकाब करने में इनकी असरदार भूमिका रही। महंगायी के विरोध में सड़क से संसद तक केन्द्र सरकार की अदूरदर्शी नीतियों का आंदोलनों के माध्यम से पर्दाफाश किया गया। आंदोलनों में जनभागीदारी सुनिश्चित की गयी। प्रदेश में सांसदों और विधायकों का इंदौर में आयोजित अभ्यास वर्ग अत्यंत सफल रहा। प्रदेश के युवकों की ऊर्जा को रचनात्मक दिशा देने के लिए अलग अभ्यास वर्ग चित्रकूट के आध्यात्मिक और ग्रामीण परिवेश में संपन्न हुआ, वहीं युवा मोर्चा ने जिले जिले में युवा संसद के सत्र आयोजित कर दोहरा लक्ष्यपूर्ण किया। प्रदेश सरकार की उपलब्धियां जन-जन तक पहुंचायी। युवा नीति पर मंथन हुआ। युवा आंकाक्षा को अभिव्यक्ति मिली। यूपीए की विफलताओं की ओर जनता का ध्यान आकृष्ट किया। असंगठित कामगार प्रकोष्ठ ने प्रदेश के असंगठित मजदूरों को दिये गये राय सरकार के सुरक्षा कवच का लाभ पहुंचाया, वहीं उन्हें अपने अधिकारों से वाकिफ कराया। किसान मोर्चा ने मध्यप्रदेश में किसानी को लाभ का धंधा बनाने की राय सरकार के महत्वाकांक्षी अभियान और मुख्यमंत्री के सात संकल्पों को क्रियान्वित करने का बीड़ा उठाया। ये सात संकल्प क्रमश: 1. प्रदेश अधोसंरचना विकास। 2. निवेश में वृद्धि से संतुलित विकास। 3. खेती को लाभ का धंधा बनाना। 4. शिक्षा और स्वास्थ्य की सुविधाएं जन-जन तक पहुंचाना। 5. महिला सशक्तीकरण। 6. सुशासन और संसाधनों का विकास और 7. प्रदेश में कानून व्यवस्था को चौकस बनाकर आम आदमी में सुरक्षा का अहसास पैदा करना है। मध्यप्रदेश को स्वर्णिम प्रदेश बनाने की दिशा में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के संकल्प को हकीकत में बदलने के लिए कार्यकर्ता मुख्यमंत्री की मध्यप्रदेश बनाओ यात्रा केसाक्षी बन रहे हैं। गांव-गांव में कार्यकर्ता स्वर्णिम मध्यप्रदेश की कल्पना में यथार्थ का रंग भर रहे हैं। प्रदेश सरकार की जनोन्मुखी गतिविधियों की जानकारी आम आदमी तक पहुंचाने के लिए विकास शिविर लगाये गये। विकास यात्राएं निकायी गयी। साथ ही जन-जन तक पहुंचकर उनसे आशीर्वाद लेने और काम के आधार पर समर्थन देने का आह्वान करने के लिए आशीर्वाद रैलियों, यात्राओं का जनपदीय अंचलों तक आयोजन किया गया। इनमें मुख्यमंत्री, प्रदेश अध्यक्ष से लेकर संगठन महामंत्री तक की भागीदारी हुई।
भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यसमिति की दो दिवसीय बैठक 13-14 सितम्बर 2007 में भोपाल में संयोजित करने का गौरव प्राप्त हुआ जिसमें राष्ट्रीय पदाधिकारियों और रायों से आए अतिथि से प्रदेश के कार्यकर्ताओं का जीवंत संवाद हुआ। इसका समापन विशाल जनसभा के रूप में लाल परेड ग्राउंड भोपाल पर हुआ जिसे मानवीय आडवाणी जी, सुषमा स्वराज, डॉ.मुरली मनोहर जोशी, वैकेंया नायडू सहित शीर्ष नेताओं ने संबोधित कर प्रदेश की जनता के उत्साह की भूरि-भूरि सराहना की। सभा में उमड़े जन सैलाब को देखकर अतिथि प्रभावित हुए। प्रदेश में संगठन और सत्ता के समन्वय हेतु अनौपचारिक बैठकों के अलावा अन्य बैठकों के क्रम में विशेष बैठक 3 अक्टूबर 2007 को भोपाल में हुई जो विस्तार पूर्वक चर्चा के साथ संपन्न हुई। विजय संकल्प यात्रा को 6 जनवरी, 2008 में आडवाणीजी ने संबोधित किया। अमरनाथ यात्रा के लिए आवंटित जमीन पर जब रोक लगी और रामसेतु मुद्दा उठा, प्रदेश भर में आंदोलन हुए। इससे प्रदेश का कोना-कोना राष्ट्रवाद की भावना से आप्लावित हुआ। प्रदेश संगठन को अनेकोंवार विधानसभा चुनावों की चुनौती से रू-ब-रू होना पड़ा। पंधाना उप चुनाव में विजयी होने के बाद लॉजी उपचुनाव सहित अन्य उप चुनावों से निपटना पड़ा। सांवेर में पिछड़ गए तो इंदौर में जीत का सेहरा बंधा। तेंदूखेड़ा (नरसिंहपुर) उपचुनाव में पार्टी ने कांग्रेस के कब्जे से सीट छीन कर पार्टी के बढ़ते प्रभाव सरकार की नीतियों के सुफल का परिचय मिला। महिला मोर्चा ने महंगायी के विरोध में ऐतिहासिक मानव शृंखला बनायी, वहीं ग्रामीण विकास प्रकोष्ठ ने अपना गांव कार्यक्रम हाथ में लेकर गांवों के विकास में नया पृष्ठ जोड़ा। अनुसूचित जाति मोर्चा ने केन्द्र सरकार की तुष्टीकरण की नीति के विरोध में जिले से लेकर दिल्ली तक विरोध का डंका बजाया और धर्मांतरित दलितों को अनुसूचित जाति कोटा में शामिल करने का विरोध किया। अनुसूचित जाति अधिकार संरक्षण के लिए अभियान जारी है। इसमें रंगनाथ मिश्र आयोग पर अंगुली उठायी गयी। अनुसूचित जनजाति मोर्चा ने गांव-गांव में वन भूमि अधिकार पत्र वितरण में सक्रिय योगदान दिया। अल्पसंख्यक मोर्चा ने सच्चर कमेटी को तुष्टीकरण का भौड़ी मिसाल बताया और कहा कि यह मुसलमानों के स्वाभिमान पर प्रहार है। अल्पसंख्यक मोर्चा की पर्दानशीन महिलाएं भी सड़कों पर उतरी और सच्चर कमेटी का पुतला जलाया। केन्द्र सरकार की मध्यप्रदेश के साथ भेदभावपूर्ण नीतियों के विरोध में लगातार आवाज उठायी गयी। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में जहां न्याय यात्रा निकाली, वहीं प्रदेश अध्यक्ष नरेन्द्र सिंह तोमर के नेतृत्व में सागर सहित अन्य स्थानों पर प्रभावी अनशन, आंदोलन हुए, जिनमें भारी संख्या में जनता जुटी। नरेन्द्र सिंह तोमर ने प्रदेश से लेकर दिल्ली तक में केन्द्र सरकार के सौतेले व्यवहार के विरोध में सांसदों, विधायकों के धरना, आंदोलन का नेतृत्व कर जन भावनाओं को प्रति बिंवित किया। बुंदेलखण्ड में पहला मेडीकल कालेज खोला गया। लेकिन मान्यता के लिए फिर नरेन्द्र सिंह तोमर को मेडीकल कौसिंल आफ इंडिया परिसर में धरना पर बैठना पड़ा। प्रदेश में संगठन के संयोजन में कुछ रचनात्मक ऐसे कार्य हुए जिनकी देश भर में चर्चा हुई। पितृ पुरुष कुशाभाऊ ठाकरे प्रशिक्षण संस्थान परिसर की आधारशिला रखी गयी। न्यास के गठन के साथ वरिष्ठ नेता कैलाश जोशी ने परिसर में भव्य भवन के निर्माण का रूपांकन तैयार कर निर्माण का श्रीगणेश कराया। वैकेया नायडू ने नींव रखी। कार्य प्रगति पर है। तीन वर्षों की कालावधि में लगातार प्रशिक्षण का क्रम इस तरह चला कि संगठन मंत्रियों से लेकर स्थानीय इकाई के कार्यकर्ता भी संस्कार संपन्न होने का गौरव प्राप्त कर सके। किसान मोर्चा ने केन्द्र सरकार की किसान विरोधी नीतियों का प्रखर विरोध किया और प्रदेश व्यापी हस्ताक्षर अभियान चलाया। विधि प्रकोष्ठ ने विधिक साक्षरता अभियान आयोजित करने में सफलता पायी वहीं, आईटी प्रकोष्ठ ने सूचना प्रौघोगिकी का ताना-बाना बुना। भारतीय जनता युवा मोर्चा ने युवा जोड़ो अभियान के साथ नव मतदाता सम्मेलनों की श्रृंखला आयोजित कर जनाधार में वृध्दि की। महिला मोर्चा ने कारवां कार्यक्रम से महिला बहनों को पार्टी के अंचल में लाने का विलक्षण अभियान चलाया जिसका लाभ हुआ। अध्यापक प्रकोष्ठ मंडल स्तर तक अपना संगठन खड़ा करने में सफल हुआ। संचार माध्यमों से बेहतर तालमेल बनाने के लिए प्रदेश के जिला, संभाग मीडिया प्रभारियों की कार्यशाला, प्रशिक्षण और अभ्यास वर्ग में कलमकारों को पार्टी की मूल्य आधारित नीतियों विचार दर्शन की जानकारी दी गयी। भारतीय जनता पार्टी कार्यकर्ताओं का महाकुंभ 25 सितम्बर 2008 को जब जंबुरी मैदान भोपाल में आयोजित किया गया, उसमें उमड़े जनसैलाब ने ही विधानसभा चुनाव परिणाम की इबारत का अहसास करा दिया। मध्यप्रदेश में मतदान केन्द तक गठित समितियों के साथ पालक, संयोजकों के सम्मेलनों ने मतदाताओं से जोड़ा दिया और ऐसा नेटवर्क तैयार हुआ कि प्रदेश का प्रत्येक मतदान केन्द्र दिल्ली में बैठे जिज्ञासु की नजर में आ गया। स्विस बैंकों में जमा काला धन वापस लाने के लिए युवा मोर्चा ने जनमत संग्रह कराया। सहकारिता प्रकोष्ठ ने सहकारी क्षेत्र में साख को आसान बनाने 3 रु. प्रतिशत ब्याज पर किसानों को कर्ज दिलाने का पथ प्रशस्त किया जिससे मुख्यमंत्री के सात सूत्रीय संकल्प को बल मिला। सहकारिता आंदोलन में लोकतंत्र और शुचिता की वापसी की गयी।
प्रदेश में सदस्यता अभियान की सफलता ने अन्य प्रदेशों को चकित किया। आजीवन सहयोग निधि संग्रह में प्रदेश में नया कीर्तिमान बनाया गया। चिकित्सा प्रकोष्ठ ने प्रदेश में प्रचलित चिकित्सा पद्धतियों के डाक्टरों का महाकुंभ आयोजित कर उन्हें पार्टी की विचारधारा से परिचित कराने में सफलता प्राप्त की। नगर निगम प्रकोष्ठ नगर पालिका प्रकोष्ठ भी पीछे नहीं रहे। प्रदेश में नगरीय निकायों के महापौर, अध्यक्ष, सभापति, उपाध्यक्षों और पार्षदों के महासम्मेलन में प्रदेश के नगरीय विकास का खाका तैयार किया गया। भाजपा संसदीय दल के नेता लालकृष्ण आडवाणी ने शुचिता लाकर नगरीय निकाय को नये क्षितिज पर पहुंचाने का आह्वान किया। नगरीय निकाय चुनाव में प्रदेश में पहली बार अल्पसंख्यक परिवारों में से 82 प्रत्याशी जीत कर पार्षद बने। इनमें अधिकांश पर्दानशीन महिलाएं हैं। नरेन्द्र सिंह तोमर ने उन्हें बधायी देते हुए आशा व्यक्त की कि यही रफ्तार जारी रखी जावेगी और आने वाले दिनों में जारी रही तो विधानसभा परिसर में भी प्रदेश में अच्छी संख्या में अल्पसंख्यक भाई और बहनें दस्तक देंगी और विधायिका में अपना योगदान दर्ज करेगी।

क्या इसीलिए कहलाते हैं ये जनसेवक!

अंतिम छोर के आदमी को दो सौ साल लगेंगे बुनियादी सुविधाएं मिलने में
images1 क्या इसीलिए कहलाते हैं ये जनसेवक!तीन दशक पहले माल वाहक वाहनों पर ”लोक वाहक” लिखा होता था, इन अंधी रफ्तार से चलने वाले ट्रक से होने वाली दुर्घटनाओं को देखकर कवि सम्मेलनों में इन्हें ”परलोक वाहक” का नाम दिया गया था। इसी तरह जनता की सेवा करने का प्रण लेने वालों को जनसेवक कहा जाता है। जनसेवक का काम अपने निहित स्वार्थों को हाशिए पर रखकर जनता की सेवा करना होता है, विडम्बना यह है कि नब्बे के दशक से जनसेवकों ने अपने निहित स्वार्थ साधने के चक्कर में रियाया को ही हाशिए पर कर दिया है।
केंद्र सरकार ने देश के आखिरी आदमी तक के लिए स्चच्छ पेयजल और साफ सुथरे शौचालयों के इंतजाम के लिए मियाद तय की है, और यह मियाद 2012 अर्थात आने वाले दो साल में समाप्त हो जाएगी। आज की जमीनी हालात को देखकर यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि आने वाले एक दशक के पूरा होने पर अर्थात विजन 2020 के पूरा होने के बाद भी देश में इन दोनों बुनियादी जरूरतों को पूरा नहीं किया जा सकेगा। एक एन जी ओ द्वारा किए गए सर्वे के अनुसार आने वाले दो सौ सालों के उपरांत ही इस अभियान को शत प्रतिशत पूरा किया जा सकता है।
कितने आश्चर्य की बात है कि देश पर हुकूमत करने वालों को अपनी रियाया की जरा भी फिकर नहीं है। कम से कम बुनियादी सुविधाएं तो जनता को उपलब्ध होनी ही चाहिए। एक समय था जब शासक भेष बदलकर अपने राज्य की जनता के दुख दर्द को जाना करते थे, पर आज के निजाम तो दुखदर्द को जानते बूझते आंख बंद किए हुए हैं। रही बात विपक्ष की तो, सरकार निरंकुश न हो पाए इसकी जवाबदारी विपक्ष की हुआ करती है। वर्तमान परिदृश्य में विपक्ष और सत्ता पक्ष दोनों ही मिलकर दोनों हाथों से लड्डू खाने में मशगूल हैं।
भारत का प्रजातंत्र विश्व का सबसे बडा प्रजातंत्र माना जाता है, और इसको सही मार्ग दिखाने के लिए इसके चौथे स्तंभ के तौर पर मान्यता दी गई है मीडिया को। वर्तमान समय में मीडिया पूरी तरह से औद्योगिक घरानों की जरखरीद गुलाम बनकर रह गया है। मीडिया के मालिकों से अगर कहा जाए कि वे किसी विषय पर दो शब्द लिखकर या बोलकर बताएं तो उनकी पेशानी पर पसीने की बूंदे छलक जाएंगी। सत्ता और विपक्ष की जुगल बंदी में मीडिया के तडके ने तो जनता की जान ही निकाल दी है।
बहरहाल, समग्र स्वच्छता अभियान का लक्ष्य पूरा करने में प्रधानमंत्री डॉ.एम.एम.सिंह, भाजपा संसदीय दल के अध्‍यक्ष एल.के.आडवाणी, कांग्रेस की नजरों में भविष्य के प्रधानमंत्री राहुल गांधी, केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री सी.पी.जोशी, केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नवी आजाद जैसे दिग्गजों के चुनाव क्षेत्रों में इस अभियान के धुर्रे उडते दिखाई दे रहे हैं। गौरतलब है कि समग्र स्वच्छता अभियान केंद्र सरकार की एक महात्वाकांक्षी योजना है, जिसके तहत 2012 तक देश के सभी ग्रामीण इलाकों में स्वच्छ पेयजल और साफ सुथरे शौचालयों की शत प्रतिशत व्यवस्था सुनिश्चित की जानी है।
हाल ही में एक गैर सरकारी संगठन द्वारा जुटाए गए आंकडे बहुत ही निराशाजनक माने जा सकते हैं। संस्था की मानें तो कांग्रेस की राजमाता श्रीमति सोनिया गांधी के संसदीय क्षेत्र रायबरेली में तो 2012 तक इसे कुछ हद तक पूरा माना जा सकता है, किन्तु कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी के संसदीय क्षेत्र में काम की गति को देखकर कहा जा सकता है कि 2016 तक भी इसे शत प्रतिशत पूरा नहीं किया जा सकता है।
मजे की बात तो यह है कि प्रधानमंत्री जो असम से राज्यसभा सदस्य हैं वहां उनके दर्शाए गए स्थायी निवास ”कामरूपा” जिले में यह अभियान 2030 तक पूरा नहीं किया जा सकता है। समग्र स्वच्छता अभियान की बागडोर केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय के जिम्मे है, और चमत्कार देखिए कि विभाग के मंत्री सी.पी.जोशी के संसदीय क्षेत्र राजस्थान के भीलवाडा में यह अभियान 2023 तक पूरा होने की उम्मीद दिख रही है। यह आलम तब है जबकि राजस्थान में अशोक गहलोत के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार काबिज है।
राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के पीएम इन वेटिंग रहे लोकसभा के पूर्व नेता प्रतिपक्ष लाल कृष्ण आडवाणी के संसदीय क्षेत्र गांधी नगर जैसे इलाके में यह अभियान 2017 तक परवान चढ सकेगा। सासाराम से जीतकर पहली महिला लोकसभाध्यक्ष बनने का गौरव पाने वालीं मीरा कुमार के संसदीय क्षेत्र में यह योजना 2022 तक ही पूर्ण होने की उम्मीद है। इसी तरह केंद्रीय मंत्री शरद पवार, कमल नाथ, एम.एस.गिल, मल्लिकार्जुन खडगे, बी.के.हांडिक, लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज आदि के संसदीय क्षेत्रों का कमोबेश यही आलम है।
इस तरह की निराशाजनक स्थिति तब सामने आ रही है जबकि मनमोहन सिंह के नेतृत्व में पिछली बार सरकार ने केंद्र पोषित केंद्रीय योजनाओं के बेहतर क्रियान्वयन को मद्देनजर रख देश के हर संसद सदस्य को उनके संसदीय क्षेत्र के जिलों में निगरानी समिति का अध्यक्ष बनाया था। इतना ही नहीं सांसदों से यह उम्मीद की गई थी कि हर तीन माह में केंद्रीय योजनाओं का आंकलन करेंगे। विडम्बना एक बार फिर वही है कि सांसदों ने इसे सीधा सीधा नजर अंदाज कर दिया, जिससे केंद्र पोषित योजनाआें में आने वाली भारी भरकम राशि भ्रष्टाचार की भेंट चढने से न बच सकी।
राष्ट्रपिता बापू का भी मानना था कि वास्तविक भारत गांवों में बसता है। आज भारत की आजादी के साठ सालों बाद भी गांव की बदरंग तस्वीर से कांग्रेस की राजमाता श्रीमती सोनिया गांधी, पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी, वजीरेआजम डॉ.एम.एम.सिंह सहित सत्ता और विपक्ष के हर जनसेवक वाकिफ है, फिर भी वह अपने समर्थकों, अनुयाईयों, परिजनों के लिए केंद्र और राज्य पोषित योजनाओं में भ्रष्टाचार करने के मार्ग प्रशस्त करने से नहीं चूकता है।
एक जमाने में जनता की सेवा को धर्म समझने वाले को जनसेवक कहा जाता था, किन्तु लगता है आज जनसेवक के मायने बदल चुके हैं। आज जनता को दुत्कार कर हाशिए पर रखकर अपने निहित स्वार्थों को पूरा कर अंटी में माल इकट्ठा करने वाले जनसेवक कहलाते हैं। इस तरह के जनता के गाढे खून पसीने की कमाई के शोषक किस तरह सर उठाकर चलते हैं, यह देखते ही बनता है। पता नहीं इनका जमीर कैसे गवारा कर पाता है कि जिस जनता की जेब पर ये डाका डालते हैं उसी जनता से सीधे आंख मिलाने का दुस्साहस भी कर पाते हैं।

अकेले नहीं आता अकाल-imran haider

अकाल की पदचाप साफ सुनाई दे रही है। सारा देश चिंतित है। यह सच है कि अकाल कोई पहली बार नहीं आ रहा है लेकिन इस अकाल में ऐसा कुछ होने वाला है, जो पहले कभी नहीं हुआ। देश में सबसे सस्ती कारों का वादा पूरा किया जा चुका है। कार के साथ ऐसे अन्य यंत्र-उपकरणों के दाम भी घटे हैं, जो दस साल पहले बहुत सारे लोगों की पहुंच से दूर होते थे। इस दौर में सबसे सस्ती कारों के साथ-साथ सबसे महंगी दाल भी मिलने वाली है – यही इस अकाल की सबसे भयावह तस्वीर होगी। यह बात औद्योगिक विकास के विरुध्द नहीं कही जा रही है। लेकिन इस महादेश के बारे में जो लोग सोच रहे हैं, उन्हें इसकी खेती, इसके पानी, अकाल, बाढ़ सबके बारे में सोचना होगा।
हमारे यहां यह कहावत है, ‘आग लगने पर कुआं खोदना’। कई बार आग लगी होगी और कई बार कुएं खोदे गए होंगे, तब अनुभवों की मथानी से मथकर ही ऐसी कहावतें मक्खन की तरह ऊपर आई होंगी। लेकिन कहावतों को लोग या नेतृत्व जल्दी भूल जाते हैं। मानसून अपने रहे-सहे बादल समेटकर लौट चुका है। यह साफ हो चुका है कि गुजरात जैसे अपवाद को छोड़ दें तो इस बार पूरे देश में औसत से बहुत कम पानी गिरा है।
अकाल की आग लग चुकी है और अब कुआं खोदने की तैयारी चल रही है। लेकिन देश के नेतृत्व का- सत्तारूढ़ और विपक्ष का भी पूरा ध्यान, लगता नहीं कि कुआं खोदने के तरफ है। अपने-अपने घर-परिवार के चार-चार आना कीमत के झगड़ों में शीर्ष नेतृत्व जिस ढ़ंग से उलझा पड़ा है, उसे देख उन सबको बड़ी शर्म आती होगी, जिन्होंने अभी कुछ महिनों पहले इनके या उनके पक्ष में मत डाला था। केन्द्र की पार्टियों में चार आने के झगड़े हैं, पतंगे कट रही है, मांजा लपेटा जा रहा है, तो इधर राज्यों की पार्टियों में भी दो आने के झगड़े-टंटे चल रहे हैं। अकाल के कारण हो रही आत्महत्याओं की खबरें यहां राजा के बेटे को राजा बना देने की खबरों से ढंक गई हैं। कहीं अकाल के बीच रही मूर्तियां हमारे नेतृत्व को पत्थर-दिल बता रही हैं।
कई बातें बार-बार कहनी पड़ती हैं। इन्हीं में बहुत पहले अच्छे विचारों का अकाल पड़ने लगता है। अच्छे विचार का अर्थ है, अच्छी योजनाएं, अच्छे काम। अच्छी योजनाओं का अकाल और बुरी योजनाओं की बाढ़। पिछले दौरे में ऐसा ही कुछ हुआ है। देश को स्वर्ग बना देने की तमन्ना में तमाम नेताओं ने स्पेशल इकोनॉमिक जोन, सिंगूर, नंदीग्राम और ऐसी ही न जाने कितनी बड़ी-बड़ी योजनाओं पर पूरा ध्यान दिया। इस बीच यह भी सुना गया कि इतने सारे लोगों द्वारा खेती करना जरूरी नहीं है। एक जिम्मेदार नेता की तरफ से यह भी बयान आया कि भारत को गावों का देश कहना जरूरी नहीं है। गांवों में रहनें वाले शहरों में आकर रहनें लगेंगे, तो हम उन्हें बेहतर जीवन के लिए तमाम सुविधाएं आसानी से दे सकेंगे। इन्हें लगता होगा कि शहरों में रहने वाले सभी लोगों को ये सुविधाएं मिल ही जा चुकी हैं। इसका उत्तर तो शहर वाले ही देंगे।
लेकिन इस बात को यहीं छोड़ दीजिए। अब हमारे सामने मुख्य चुनौती है खरीफ की फसल को बचाना और आने वाली रबी की फसल की ठीक-ठीक तैयारी। दुर्भाग्य से इसका कोई बना-बनाया ढांचा सरकार के हाथ फिलहाल नहीं दिखता। देश के बहुत बड़े हिस्से में कुछ साल पहले तक किसानों को इस बात की खूब समझ थी कि मानसून के आसार अच्छे न दिखें तो पानी की कम मांग करने वाली फसलें बो ली जाएं। इस तरह के बीज पीढ़ियों से सुरक्षित रखे गए थे। कम प्यास वाली फसलें अकाल का दौर पार कर जाती थीं। लेकिन आधुनिक विकास के दौर ने, नई नीतियों ने किसान के इस स्वावलंबन को अनजाने में ही सही, पर तोड़ा जरूर है। लगभग हर क्षेत्र में धान, गेहूं, ज्वार-बाजरा के हर खेत में पानी को देखकर बीज बोने की पूरी तैयारी रहती थी। अकाल के अलावा बाढ़ तक को देखकर बीजों का चयन किया जाता था। पर 30-40 साल के आधुनिक कृषि के विकास ने इस बारीक समझ को आमतौर पर तोड़ डाला है। पीढ़ियों से एक जगह रहकर वहां की मिट्टी, पानी, हवा, बीज, खाद सब कुछ जानने वाला किसान अब छह-आठ महीनों में ट्रांसफर होकर आने-जाने वाले कृषि अधिकारी की सलाह पर निर्भर बना डाला गया है।
किसानों के सामने एक दूसरी मजबूरी उन्हें सिचाई के अपने साधनों से काट देने की भी है। पहले जितना पानी मुहैया होता था, उसके अनुकूल फसल की जाती थी। अब नई योजनाओं का आग्रह रहता है कि राजस्थान में भी गेहूं, धान, गन्ना, मूंगफली जैसी फासलों को बोने का रिवाज बढ़ता जा रहा है। इनमें बहुत पानी लगता है। सरकार को लगता है कि बहुत पानी देने को ही तो हम बैठे हैं। ऐसे इलाकों में तो अरबों रुपयों की लागत से इंदिरा नहर, नर्मदा नहर जैसी योजनाओं के जरिए सैकड़ों किलोमिटर दूर का पानी सूखे बताए गए इलाके में लाकर पटक दिया गया है। लेकिन यह आपूर्ति लंबे समय तक के लिए निर्बाध नहीं चल पाएगी।
इस साल, हर जगह जितना कम पानी बरसा है, उतने ही हमारे स्वनामधन्य बांध भी पूरे नहीं भरे हैं। अब उनसे निकलने वाली नहरों में सब खेतों तक पहुंचने वाला पानी नहीं बहने वाला है। कृषि मंत्री ने यह भी घोषणा की है कि किसानों को भूजल का इस्तेमाल कर फसल बचाने के लिए दस हजार करोड़ रुपए की डीजल सब्सिडी दी जाएगी। यह योजना एक तो ईमानदारी से लागू नहीं हो पायेगी और इमानदारी से लागू हो भी गई तो अगले अकाल के समय दोहरी मार पड़ सकती है- मानसून का पानी नहीं मिला है और जमीन के नीचे का पानी भी फसल को बचाने के मोह में खींच कर खत्म कर दिया जाएगा। तब तो अगले वर्षों में आने वाले अकाल और भी भयंकर होंगे।
इस समय सरकार को अपने-अपने क्षेत्रों में ऐसे इलाके खोजने चाहिए, जहां कम पानी गिरने के बाद भी अकाल की उतनी काली छाया नहीं दिखती, बाकी क्षेत्रों में जैसा अंदेशा है। पूरे देश के बारे में बताना कठिन है, पर राजस्थान में अलवर ऐसा इलाका है, जहां साल में 25-26 इंच पानी गिरता रहता है। इस बार तो उसका आधा ही गिरा है। फिर भी वहां के एक बड़े हिस्से में पिछले कुछ साल में हुए काम की बदौलत अकाल की छाया उतनी बुरी नहीं है। कुछ हिस्सों में तो अकाल को भर चुके तालाबों की पाल पर बिठा दिया गया है। जयपुर के ग्रामीण इलाकों में भी बड़ी आसानी से ऐसे गांव मिल जाएंगे, जहां कहा जा सकता है कि अकाल की परिस्थितियों के बावजूद फसल और पीने के लिए पानी सुरक्षित रखा गया है। जैसलमेर और रामगढ़ जैसे और भी सूखे इलाकों की ओर चलें, जहां चार इंच से भी कम पानी गिरा होगा और अब आगे गिरने वाला नहीं है। लेकिन वहां के कुछ गांव लोगों की 10-20 साल तपस्या के बूते पर आज इतना कह सकते हैं कि हमारे यहां पीने के पानी की कमी नहीं हैं। उधर महाराष्ट्र के भंडारा में तो उत्तरांचल की पौड़ी जिले में भी कुछ हिस्से ऐसे मिल जाएगें। हरेक राज्य में ऐसी मिसालें खोजनी चाहिए और उनसे अकाल के लिए सबक लेने चाहिए। सरकारों के पास बुरे कामों को खोजने का खुफिया विभाग है ही। नेतृत्व को अकाल के बीच भी अच्छे कामों की सुगंध न आए तो वे इनकी खोज में अपने खुफिया विभागों को भी लगा ही सकते हैं।
पिछले दिनों कृषि वैज्ञानिकों और मंत्रालय से जुड़े अधिकारियों व नेताओं ने इस बात पर जोर दिया कि कृषि अनुसंधान संस्थाओं में, कृषि विश्वविद्यालयों में अब कम पानी की मांग करने वाली फसलों पर शोध होना चाहिए। उन्हें इतनी जानकारी तो होनी चाहिए थी कि ऐसे बीज समाज के पास बराबर रहे हैं। समाज ने इन फसलों पर, बीजों पर बहुत पहले से काम किया था। उनके लिए आधुनिक सिंचाई की जरूरत ही नहीं है। इन्हें बारानी खेती के इलाके कहा जाता है। 20-30 सालों में बारानी खेती के इलाकों को आधुनिक कृषि की दासी बनाने की कोशिशें हुई हैं। ऐसे क्षेत्रों को पिछड़ा बताया गया, ऐसे बीजों को और उन्हें बोने वालों को पिछड़ा बताया गया। उन्हें पंजाब-हरियाणा जैसी आधुनिक खेती करके दिखाने के लिए कहा जाता रहा है। आज हम बहुत दुःख के साथ देख रहे हैं कि अकाल का संकट पंजाब-हरियाणा पर भी छा रहा है। एक समय था जब बारानी इलाके देश का सबसे स्वादिष्ट अन्न पैदा करते थे। दिल्ली-मुंबई के बाजारों में आज भी सबसे महंगा गेहूं मध्यप्रदेश के बारानी खेती वाले इलाकों से आता है। अब तो चेतें। बारानी की इज्जत बढ़ाएं।
इसलिए, इस बार जब अकाल आया है तो हम सब मिलकर सीखें कि अकाल अकेले नहीं आता है। अगली बार जब अकाल पड़े तो उससे पहले अच्छी योजनाओं का अकाल न आने दें। उन इलाकों, लोगों और परंपराओं से कुछ सीखें जो इस अकाल के बीच में भी सुजलां, सुफलां बने हुए थे।imran-haider.blogspot.com

तीर्थयात्रा बनाम पर्यटन

विश्व की समस्त नदियों में पवित्रतम है गंगा। यह वर्ष हरिद्वार में पूर्ण कुंभ का वर्ष है। लाखों भक्त अब तक गंगा में स्‍नान कर पुण्य कमा चुके हैं और करोड़ों अभी और पहुंचेंगे। प्रति 12 साल बाद होने वाला यह पर्व अनुपम है और अद्भुत भी। जहां एक ओर तीर्थों में श्रद्धालुओं की बढ़ती संख्या देखकर मन उत्साहित होता है, वहीं कुछ लोगों का व्यवहार और पर्यावरण पर बढ़ते दबाव को देखकर मन भावी की आशंका से भयभीत हो उठता है। इसके लिए आवश्यक है कि तीर्थयात्रा को धर्मभावना से पूरा किया जाये, पर्यटन के लिए नहीं।
तीर्थयात्रा और पर्यटन का उद्देश्य भिन्न है। पर्यटन में भोग-भाव प्रमुख रहता है। इसलिए पयर्टन स्थलों पर लोग होटल, जुआघर, नाचघर, सिनेमा हॉल, पार्क आदि की मांग करते हैं। अनेक पर्यटन स्थल हिमालय की सुरम्य पहाड़ियों में स्थित हैं। अनेक नये पर्यटन स्थल भी बनाये जा रहे हैं। यहां करोड़ों रुपए खर्च कर नकली झरने, पहाड़ियां, बर्फ आदि के दृश्य बनाये जाते हैं। लोग मनोरंजन के लिए यहां आते हैं। अतः उन्हें सुविधाएं मिलें; पर तीर्थों का वातावरण एकदम अलग होना चाहिए। तीर्थ में लोग पुण्यलाभ के लिए आते हैं। अतः यहां धर्मशाला, मंदिर, सत्संग भवन, सामान्य भोजन व आवास की व्यवस्था, स्ान-ध्यान का उचित प्रबंध आदि होना चाहिए। यदि कोई दान देना चाहे तो उसका पैसा ठीक हाथों में जाए। तीर्थयात्रा में कष्ट होने पर लोग बुरा नहीं मानते; पर उनके साथ दुर्व्‍यवहार न हो, यह भी आवश्यक है। इन दिनों तीर्थयात्रा और पर्यटन में घालमेल होने के कारण वातावरण बदल रहा है। इसके लिए शासन-प्रशासन के साथ-साथ हिन्दू समाज भी कम दोषी नहीं हैं।
आज से 20-25 साल पहले तक दुर्गम तीर्थों पर जाने के लिए सड़कें नहीं थीं, लोग पैदल यात्रा करते थे। वहाँ के ग्रामीण यात्रियों का अपने घरों में रुकने और भोजन का प्रबंध करते थे। रात में बैठकर सब लोग अपने अनुभव बांटते थे। इससे तीर्थयात्रियों को उस क्षेत्र की भाषा-बोली, खानपान, रीति-रिवाज आदि की जानकारी होती थी। गांव वालों को भी देश में यत्र-तत्र हो रही हलचलों का पता लगता था। इसीलिए यात्रा के अनुभव को जीवन का सर्वश्रेष्ठ अनुभव माना जाता था। यात्री आगे बढ़ते समय कुछ पैसे वहां देकर ही जाते थे। इस प्रकार तीर्थयात्रियों के माध्यम से इन गांवों की अर्थव्यवस्था भी संभली रहती थी। पर अब सड़कों के जाल और मारुति कल्चर ने यात्रा को सुगम बना दिया है। इससे यात्रियों की संख्या बहुत बढ़ी ह, पर इसके साथ जो प्रदूषण वहां पहुंच रहा है, वह भी चिंताजनक है। आज से 20 साल पहले कुछ हजार तीर्थयात्री ही गोमुख जाते थे, पर इन दिनों कांवड़ यात्रा का प्रचलन पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बहुत तेजी से बढ़ा है। पहले लोग हरिद्वार से ही जल लाते थे, पर अब गंगोत्री और गोमुख से जल लाने की होड़ लगी है। इस कारण अषाढ़ और श्रावण मास में गोमुख जाने वालों की संख्या एक लाख तक पहुंचने लगी है। उन दिनों गोमुख के संकरे मार्ग पर मेला सा लग जाता है। इस संख्या का दबाव वह क्षेत्र झेल नहीं पा रहा है। भोजवासा के जंगल से भोज के वृक्ष गायब हो गये हैं। सब ओर बोतलें, पान मसाले के पाउच और न जाने क्या-क्या बिखरा रहता है। यात्री तो जल लेकर चले जाते हैं; पर कूड़ा वहीं रह जाता है। सर्दी के कारण वह नष्ट भी नहीं होता। अतः इसने स्थानीय लोगों का जीना दूभर कर दिया है।
अनेक धर्मप्रेमी संस्थाएं गोमुख, तपोवन, नंदनवन, जिनमें दिन-रात विद्युत जनरेटर चलते हैं। इससे ग्लेशियर सिकुड़ रहे हैं। उस क्षेत्र के निवासियों तथा सर्वेक्षण के लिए प्रायः जाने वालों का कहना है कि ऐसे तो कुछ साल बाद गंगा में पानी ही रुक जाएगा। फिर टिहरी बांध में बिजली कैसे बनेगी और हरिद्वार में लोग स्ान कैसे करेंगे? इस चिंता को केवल शासन-प्रशासन पर छोड़ने से काम नहीं चलेगा। इस पर सभी धार्मिक और सामाजिक संगठनों को भी विचार करना होगा। अमरनाथ की यात्रा पहले आषाढ़ पूर्णिमा से श्रावण पूर्णिमा तक चलती थी, पर अब इसकी अवधि भी दो मास हो गयी है। इससे भी समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं। शिवलिंग से छेड़छाड़ और उसके पिघलने के समाचार कुछ साल पहले आये थे। तीर्थयात्रियों (या पर्यटकों) के लिए जब मैदान जैसी पंचतारा सुविधाएं वहां जुटाई जाएंगी, तो यह सब होगा ही। अब तो हजारों लोग अधिकृत रूप से यात्रा शुरू होने से पहले ही वहां पहुंच जाते हैं। चार वर्ष पूर्व अंतरराष्ट्रीय ख्याति के एक कथावाचक ने 600 शिष्यों के साथ सात दिन पूर्व वहां पहुंच कर कथा सुनाई। उनके अधिकांश शिष्य अति संपन्न गुजराती हैं। वे उड़नखटोले से वहां गये। उनके लिए भारी विद्युत जनरेटरों की सहायता से सुविधापूर्ण कुटिया, पंडाल और भोजनालय बनाये गये। इन्हें कितना पुण्य मिला, यह कहना तो कठिन है, पर इन्होंने पर्यावरण की कितनी हानि की, यह किसी से छिपा नहीं रहा।
यात्रा मार्ग पर लोग धर्म भावना से प्रेरित होकर भंडारे और सेवा केंद्र चलाते हैं। उनकी भावना सराहनीय ह, पर इसके हानि-लाभ पर खुले मन से विचार आवश्यक है। अब उत्तरांचल के तीर्थ भी सारे साल या फिर कुछ अधिक समय तक खुले रहें, यह प्रयास हो रहा है। किसी भी निर्णय से पूर्व इस पर निष्पक्ष भाव से धार्मिक नेता, वैज्ञानिक और पर्यावरणविदों को विचार करना चाहिए। इसका यह अर्थ नहीं है कि इन दुर्गम तीर्थ और धामों तक सड़कें न पहुंचें। सड़कों के कारण हजारों ऐसे लोग भी यात्रा कर लेते हैं, जो आयु की अधिकता या अस्वस्थता के कारण पैदल नहीं चल पाते। फिर भी पैदल या कष्ट उठाकर तीर्थयात्रा करने का महत्त्व अधिक है। अतः शासन को चाहिए कि वह सड़कों की तरह पैदल पथों का भी विकास करे और लोगों को पैदल यात्रा के लिए प्रेरित करे। युवा एवं सक्षम लोग बस, कार या उड़नखटोले की बजाय पैदल ही जाएं। भले ही जीवन में किसी तीर्थ पर एक बार जायें, पर जायें पूरी श्रध्दा के साथ। उसे एक दिवसीय फटाफट क्रिकेट न समझें। पर अभी का परिदृश्य तो दूसरा ही है। उत्तरांचल के तीर्थस्थानों के बारे में मेरा प्रत्यक्ष अनुभव है कि दिल्ली, मुंबई, कोलकाता के व्यापारी करोड़ों रुपए खर्च कर होटल बंना रहे हैं। इनमें कोक, पैप्सी, पिज्जा और बर्गर तो मिलते हैं, पर पहाड़ में बहुतायत से पैदा होने वाले मक्का, मडुए, कोदू आदि मोटे और गरम अन्न की रोटी या गहत और राजमां की दाल नहीं मिलती। इसीलिए इनमें पर्यटन प्रेमी सम्पन्न लोग रुकते हैं, तीर्थयात्री नहीं। इस बारे में भारत और विदेशों की सोच भिन्न है। पश्चिमी देशों में देवी-देवता और अवतारों की कल्पना नहीं है। वहां का इतिहास भी दो-तीन हजार साल से पुराना नहीं है। लोग ईसा मसीह को मानते हैं या मोहम्मद को। इनसे संबंधित स्थान चार-छह ही हैं; पर भारत में लाखों सालों का इतिहास उपलब्ध है। हिन्दू धर्म के अंतर्गत सैकड़ों पंथ और संप्रदाय हैं। सबके अलग तीर्थ और धाम हैं। सामान्य हिन्दू सबके प्रति श्रध्दा रखता है। भारत का शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र हो, जहां किसी संत या महापुरुष ने धर्म प्रचार न किया हो। इसलिए पूरी भारत भूमि ही पवित्र और पूज्य है।
पहले भारत में लोग गृहस्थाश्रम की जिम्मेदारियों से मुक्त होकर प्रायः समूह में तीर्थयात्रा पर जाते थे और लौटकर पूरे गांव को भोज देकर खुशी मनाते थे। तभी सबको पता लगता था कि जितने लोग गये थे, उनमें से कुछ राह में ही भगवान को प्यारे हो गये। इस प्रकार तीर्थाटन मानव जीवन का उत्सव बन जाता था। कुछ लोग बड़े गर्व से बताते हैं कि वे 50 बार वैष्णोदेवी हो आये हैं या वे हर साल अमरनाथ जाते हैं। क्या ही अच्छा हो कि ये लोग भारत के अन्य तीर्थों पर भी जाएं। देश में चार धाम, 12 ज्योतिलिंग, 52 शक्तिपीठ और उनकी सैकड़ों उपपीठ हैं। सिख गुरुओं के सान्निध्य से पवित्र हुए सैकड़ों गुरुद्वारे हैं। देश-धर्म की रक्षार्थ सर्वस्व होम करने वाले शिवाजी, प्रताप, छत्रसाल से लेकर हरिहर और बुक्का जैसे वीरों के जन्म स्थान हैं। अंग्रेजों के विरुध्द संघर्ष करने वाले नानासाहब और लक्ष्मीबाई से लेकर भगतसिंह और चन्द्रशेखर आजाद जैसे क्रांतिवीरों के जन्म और बलिदान स्थल भी किसी तीर्थ से कम नहीं हैं। सपरिवार वहां जाने से नयी पीढ़ी में देशप्रेम जाग्रत होगा। क्या ही अच्छा हो यदि सामर्थ्यवान लोग हर बार किसी एक प्रदेश का विस्तृत भ्रमण करें। इससे पुण्य के साथ ही इतिहासबोध और देशदर्शन जैसे लाभ भी मिलेंगे।
यदि लोग तीर्थयात्रा का मर्म समझें, तो वे इस दौरान शराब, मांसाहार आदि से दूर रहेंगे। मन शुध्द होने से मार्ग में झगड़ा-झंझट या चोरी का भय भी नहीं रहेगा। यदि कुछ कष्ट हुआ तो उसे प्रभु का प्रसाद मान कर स्वीकार करेंगे। इससे यात्रा में खर्च भी कम होगा और उसका लाभ स्थानीय ग्रामीणों को मिलेगा। व्यक्ति के जीवन में तीर्थयात्रा और पर्यटन दोनों आवश्यक हैं, पर इनके महत्व की ठीक कल्पना रहने से हमारे मन के साथ-साथ तीर्थस्थान भी सुरक्षित और साफ रह सकेंगे।

समझना होगा इंटरनेट के इंद्रजाल को

सायबर क्राईम के लिए हो गया है उपजाउ माहौल तैयार
internet 350x262 समझना होगा इंटरनेट के इंद्रजाल कोअब समय आ गया है कि इस बात पर सर जोडकर बैठा जाए और विश्लेषण किया जाए कि इंटरनेट का सही इस्तेमाल कैसे किया जाए। इंटरनेट की उमर अब 41 साल हो गई है। सितंबर 1969 में अमेरिका में इसका जन्म हुआ था। लास एंजेलिस के कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय में एक कंप्यूटर ने दूसरे कंप्यूटर को ईमेल संदेश सफलता पूर्वक प्रेषित किया था। इसके बाद इंटरनेट ने पीछे मुडकर कभी नहीं देखा।
इसके बाद पडाव दर पडाव तय करके इंटरनेट ने नित नई उंचाईंया तय की हैं। अब तो मामला ईमेल से कोसों आगे बढकर चेटिंग और सोशल नेटवर्किंग वेव साईट्स तक पहुंच गया है। इंटरनेट पर अब वर्चुअल स्पेस पर एकाधिकार की जंग, विज्ञापनदाताओं को आकर्षित करने की होड के अलावा ऑनलाईन बाजार में अपने आप को बेहतर साबित करने की कवायद भी साफ दिखाई पडने लगी है।
चिंताजनक पहलू यह है कि आज इंटरनेट अपने उद्देश्य से भटकता दिखाई देने लगा है। आज लोग इंटरनेट को पोर्न साईट्स (सेक्स से संबंधित अश्लील साईट्स) का अड्डा और टाईम पास का जरिया समझने लगे हैं। बच्चों से लेकर युवा, प्रोढ यहां तक कि वृध्द मन को आकर्षित करने वाले पोर्नोग्राफी सबसे अधिक देखी जाने वाली साईट्स में स्थान पा चुकी हैं। आज छोटे छोटे शहरों में भी अगर इंटरनेट पार्लर का सर्वेक्षण किया जाए तो यहां आठ साल से साठ साल तक के आयुवर्ग के लोगों का आना जाना रहता है। छोटे छोटे बच्चों का कंप्यूटर फ्रेंडली होना अच्छा है, किन्तु उनका रूझान पोर्न साईट्स की ओर होना शुभ संकेत नहीं हैं।
इस बात में कोई संदेह नहीं है कि इंटरनेट को सूचना क्रांति का सबसे सशक्त माध्यम माना जाता है। इस पर एक ओर नित नई जानकारियां, दुर्लभ वीडीयो मिलते हैं। कल तक अखबारों या पत्रिकाओं की कतरनें सहेजकर रखना होता था, आज जमाना बदल गया है। कोई भी जानकारी आपको बस एक क्लिक पर ही उपलब्ध हो जाती है। यह सब इंटरनेट का ही कमाल माना जाएगा। गांधी के विचार हों या माक्र्स की थ्योरी या फिर हिटलर की सोच, आज सर्च इंजन पर सिर्फ टाईप कर दीजिए, पलक झपकते ही इसके हजारों लिंक आपके सामने होंगे, जिनके माध्यम से आप उनके वेब पेज तक पहुंच सकते हैं, वह भी बिल्कुल मुफ्त।
मीडिया ने भी इंटरनेट के साथ कदम ताल मिलाया है। कल तक प्रिंट मीडिया का बोलबाला था। अनेक समाचार पत्र इतने लोकप्रिय हुआ करते थे कि लोग दो दिन बाद भी उसे पढा करते थे। अस्सी के दशक तक प्रिंट को जबर्दस्त सफलता मिली। इसके बाद बाजार में आया इलेक्ट्रानिक मीडिया। समाचार चेनल्स ने लोगों को लाईव कवरेज दिखाया तो इसका जादू सर चढकर बोलने लगा, मगर प्रिंट का अपना एक वजूद था, जो आज भी बना हुआ है। इसके बाद अब वेब पत्रकारिता ने लोगों को अकर्षित किया है। वेव बेस्ड समाचार एजेंसी, समाचार वेब साईट्स को जबर्दस्त सफलता मिल रही है।
अंग्रेजी में तो नेट पर न जाने कितनी समाचार की साईट्स हैं, पर अब हिन्दी में भी इन साईट्स ने धमाल मचाया हुआ है। वेब और प्रिंट मीडिया की खासियत यह है कि आप जब चाहे तब जौन सी चाहे वो खबर देख सकते हैं, पर समाचार चेनल्स में अगर आप उसे देखने से वंचित रह गए तो फिर आपको वह नहीं मिल सकता है।
इसके साथ ही साथ दस साल पहले अस्तित्व में आए ब्लाग का जादू लोगों के सर चढकर बोलने लगा। पहले लोगों को ब्लाग के मायने नहीं पता थे, आज हर विधा के ब्लाग से भरा पडा है इंटरनेट का संसार। ब्लाग एग्रीकेटर्स ने तो ब्लागर्स को नया स्पंदन दिया है। आलम यह है कि ब्लागर्स के ब्लाग पर जाकर अब तो समाचार पत्र पत्रिकाएं खबरें, आलेख, काव्य संग्रह, कहानी, वृतांत आदि को लिफ्ट कर उन्हें प्रोत्साहित कर रहे हैं।
अखबरों की दुनिया में पितृ पुरूष की छवि वाले ”जनसत्ता” अखबार ने तो रोजाना ही एक न एक ब्लाग को अपने संपादकीय पेज में स्थान देना आरंभ किया है। इसके अलावा कुछ ब्लागर्स ने प्रिंट में छपे ब्लाग्स को एक जगह एकत्र कर अनुकरणीय प्रयास आरंभ किया है, जिससे सभी यह देख सकते हैं कि किस ब्लाग को कहां सराहा गया है।
इंटरनेट के अच्छे के साथ बुरे पहलू भी हैं। सरकारों की अनदेखी के चलते सोशल नेटवर्किंग वेवसाईट्स पर तंबाखू और धूम्रपान को बढावा देने के विज्ञापनों को खासा स्थान दिया जा रहा है। अनेक विज्ञापन तो इतने लुभावने होते हैं कि युवाओं के कोमल मन में सिगरेट का कश लगाने की कसक पैदा हो जाती है। सोशल नेटवर्किंग साईट पर स्मोकिंग के अनुभव बांटने वाली कम्यूनिटी काफी चर्चित हो हो रही हैं।
तम्बाकू नियंत्रण के लिए बने कानून ”सिगरेट एण्ड अटर टौबैको प्रॉडक्ट्स (प्रोहिबिशन ऑफ एडवराटाईजमेन्ट एण्ड रेगुलेशन ऑफ टे्रड एण्ड कामर्स, प्रोडक्शन, सप्लाई एण्ड डिस्टीब्यूशन) एक्ट 2003 के तहत उत्पादनों के विज्ञापन हेतु बनाई गई आचार संहिता के उल्लंघन पर पांच साल के कारावास का भी प्रावधान है। बावजूद इसके नेट पर इन प्रतिबंधित चीजों को परोसा जा रहा है।
इस सबसे उलट इंटरनेट के माध्यम से साईबर अपराध को बढावा मिल रहा है। इंटरनेट का इंद्रजाल इतना अधिक पसर चुका है कि अब इस पर आसानी से नजर नहीं रखी जा सकती है, जिसका फायदा अपराधी आसानी से उठा रहे हैं। आज अपराधी कंप्यूटर लिट्रेट और कंप्यूटर फ्रेंडली हो गए हैं। साईबर अपराध के प्रति भारत क्या किसी भी देश की सरकार संजीदा नहीं है जो कि आश्चर्य और भविष्य में होने वाली घटनाओं के लिए सशंकित होने की बात है। भारत में भी साईबर अपराध को बहुत गभीरता से नहीं लिया जा रहा है।
आज इंटरनेट को सत्तर फीसदीं लोगों ने सेक्स और पोर्न देखने सुनने का जरिया बना लिया है। दुनिया भर के देशों को चाहिए कि अब इंटरनेट पर परोसी जाने वाली अश्लीलता को रोकने कानून बनाएं। जागरूकता अभियान चलाकर इंटरनेट के सही इस्तेमाल के मार्ग प्रशस्त किए जाएं। वर्तमान समय में महती जरूरत इस बात की है कि भटकाव के मार्ग पर अग्रसर इंटरनेट को सही दिशा में कैसे लाया जाए।

राष्ट्र विभाजक ‘दुर्योधनों’ को किसने बनाया शक्तिशाली?

महाराष्ट्र की राजधानी तथा देश की गौरवशाली औद्योगिक महानगरी मुंबई को लेकर देश में घमासान मचा हुआ है। महाराष्ट्र राज्य की सत्ता पर क़ब्ज़ा जमाने की होड़ में जहां शिव सेना तथा महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) कथित घोर एवं कट्टर मराठावाद को लेकर एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं वहीं ठाकरे परिवार की इस स्वार्थ पूर्ण राजनैतिक महत्वाकांक्षा के परिणामस्वरूप एक बार फिर देश के टूटने का ख़तरा बढ़ता दिखाई देने लगा है। मनसे प्रमुख राज ठाकरे इस विषय पर सीधे तौर से अपने विचार भी व्यक्त कर चुके हैं। हालांकि मराठों के प्रति हमदर्दी का ढोंग करने वाले ठाकरे ख़ानदान से यह सवाल भी किया जा रहा है कि स्वयं उत्तर भारत के मध्य प्रदेश राज्य से अपना पुश्तैनी सम्बंध रखने वाला ठाकरे परिवार अचानक मराठों का क्षत्रप कैसे बन बैठा। साथ साथ यह प्रश् भी उठ रहा है कि देश को तोड़ने की कोशिश में लगे बाल ठाकरे को इस योग्य बनाने में तथा राजनैतिक रूप से उनके कद को और ऊंचा करने में कौन-कौन सी शक्तियां ठाकरे की सहायक रही हैं।
सूत्रों के अनुसार बाल ठाकरे 1960 के आसपास के समय में अखबारों में अपने द्वारा बनाए गए कार्टून प्रकाशित कराया करते थे। इसी राह पर चलते चलते उन्होंने पत्रकारिता शुरू कर दी। पत्रकारिता करते हुए ठाकरे की नजरें इस विषय पर जा टिकीं कि मुंबई में होटलों, ढाबों, जैसे स्थानों पर कितने लोग और किन-किन राज्यों के लोग काम करते हैं। सर्वप्रथम उन्होंने दक्षिण भारतीयों की एक सूची बनाई तथा उनके विरूद्ध मराठा लोगों को नफरत का पाठ पढ़ाना शुरू किया। मजे क़ी बात तो यह है कि यह ठाकरे परिवार स्वयं को खांटी हिंदुत्व का भी अलमबरदार बताता रहा और साथ ही साथ मराठावाद के परचम को भी उठाए रखा। ग़ैर मराठा का मुंबई में विरोध करते-करते ठाकरे ने मुंबई में सांप्रदायिकता का भी पोषण करना शुरु कर दिया। और फलती-फूलती खुशहाल मुंबई को सांप्रदायिकता का केंद्र बना डाला। सांप्रदायिक नंफरत की यह आग कई बार मुंबई व महाराष्ट्र के अन्य कई शहरों को अपनी चपेट में ले चुकी है। अब यही बाल ठाकरे व उनकी गोद में पले भतीजे राज ठाकरे अपने हिंदुत्ववादी केंचुल को फेंक कर उत्तर भारतीयों के विरुद्ध भी उठ खड़े हुए।
सवाल यह है कि बाल ठाकरे को एक कार्टूनिस्ट से मातोश्री अर्थात् शिवसेना प्रमुख के मुख्य कार्यालय तक पहुंचाने में तथा उसे इतना शक्तिशाली बनाने में किन शक्तियों ने उसका साथ दिया। शिवसेना कभी भी पूर्ण बहुमत के साथ राज्य विधानसभा के चुनाव नहीं जीती। इसने हमेशा भाजपा से ही समझौता किया। चाहे शिवसेना ने महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव लड़े हों या राज्य की संसदीय सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किए हों। यहां तक कि महाराष्ट्र में शिवसेना का मुख्यमंत्री बनने से लेकर देश की लोकसभा में स्पीकर के पद तक शिवसेना के उम्मीदवारों ने अपनी मंजबूत उपस्थिति दर्ज कराई है। जाहिर है अपने अकेले बलबूते पर न तो शिवसेना राज्य के मुख्यमंत्री पद तक पहुंच सकती थी न ही उसके सदस्य मनोहर जोशी लोकसभा के अध्यक्ष निर्वाचित हो सकते थे। परंतु देश के इतने महत्वपूर्ण एवं संवैधानिक पदों पर शिवसेना पहुंची। और नि:संदेह उस की सफलता की इस यात्रा में शिवसेना का साथ भारतीय जनता पार्टी ने दिया।
भाजपा को बाल ठाकरे में मराठा प्रेम के साथ-साथ हिंदुत्व के प्रति भी गहरा लगाव दिखाई दे रहा था। शायद यही वजह थी कि भाजपा ने शिवसेना को एक दक्षिणपंथी विचारधारा रखने वाला अपना हमख्याल संगठन मानते हुए उसके साथ राजनैतिक रिश्ता स्थापित कर लिया। 1990 के दशक में जब भाजपा पूरे देश में अयोध्‍या स्थित विवादित रामजन्म भूमि-बाबरी मस्जिद मुद्दे को हवा देकर देश में सांप्रदायिकता के आधार पर हिंदुत्व की अलख जगा रही थी तथा इसी सांप्रदायिकता के बल पर हिंदू मतों के ध्रुवीकरण की कोशिश कर रही थी उस समय यही शिवसेना भाजपा के शाना-बशाना साथ-साथ चल रही थी। यहां तक कि 6 दिसंबर 1992 की अयोध्या घटना में भी शिवसेना के कार्यकर्ताओं व नेताओं ने बढ़चढ़ कर हिस्सा भी लिया था। प्रश्न यह है कि क्या उस समय बाल ठाकरे की नीति व नीयत से भाजपा वाकिंफ नहीं थी? या उसने महाराष्ट्र में केवल कांग्रेस का मंजबूत विकल्प बनने हेतु उस बाल ठाकरे की शिवसेना से गठबंधन करना जरूरी समझा जो आज देश को तोड़ने की भाषा सरेआम बोल रहा है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जोकि स्वयं को राष्ट्रवाद का इतना बड़ा पैरोकार बताता है जितना कि शायद कोई दूसरा संगठन या दल दावा नहीं करता वह संघ भी अब बाल ठाकरे के अलगाववादी प्रयासों के विरुद्ध हो गया है। संघ को संभवत: कल तक इसी शिवसेना में हिंदुत्व तथा राष्ट्रवाद दोनों ही विशेषताएं दिखाई देती थीं। परंतु आज जब ठाकरे ने अलगाववाद का ‘फन’ काढ़ कर अपनी वास्तविकता की पहचान कराई है तब संघ ने शिवसेना की आलोचना करने का साहस किया है। संघ शिवसेना के विरुद्ध इस मुद्दे पर अपने मराठा स्वयंसेवकों को किस हद तक अपने साथ जोड़े रख पाने में सफल हो पाता है यह भी शीघ्र ही पता चल जाएगा। परंतु इतना तो जरूर है कि कार्टूनिस्ट ठाकरे को मातोश्री का ‘सेना प्रमुख ठाकरे’ बनाने में तथा मुंबई में एक शक्तिशाली नेता के रूप में स्थापित करने में इसी संघ तथा भाजपा दोनों का ही बराबर का योगदान है।
कहना गलत नहीं होगा कि सांप्रदायिक व सामाजिक हिंसा पर विश्वास करने वाली शिवसेना ने भाजपा से राजनैतिक गठबंधन केवल इसीलिए किया था और आज तक यह गठबंधन फिलहाल कायम भी है क्यों कि दोनों ही संगठन अतिवादी विचारधारा के पक्षधर हैं। दोनों ही संगठन धर्म निरपेक्षता को पानी पी-पी कर कोसते हैं। भाजपा यदि घुमा फिरा कर इस राजनैतिक निष्कर्ष पर पहुंचने की चेष्टा में लगी रहती है कि भारतवर्ष हिंदुओं का देश है तथा यहां की प्रत्येक संपदा पर केवल हिंदुओं का ही पहला अधिकार है। ठीक इसी प्रकार बाल ठाकरे ने भी अब उसी ढंग की भाषा महाराष्ट्र को लेकर बोलनी शुरु कर दी है। वह भी मुंबई को केवल मराठों की और वह भी हिंदू मराठों की मुंबई बता रहे हैं। अब उनके निशाने पर वही उत्तर भारतीय हैं जिन्होंने दुर्भागयवश कल्याण सिंह को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री चुना था तथा उसी दौरान इन्हीं भाजपा, संघ व विश्व हिंदू परिषद समर्थकों ने शिव सैनिकों को मुंबई से अयोध्या आने का न्यौता दिया था।
उपरोक्त घटनाक्रम कोई आरोप मढ़ने अथवा किसी को बेवजह बदनाम करने के प्रयास जैसी बात नहीं बल्कि 1992 से लेकर मुंबई के आज तक के हालात पर बड़ी ही सूक्ष्मता से नंजर रखने व इसका अध्ययन करने की जरूरत है। आज शिव सेना व मनसे मुंबई में बैठकर पूछ रहे हैं कि ‘देश का कैसा संविधान तो कैसा कानून। मुंबई केवल हमारी है’। यही कहकर ठाकरे परिवार व उनके समर्थक देश के संविधान व कानून को ठेंगा दिखा रहे हैं। याद कीजिए 6 दिसंबर 1992 की घटना तथा उस घटना का संवैधानिक तथा वैधानिक पहलू। और उस घटना को अंजाम देने वाले पात्रों के चेहरे। तब भी देश के एक सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में कल्याण सिंह ने अयोध्या के विवादित स्थल की रक्षा के लिए झूठा हलफनामा सुप्रीम कोर्ट में दाख़िल किया था। और उसके बावजूद अपनी सत्ता, अपनी पुलिस और अपने ही द्वारा निमंत्रित भीड़ के बलबूते पर विवादित ढांचे को कुछ इस अंदांज में गिराया था गोया देश में न कोई संविधान है, ना कोई कानून, न कोई निर्वाचित सरकार और न ही मुख्यमंत्री की कोई जिम्मेदारी। और उस समय यही सभी शक्तियां एक स्वर में कह रही थीं कि ‘अयोध्या मुद्दा देश के हिंदुओं की भावनाओं से जुड़ा हुआ मुद्दा है, कानून संविधान से इसका समाधान नहीं हो सकता । उस समय यही ठाकरे साहब इन्हीं ‘राष्ट्रवादी शक्तियों’ के साथ-साथ चल रहे थे।
आज ठाकरे ठीक उसी अंदांज में फरमा रहे हैं कि मुंबई मराठों की भावनाओं से जुड़ा मुद्दा है। और वे भी वैसे ही संविधान व कानून को ठेंगा दिखाने को तत्पर बैठे हैं जैसे कि पहले कभी उनकी सहयोगी तथा स्वयं को राष्ट्रभक्त, राष्ट्रवादी और न जाने क्या-क्या बताने वाली शक्तियों ने दिखाया था। देश में ठाकरे सरीखी और भी कई शक्तियां व संगठन ऐसे हैं जिनसे इन तथाकथित राष्ट्रवादियों के सुर मिलते हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि कल वे भी ठाकरे की ही तरह उनसे प्रेरणा लेते हुए यही भाषा बोलने लग जाएं कि यह तो हमारे राज्य से जुड़ा हमारे राज्य के लोगों की भावनाओं का मामला है। ऐसे में उन वास्तविक राष्ट्रभक्तों का क्या होगा जो राज्य से पहले तथा धर्म जाति व क्षेत्र आदि के सीमित व संकुचित बंधनों से भी पहले केवल और केवल राष्ट्रवाद व राष्ट्रीयता को सर्वोपरि मानते हैं तथा उन्हें सर्वोच्च समझते हैं।
बेशक दक्षिणपंथी शक्तियां स्वयं को कांग्रेस का विकल्‍प प्रमाणित करने के प्रयास में यहां-वहां क्षेत्रीय हितों का पोषण करने वाले राजनैतिक दलों से समझौता अवश्य करती हैं परंतु आज जिस प्रकार देश की जनता ठाकरे परिवार के साथ पूरी सख्ती न बरतने के लिए कांग्रेस को संदेह की नंजरों से देख रही है ठीक उसी प्रकार यही जनता उन ताकतों को भी कभी माफ नहीं करेगी जो ढोंग तो राष्ट्रीयता का करते फिरते हैं परंतु इन्हीं की संगत व सहयोग से देश में और भी कई दुर्योधन तैयार किए जा रहे हैं।
-imran haider 

बस्तर में सिमट रहा है माओवादियों का दायरा

-दलम की युवतियों के यौन शोषण के आदी हो गए माओवादी
-हत्या और लूट हो गया है उनका पेशा
-माओवादी आंदोलन का कोई भविष्य नहीं
image naxal 350x237 बस्तर में सिमट रहा है माओवादियों का दायरा पुलिस और अर्धसैनिक बलों के बढ़ते दबाव से माओवादी इस समय भारी मुश्किल में हैं। इसके बावजूद वे अपनी कमजोरी प्रकट न होने देने की रणनीति के तहत बस्तर के जंगल में रह-रह कर जहां-तहां बारूदी धमाके और हिंसक गतिविधियों को अंजाम दे रहे हैं। माओवादियों के सामने सबसे बड़ी समस्या यह है कि अपनी ही सिद्धांतहीन हरकतों से छत्तीसगढ़ में उनकी बुनियाद खिसक रही है। बस्तर में उनका असली चेहरा इस कदर बेनकाब हो गया है कि खुद उनके कैडर के लोगों को अब यह महसूस हो रहा है कि माओवाद का कोई भविष्य नहीं है। हत्या, लूटपाट, ठेकेदारों से लेवी की वसूली और आदिवासी महिलाओं की इज्जत-आबरू बेखौफ लूटने की वजह से लोग उन्हें ‘दादा’ कहने लगे हैं। माओवादियों की ये हरकतें उनके कैडरों को ही सिद्धांतहीन लगती हैं। इन हरकतों की वजह से खुद उनके कैडर यह मानने लगे हैं कि माओवादियों और लुटेरों-अपराधियों के बीच फर्क करना उनके लिए अब मुश्किल हो रहा है। इस हकीकत से अवगत हो जाने के बाद उनके फौजी दस्ते के लोगों का माओवादियों से मोहभंग होने लगा है और वे हमेशा ‘दादा’ का साथ छोडऩे की ताक में हैं। मौका पाकर कई लोग तो भाग भी चुके हैं उनके चंगुल से। दंतेवाड़ा के किरंदुल, बचेली, सुकमा, नकुलनार, कुआकोंडा, गादीरास, मोखपाल, मैलाबाड़ा, चंगावरम, कोर्रा, दोरनापाल, केरलापाल, कोंटा और जगरगुंडा के घने जंगलों में सीधे-सादे आदिवासियों से बातचीत करने के बाद पिछले दिनों यही हकीकत उभर कर सामने आई।
दंतेवाड़ा से सुकमा और फिर सुकमा से नेशनल हाइवे 221, जो आंध्रप्रदेश के भद्राचलम तक जाता है, यह बस्तर का एक महत्वपूर्ण नक्सल प्रभावित इलाका है। इस हाइवे की कुल लंबाई 329 किलोमीटर है। यह आंध्र प्रदेश के विजयवाड़ा से शुरू होकर छत्तीसगढ़ के जगदलपुर में आकर समाप्त होता है। छत्तीसगढ़ में इसकी कुल लंबाई 174 किलोमीटर है। इस नेशनल हाइवे के दोनों ओर घने जंगल हैं मगर यह सिर्फ कहने भर को नेशनल हाइवे है। एक वाहन गुजरने भर की इस सड़क की हालत जगह-जगह बहुत जर्जर है। इस इलाके के लोग कहते हैं कि माओवादियों ने इसे जगह- जगह खोद कर और लैंडमाइंस लगाकर बर्बाद कर दिया है। सरकार ने मिट्टी और पत्थर के टुकड़े भर कर इस हाइवे को बमुश्किल यातायात के काबिल बना तो जरूर दिया है मगर अब भी इस हाइवे से बेहतर कई जगह की ग्रामीण सड़कें हैं। लोगों का कहना है कि नेशनल हाइवे होने की वजह से न तो राज्य सरकार इसपर ध्यान दे रही है न ही केंद्र सरकार जबकि इस इलाके के विकास और माओवादियों पर काबू पाने के लिए इसका न सिर्फ दुरुस्त होना जरूरी है बल्कि इसे डबल लेन भी प्राथमिकता के आधार पर करना आवश्यक है। छत्तीसगढ़ को आंध्रप्रदेश से जोडऩे वाले इस नेशनल हाइवे पर दिन में माल से लदे ट्रकों की आवाजाही देखने को मिलती है। आंध्रप्रदेश, उड़ीसा और छत्तीसगढ़ तक करखनिया माल और खनिज की ढुलाई के लिए यह सड़क बेहद जरूरी है इसलिए ट्रक चालकों के लिए इस हाइवे से गुजरना उनकी मजबूरी है। इस नेशनल हाइवे से उस इलाके के जंगली गांवों को जोडऩे के लिए राज्य सरकार ने इसके दोनों ओर जहां- तहां सड़कों के निर्माण की योजना तो बनाई है, कई जगह कच्ची सड़कें बन भी गई हैं मगर उन सड़कों के कंक्रीटीकरण या डामरीकरण का काम नहीं हो पाया है। माओवादी नहीं चाहते कि वे सड़कें बनें क्योंकि सड़क बन जाने से आदिवासियों तक विकास की रोशनी पहुंच जाएगी और इस रोशनी में ‘दादा’ यानी माओवादियों के चेहरे बेनकाब हो जाएंगे।
maoists21 300x268 बस्तर में सिमट रहा है माओवादियों का दायरा बस्तर का यह वह इलाका है जहां माओवादियों ने अब तक सबसे अधिक हिंसा और रक्तपात किया है। इस नेशनल हाइवे के किनारे कुछ जगहों पर जैसे भूसारास और रामपुरम में सीआरपीएफ के कैंप हैं। पिछले दो साल में इस इलाके में माओवादियों पर पुलिस फोर्स का दबाव इतना बढ़ गया है कि दिन में इस हाइवे से गुजरना अब उतना खतरनाक नहीं रह गया। नकुलनार और गादीरास समेत कई जगहों पर साप्ताहिक बाजार लगे हुए मिले मगर शाम होने से दो घंटे पहले ही बाजार समाप्त हो गया। इसकी वजह यह है कि ग्रामीण सूरज ढलने से पहले सुरक्षित अपने गांव लौट जाना चाहते हैं। लोग सामान्य जिंदगी जीना तो चाहते हैं मगर ‘दादाओं’ का खौफ उनमें अब भी कायम है। हाइवे के किनारे कुछ गांवों के पास दो- एक जगह मुर्गों की लड़ाई के आयोजन भी दिखे। मनोरंजन के लिए आयोजित इस तमाशे में बड़ी संख्या में आदिवासी हाथ में दस- दस रुपए के नोट लिए उस मैदान को घेरे हुए इस में शिरकत करते दिखे जिसमें मुर्गे की लड़ाई चल रही थी। मतलब कि उस आदिवासी इलाके के लोग सामान्य जिंदगी जीना चाहते हैं, मनोरंजन करना चाहते हैं मगर ‘दादाओं’ यानी माओवादियों का खौफ अब भी उनके सिर पर नाच रहा है। अब से दो साल पहले ये ग्रामीण और आदिवासी इस इलाके में आसमान में सूरज के रहते न तो ढंग से बाजार कर सकते थे न ही मनोरंजन। लोगों को यह जो थोड़ी सी राहत मिली है वह ‘दादाओं’ पर पुलिस फोर्स के बढ़ते दबाव का प्रतिफल है। लोगों से बात करने पर यह बात साफ- साफ सामने आई कि इसी तरह पुलिस फोर्स का दबाव बना रहा तो दो साल में इस इलाके से माओवादियों का सफाया तय है और आदिवासियों में ‘दादाओं’ की दहशत खत्म हो जाएगी।
दरअसल केंद्र सरकार ने राज्य सरकारों के साथ समन्वय स्थापित कर पिछले कुछ महीनों में माओवादियों के खिलाफ जिस तरह संयुक्त अभियान चला रखा है उससे माओवादी भारी परेशान हैं। इसी परेशानी में वे अब अभियान रोकने के लिए केंद्र पर दबाव बना रहे हैं। केंद्रीय गृहमंत्री पी चिदंबरम को माओवादियों ने इसी तिलमिलाहट में हमले की धमकी भी दी है। माओवादी अपने उन बुद्धिजीवी कैडरों को भी इस काम में लगाए हुए हैं जो दिल्ली समेत अन्य शहरी इलाकों में मानवाधिकार की आड़ लेकर ‘दादाओं’ के खिलाफ जारी पुलिस कार्रवाई का विरोध कर रहे हैं। हार्डकोर माओवादियों को भी इस बात का अहसास अब होने लगा है कि उनके कैडर में शामिल आदिवासी युवकों और युवतियों को माओवाद के सपने दिखाकर बहुत दिनों तक संगठित रखना आगे चलकर अब मुश्किल नहीं तो आसान भी नहीं होगा। वे यह भलीभंति जानते हैं कि उनके हिंसक आतंक की वजह से जो आदिवासी अभी उनका विरोध नहीं कर रहे या चुप हैं वे कभी भी विरोध का झंडा उठा सकते हैं। यह स्थिति इसलिए उत्पन्न हुई है क्योंकि आदिवासी उनकी रंगदारी और दादागीरी से आजिज आ चुके हैं। इसीलिए अब वे उन्हें माओवादी की जगह ‘दादा’ कहते हैं। अच्छी-खासी संख्या में युवक और युवतियां माओवादी दस्ते से भाग भी चुके हैं। यात्रा के इस क्रम में जगरगुंडा के जंगली इलाके में ऐसी कई युवतियों से मुलाकात हुई। उनसे बातचीत में जो तथ्य सामने आए वे गरीबों और शोषितों के हित के लिए हिंसा और हथियारबंद माओवादियों की हकीकत खोलने के लिए काफी हैं।
छत्तीसगढ़- आंध्रपद्रेश की सीमा पर जगरगुंडा जंगल में पोरियम पोजे नाम की एक युवती का, जो पांच साल से ज्यादा वक्त से विजय दलम में सक्रिय है, कहना है कि माओवादी आंदोलन का कोई भविष्य नहीं है। पोजे लगभग तीस साल की युवती है जिसने 12 बोर की बंदूक थाम कर आधा दर्जन से अधिक माओवादी हमलों में उसने हिस्सा लिया। उसका साफ कहना है कि शुरू में वह माओवादियों के सिद्धांत से प्रभावित जरूर हुई। वे लोग एक दिन शाम में हमें घर से जबरन उठा कर ले गए थे। मगर पांच साल से भी अधिक दिनों तक इसमें सक्रिय रहने के बाद अब इस आंदोलन से उसका मोहभंग हो गया। उसे ऐसा लगा कि माओवादी लड़ाके सिद्धांत से भटक चुके हैं और वे अब लुटेरे और हत्यारे हो गए हैं। सिद्धांत से उनका अब कोई लेना-देना नहीं रह गया है। उसने कहा कि माओवादियों के संघर्ष को उसने बहुत करीब से देखा और समझा है। शोषितों – पीडि़तों के कल्याण के नाम पर शुरू की गई यह हथियारबंद लड़ाई आतंक की राजनीति के रूप में तब्दील हो गई। ‘दादा’ लोग गांव- गांव में आतंक मचा रहे हैं। निर्दोष ग्रामीणों की सरेआम हत्या कर रहे हैं। इसलिए उसका इससे मोहभंग हो गया है। आतंक की इस राजनीति को वह हमेशा के लिए अलविदा कहने के लिए तैयार है। पोजे ने कहा- शुरू में दादाओं (माओवादियों) ने कहा कि वे लोग भारत सरकार का तख्तापलट कर अपना शासन कायम करेंगे। इस सरकार में उनका भला होने वाला नहीं है। अपना शासन होने पर वे गरीबों को जमीन, मकान व अनाज देंगे…. रोजी-रोजगार देंगे। मगर दादाओं ने लेवी वसूली, लूटपाट और हत्याओं का सिलसिला जिस कदर चला रखा है उससे तो ऐसा लगता है कि इस आंदोलन का अब कोई भविष्य नहीं है… इससे गरीबों का कोई भला होने वाला नहीं है।
पोजे मुडिय़ा आदिवासी युवती है। वह हिंदी नहीं जानती। पिछले कुछ महीनों से वह मुख्य धारा में आने के लिए हिंदी बोलने- समझने की कोशिश कर रही है इसलिए वह टूटी-फूटी हिंदी ही बोल पाती है। उससे बात करने में एक दुभाषिए ने सहायता की। उसने साफ-साफ कहा कि ‘दादा’ बस्तर में लुटेरे बन गए हैं… हत्यारे बन गए हैँ, क्रांति के नाम पर वे निर्दोष लोगों की हत्यएं कर रहे हैं तथा व्यापारियों और अन्य लोगों से रंगदारी व लेवी वसूलते हैं। …. इतना ही नहीं वे दलम में शामिल महिलाओं और युवतियों का यौन शोषण करते हैं। उसने कहा वह इस बात की गवाह है और उसका यौन शोषण करने की भी कोशिश की गई .. इससे उसका मन ‘दादाओं’ के प्रति घृणा से भर गया। बड़े गुस्से में उसने कहा कि हत्यारे और लुटेरे जो काम करते हैं ‘दादा’ लोग भी तो वही सब कर रहे हैं.. फिर माओवादियों और लुटेरों व हत्यारों में क्या अंतर रह गया? पोजे कहती है कि पुलिस से उसे अब कोई डर नहीं लगता। वह अब भी अविवाहित है और अपने गांव लौट जाने का मन बना चुकी है। मौका मिलते ही कभी भी भाग निकलेगी। वह विवाह कर सामान्य जिंदगी जीना चाहती है। उसका कहना है कि हिंसा और आतंक की इस राजनीति का न तो कहीं अंत दिखता है, न ही कोई भविष्य। पोजे ने कहा- ‘दादाओं’ का कहना है कि उनका जनाधार बढ़ रहा है जबकि उसका अनुभव है पुलिस के बढ़ते दबाव के कारण पिछले एक साल में ‘दादाओं’ पर न सिर्फ खतरा बढ़ा है बल्कि वे डर के मारे एक जंगल छोड़ दूसरे जंगल में पनाह लेते फिर रहे हैं। उसने कहा कि हकीकत यह है कि बस्तर में दिन पर दिन ‘दादाओं’ का दायरा सिमटता जा रहा है।

Monday, February 8, 2010

नक्सली मीडिया का अतिवाद और छत्तीसगढ़

परिचर्चा : राज ठाकरे की राजनीति के बारे में आप क्‍या कहते हैं?

हाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के प्रमुख राज ठाकरे ने मराठी मानुष के नाम पर महाराष्ट्र में रह रहे ग़ैर-मराठियों के ख़िलाफ़ पिछले कुछ समय से अभियान चला रखा है।
हम यहां मनसे प्रमुख राज ठाकरे का बयान प्रकाशित कर रहे हैं-
नए अकादमिक सत्र की शुरुआत होने जा रही है और हम इन शिक्षण संस्थानों पर ऩजर रखेंगे। हम जानते हैं कि उत्तर-प्रदेश और बिहार के ये प्रभावी छात्र अहंकारी व्यवहार करते हैं और छेड़छाड़ आदि में लिप्त रहते हैं। अगर उनका रवैया नहीं बदला तो उन्हें सबक सिखाया जाएगा। (महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के कार्यकर्ताओं ने बिहार और उत्तर प्रदेश के छात्रों को कई इलाकों में घेर-घेर कर मारा। परीक्षा केंद्रों में घुसकर भी छात्रों की पिटाई और उन्हें वहां से भगा दिया।) छात्रों की पिटाई जायज है और पार्टी का यह अभियान जारी रहेगा।
उत्तर भारतीयों को महाराष्ट्र की संस्कृति से खिलवाड़ नहीं करने देंगे। बिहार से आए लोग ‘छठ का ड्रामा’ करके मुंबई में वर्चस्व स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं। महाराष्ट्र में सिर्फ महाराष्ट्र दिवस मनाया जाएगा।
महाराष्ट्र के निवासी होने के बावजूद फिल्‍म अभिनेता अमिताभ बच्‍चन ने राज्य के लिए ख़ास कुछ नहीं किया। जब उन्हें (अमिताभ को) चुनाव लड़ना था तो वह इलाहाबाद चले गए। उन्होंने मुंबई से चुनाव क्यों नहीं लड़ा? यहाँ तक कि ब्रांड अंबेसडर बनने के लिए भी उन्होंने उत्तर प्रदेश को ही चुना। (सुपरस्टार अमिताभ बच्चन के घर पर राज ठाकरे के गुंडों ने हुड़दंग मचाया।)
भाषा बोलना, लिखना और पढ़ना आने से ही केवल काम नहीं चलेगा। मुंबई में उसे ही नौकरी दी जानी चाहिए जो इस राज्य में जन्मे हैं।
हिंदी राष्ट्रभाषा नहीं है। उसे केवल आधिकारिक भाषा का दर्जा प्राप्त है। संविधान में ये कहीं नहीं लिखा है कि हिन्दी राष्ट्रभाषा है फिर इसे लेकर इतना बवाल क्यों मचाया जा रहा है।  किसी की हिम्मत कैसे हो जाती है कि वो महाराष्ट्र में हिंदी में शपथ ले। (राज ठाकरे की धमकी के बावजूद विधानसभा में हिंदी में शपथ लेने पर समाजवादी पार्टी के विधायक अबू आजमी को महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के एक विधायक राम कदम ने थप्पड़ मार दिया। उनके साथ हाथापाई की गई और उनपर लात-घूंसे भी बरसाए गए। राज ने विधानसभा में हिन्दी में शपथ लेने पर सपा विधायक अबू आजमी से हाथापाई करने वाले अपने विधायकों की पीठ थपथपाई।)
अगर महाराष्‍ट्र अलग राष्‍ट्र बन जाए तो इसके लिए हम जिम्‍मेदार नहीं होगे।
BJP logo परिचर्चा : राज ठाकरे की राजनीति के बारे में आप क्‍या कहते हैं?भाजपा का कहना है कि महाराष्ट्र में जो कुछ हो रहा है, वह कांग्रेस की घृणित विभाजनकारी राजनीति का खेल है। वह महाराष्ट्र का सामाजिक तानाबाना छिन्न-भिन्न कर प्रदेश को अराजकता के माहौल में झोंकना चाहती है। भाजपा का मानना है कि दरअसल कांग्रेस राज ठाकरे को मोहरा बनाकर मराठी वोटों को बांटने के साथ गैर मराठी वोटों को आंतकित कर हड़पना चाहती है।
orgmasthead परिचर्चा : राज ठाकरे की राजनीति के बारे में आप क्‍या कहते हैं?कांग्रेस राज ठाकरे को हीरो बनाकर अपने पैर पर कुल्हाड़ी मार रही है। गौरतलब है कि 70 के दशक में बाल ठाकरे ने जब दक्षिण भारतीयों के खिलाफ अभियान चलाया था तब भी कांग्रेस का हाथ उनकी पीठ पर था और अब राज ठाकरे तथा उनके समर्थकों ने समूचे महाराष्ट्र में जो हिंसात्मक अभियान चलाया है उसे भी वहां की कांग्रेस सरकार के रवैये ने बल प्रदान किया है।
shivsena परिचर्चा : राज ठाकरे की राजनीति के बारे में आप क्‍या कहते हैं?शिव सेना का कहना है कि राज ठाकरे का अंजाम जिन्ना जैसा ही होगा। जिन्ना ने देश तोड़ा और राज ठाकरे मराठी समाज को तोड़ रहे हैं। राज मराठियों को कांग्रेस की सुपारी लेकर तोड़ने की कोशिश कर रहे हैं। राज ठाकरे और उनके कार्यकर्ता “चूहा” हैं।

विलुप्त की कगार पर भाषाएं

आज सुबह जैसे ही अख़बार उठाया एक छोटी सी खबर ने सोचने पर मज़बूर कर दिया…खब़र थी अंडमान की एक प्राचीन भाषा को बोलने वाली एकमात्र महिला बोआ का निधन। 85 वर्षीय बोआ के देहांत के बाद अब इस भाषा को बोलने वाला कोई नहीं बचा है। बोआ बो भाषा की जानकार थी और ये भाषा दुनिया की सबसे प्राचीन भाषाओं में से एक थी। भाषाओं का संकट विकास की वेदी पर चढ़ती बलि ही है। भाषा विज्ञानियों की माने तो हर पखवाड़े एक भाषा लुप्त हो रही है। आज स्थिति यह है कि संसार में प्रचलित करीब 6000 भाषाओं में से एक-चौथाई को बोलने वाले सिर्फ एक ही हजार लोग बचे हैं। इनमें से भी सिर्फ 600 भाषाएं ही फिलहाल सुरक्षित होने की श्रेणी में आती हैं। किसी नई भाषा के जन्मने का कोई उदाहरण भी हमारे सामने नहीं है दुनिया भर में इस वक्त चीनी, अंगरेजी, स्पेनिश, बांग्ला, हिंदी, पुर्तगाली, रूसी और जापानी कुल आठ भाषाओं का राज है। दो अरब 40 करोड़ लोग ये भाषाएं बोलते हैं।
विकास के साथ भाषा स्वरूप…
भाषा शिक्षा और अभिव्यक्ति का सर्वाधिक महत्वपूर्ण और सरल माध्यम है। वर्ष 1961की जनगणना के अनुसार आधुनिक भारत में प्रचलित भाषाओं को 5 विभिन्न भाषा परिवारों में बांटा गया है…जिनके अंतर्गत 1652 से भी अधिक मातृ भाषाएं हैं। वर्ष 1991 की जनगणना से मातृभाषाओं के 10,400 छोटे-छोटे विवरणों का पता चला था और इन्हें 1576 मातृभाषाओं के रूप में युक्‍तिसंगत बनाया गया। भारत में अधिकांश लोगों द्वारा इन्‍डो-आर्यन भाघाएं बोली जाती है। तत्‍पश्‍चात घटते क्रम में द्रविड, आस्ट्रो एशियाई और चीनी-तिब्बती (तिब्बती-वर्मा) भाषाओं का स्‍थान आता है। देश असमी, बंगाली, बोडो, डोगरी, गुजराती, हिन्दी, कश्मीरी, कन्नड, कोंकणी, मैथिली, मलयालम, मणिपुरी, मराठी, नेपाली, उडिया, पंजाबी, संस्कृत, संथाली, सिन्धी, तमिल, तेलुगू और उर्दू को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किया गया है। इनमें से संस्‍कृत तथा तमिल को प्राचीन भाषा का दर्जा प्रदान किया गया है। यूनेस्को की रिपोर्ट बताती है कि दुनिया भर की भाषाओं में एक तिहाई सब सहारा अफ़्रीकी क्षेत्र में बोली जाती हैं। आशंका है कि अगली सदी के दौरान इनमें से दस फ़ीसदी भाषाएं विलुप्त हो जाएंगी। ऐसा नहीं कि यह संकट सिर्फ इस क्षेत्र में है,भारत में भी की कई भाषाएं हैं जो विलुप्ति के कगार पर हैं. एक आंकड़े के मुताबिक 196 भाषाएं ऐसी हैं जिनके ग़ायब होने का ख़तरा है और विलुप्ति की ये दर दुनिया में सबसे ज़्यादा भारत में ही है। इनमें से अधिकांश क्षेत्रीय और क़बीलाई भाषाएं हैं। कई भाषाविदों और विशेषज्ञों ने भाषाओं की विलुप्ति के इस संकट पर चिंता जताई हैं। दुनिया में सबसे तेज़ी से भाषाओं के ग़ायब होने की दर भारत में ही है. इसके बाद नंबर आता है अमेरिका का, जहां 192 ऐसी भाषाएं हैं और फिर तीसरे नंबर पर है इंडोनेशिया जहां 147 भाषाएं दम तोड़ रही हैं। यूनेस्को के अध्ययन के मुताबिक़ हिमालयी राज्यों जैसे हिमाचल प्रदेश, जम्मू और कश्मीर और उत्तराखंड में क़रीब 44 भाषाएं-बोलियां ऐसी हैं जो जन-जीवन से गायब हो रही है। जबकि पूर्वी राज्यों उड़ीसा, झारखंड, बिहार और पश्चिम बंगाल में ऐसी क़रीब 42 भाषाएं विलुप्त हो रही हैं. भाषाओं का इस भयानक तेज़ी के साथ अदृश्य होते जाना सामाजिक विविधता के लिए भी चिंता की बात है। 1962 के एक सर्वे में भारत में 1,600 भाषाओं का अस्तित्व बताया गया था और 2002 के आंकड़े बताते हैं कि 122भाषाएं ही सक्रिय रह पाईं। प्राचीन काल से ही भारत में विभिन्न धर्मों के साथ साथ भाषाओं का भी समावेश होता रहा है। दरअसल कोई भी भाषा अपने में एक पूरी विरासत होती है। भाषा की मृत्यु का अर्थ होता है अपने बीते वक्त से कटना, अपने इतिहास, दर्शन, साहित्य, चिकित्सा-प्रणाली और दूसरी तमाम समृद्ध परंपराओं के मूल स्वरूप से वंचित हो जाना।

कुकुरमुत्ते का उगना

हम अपने दड़बे में बैठे इस बात पर सोच को एकाग्र करने का सार्थक प्रयास कर रहे थे कि हमारे यहां पर आखिर एक कुकुरमुत्ता उग आने का हर सम्भव प्रयास क्यों कर रहा है। जबकि हमने न ही तो कभी उसका बीजारोपण किया और न ही ऐसा वातावरण बनाया कि वह हमारे यहां पर उगे ही। लेकिन वह प्रभावशाली व्यक्तियों के पास आने वाले अनचाहे व्यक्तियों की तरह हमारे यहां उग आने का कोई भी मौका नहीं गंवा रहा था। हमें परेशानी इस बात की नहीं थी कि वह हमारे यहां क्यों उग रहा है। परेशानी इस बात की थी कि उसने अन्य किसी का घर क्यों नही चुना? और भी बहुत लोग जिन्हें कुकुरमुत्तों के समकक्ष पिछलगुओं की हमेशा आवश्यकता रहती है। ताकि उनके जयकारे लगते रहे हैं और पिछलगुआ को कुछ चाटने को मिलता रहे। खैर हम इस पहेलीनुमा समस्या से निजात पाने के लिये उठ बैठ कर, लेट कर, चलकर यानि हर कोण से विचार कर रहे थे। लेकिन किसी भी तरह के समाधान का सुयोग्य या कुयोग्य विचार हमारी अधपक्की बुध्दि में नही आ रहा था। हां, इस समस्या के उद्गम स्थल को खोजने में हल सूख गया था और माथे पर पसीना आ गया था। लेकिन समाधान गरीब की समस्याओं और नेताओं के आश्वासनों की तरह था जो कभी पूरा होने का नाम ही नही ले रहा था।
हमने अपने दिमाग के साथ साथ पूरे शरीर को ही ढ़ीला छोड दिया कि कहीं तनाव के चलते और समस्या उत्पन ना हो जाय। खैर उसी समय हमारे मौहल्ले के चिराग चतरू ने घर के दरवाजे पर दस्तक दी। वैसे इन्होंने जिन्दगी भर लोगों के दरवाजे पर दस्तक देने के अलावा कुछ नहीं किया है। पर कभी-कभी खोटे सिक्के भी काम आ जाते हैं। चतरू अपने को राजनीति का पाण्डित्य हासिल होना मानता है। वैसे बड़े बुजुर्गों का कहना है कि शिक्षा और समाधान कहीं से भी मिले ले लेना चाहिये। हमने शरीर को सान्त्वना देकर थोड़ा सीधा किया। यदि अकड के साथ शरीर को सीधा करते तो चिपकी चमड़ी और सिकुड़ी हडि्डया अपना तराना छेड़ सकती थी। हमने हिम्मत करके चतरू के सामने अपनी समस्या को रखा। प्रथमतः तो चतरू हो,हो करके इस प्रकार हँसा कि गली में बैठे कुत्ते चौकन्ने हो कर दरवाजे पर आ गये और घुर्राने लगे। हम घबरा गये कि इस मोहल्ले के चिराग में किसने ऐसा तेल डाला है जिसकी लौ के जलते ही कुत्तों तक को उजाला परेशान करने लगता है और वे हरकत में आ जाते हैं। कुछ क्षण बाद चतरू नॉरमल होकर बोला ”चितवन, मुझे तुम्हारी औकात पर सन्देह होने लगा है। तुम नाहक गरीबी का रोना रोते हो। तुम्हे पता है ये कुकुरमुत्ते बिना हैसियत के उगना तो दूर उस गली की ओर झांकते तक नही जहां फटीचर रहते हैं। तुम्हारे यहां किसी न किसी बात की गन्ध जरूर आती है और उसी गन्ध के मारे ये कुकुरमुत्ते तुम्हारे यहां उग आने की भागीरथी कोशिश कर रहे हैं। हमने कहा, मेरे यहां गन्ध आती है न बाहर गन्दगी और कीचड़ की, अन्दर इस दडबेनुमा मकान में सीलन की, चूहों के पेशाब व उनकी बीठ की, वर्षो से धुल नही पाये इन चिथड़ेनुमा कपडों की और मुझ में पसीने की, पानी की कमी की वजह से सात दिन में एक बार ही नहा पाता और वह भी बिना साबुन के।
चतरू गम्भीरता को ओढ़ते हुए बोला ‘चितवन, बात को मजाक में मत टालो’। हमने कहा चतरू यह सब हकीकत है। वह खानदानी नितिज्ञ की तरह सिर खुजलाते हुए बोला ”चितवन यदि तुम कह रहे हो वह यदि सब सही है तो यह बताओ कि तुम्हारी बेगम का किसी राजनीतिक पार्टी या जलसों में ज्यादा आना जाना तो नहीं है। यदि है तो मेरी सलाह है कि उसे कम करा दो। और मेरी नेक सलाह है कि अपने यहां पर कभी कुकुरमत्ते को उगने मत देना। जहां भी इनकी पैदावार होती है ये आबादी को नही बरबादी को आमन्त्रण देते हैं। ये उन अवसरवादी कार्यकर्ताओं की तरह हैं जो सिर्फ चाटने तक ही साथ रहते है। उसके बाद हाय हाय करने तक भी नही आते हैं।
चतरू ने उठते समय हमारा हाथ दबाया और बोला बरखुरदार बेगम का भी ध्यान रखा करो। हम कुछ बोलते उससे पहले ही वह दरवाजा लांघ चुका था। हम बैठे सोचने लगे कि बेगम का ध्यान तब रखा जाय जब वह घर में रहे। उसे तो पार्टी मिटिगों व जलसो से ही फुर्सत नहीं है। घर का जिम्मा जब कोकरोचों एवं चुहों के हवाले हो तब कुकुरमुत्तों का उगना निश्चित ही हो जाता है। गृहणी के कदम जब बाहर ज्यादा पड़ने लग जाते है तो घर घर नही रह जाता है। तभी बेगम ने घर में दो तीन औरतों के साथ प्रवेश किया। हमारा पुरुषार्थ अंगड़ाई लेता उससे पहले ही हमारी सांस फूलने लगी, यह देख कर कि बेगम बहुमत में थी। जब बहुमत का भूत सवार होता है तो अकेला मत कितना ही सही क्यों ना हो कोई महत्व नहीं रखता। इसलिये हमने चुप्पी साधने में ही अपनी भलाई समझी।

Sunday, February 7, 2010

वेलेन्टाइन डे का राजनीतिकरण : संस्कृति का अपमान

862080207155229293 वेलेन्टाइन डे का राजनीतिकरण : संस्कृति का अपमान

दोस्तों…………….सही रुढ़िवादी होने के नाते मै वेलेन्टाइन डे को प्यार के किसी ख़ास दिन के रूप में न तो जानता था और नाही जानने की कोई ख्वाहिस रखता हूँ। मेरे मतानुसार “प्यार” शब्द किसी एक पर्व या तारीख का मोहताज़ नहीं है। प्यार के महत्त्व को दिन और तारीख के दायरे में समेटना सूरज को दीपक दिखाने जैसा ही प्रतीत होता है। जहां तक मेरे ज्ञानचक्षु जाते हैं वहां तक मै यही पाता हूँ कि “हमारी भारतीय संस्कृति में जितने भी दिवस मनाये जातें हैं, वो सभी प्यार की अनोखी मिसाल ही प्रस्तुत करतें है और प्यार मुहब्बत से सराबोर ही होतें हैं।

शायद इसी वज़ह से मेरे लिए यह नया या यूँ कहें तो आधुनिक पर्व कोई मायने नहीं रखता। खैर इसका मतलब यह भी नहीं कि मै उन लोगों का विरोध करता हूँ जो इस दिवस को सालों साल अपने जेहन में रखते हैं और इसे खुशियों के एक ख़ास दिन में तब्दील करतें हैं। पिछले कुछ सालों से मेरा ध्यान इसलिए वेलेन्टाइन डे की तरफ आकर्षित रहा है क्योंकि इसका इंतज़ार जिस बेसब्री के साथ इसके अनुयायियों को होता है उससे कहीं ज्यादा बेसब्री उन लोगों में होती है जो इसके धुर विरोधी हैं। शायद आप समझ गए होंगे मै किनकी बात कर रहा हूँ …………..! वेलेन्टाइन डे के समर्थकों की इसमे दिलचस्पी तो स्वाभाविक है परन्तु उन समाज सुधारकों कि दिलचस्पी गले नहीं उतरती जो हर साल संस्कृति एवं परम्परा के नाम पर वेलेन्टाइन डे के खिलाफ तरह तरह के फरमान सुनाते रहतें हैं एवं इसके विरोध के गैरकानूनी एवं असामाजिक तौर-तरीके अपनाते रहे हैं। मै पिछले कई सालों से यह देखता आ रहा हूँ कि वेलेन्टाइन डे आते ही कुछ संगठन इसके विरोध में कुछ इस तरह खड़े हो जातें है जैसे समाज एवं संस्कृति को दिग्भ्रमित होने से बचाने का सारा दायित्व उन्ही के कन्धों पर है और उन्हें इस कार्य को करने कि पूर्ण स्वच्छंदता प्राप्त हो गयी है। इस दिवस को राजनीतिक रंग देकर अपनी निम्न स्तर की राजनीति चमकाने कि कोशिशें उन तमाम संगठनो द्वारा की जाती रही है जिनका खुद का चरित्र ही गाहे-बगाहे सवालों के घेरे में नज़र आता रहा है! मै यह विश्लेषण नहीं करना चाहता कि यह पश्चिमी देशों या पश्चिमी सभ्यता से आया नया दिवस, हमारी संस्कृति एवं सभ्यता पर कैसा प्रभाव डाल रहा है, क्योंकि यह प्रश्न अभी उतना बड़ा नहीं है जितना कि ओछी राजनीति करने वाले वेलेन्टाइन डे इन विरोधियों की कार्य प्रणाली एवं विरोध के तौर तरीके हैं। मेरे मत में प्यार करना या एक साथ पार्कों में घूमना कोई अपराधिक प्रवृति नहीं और अगर है भी उतना बड़ा अपराध नहीं जितना कि क़ानून को हाथ में लेकर गैर-कानूनी हथकंडे अख्तियार करना। अगर इतिहास के पन्नों के खंगालने कि कोशिश करें तो प्यार, मुहब्बत के सबसे ज्यादा उदाहरण एवं तथ्य इसी संस्कृति में देखने को मिलेंगे, जिसकी सुरक्षा की चिंता उन संस्कृति के ठेकेदारों को है जो क़ानून को ताक पर रख कर पता नहीं किस कर्तव्य का निर्वहन कर रहें हैं।

मेरा मतलब किसी का पक्ष लेना या किसी का विरोध करना नहीं है। मेरा मुख्य उद्देश्य वेलेन्टाइन डे के हो रहे राजनीतिकरण को बताना है। बड़ा आश्चर्य होता है यह देख कर कि आज ऐसा समय भी आ गया कि प्यार, मुहब्बत, खुशी जैसी व्यक्तिगत एवं सामाजिक शब्दों का भी इस्तेमाल राजनीतिक हथियार के रूप में किया जाने लगा है। जो लोग सांस्कृतिक सुरक्षा कि गारंटी ले रखे हैं उनसे मै सिर्फ एक बात कहना चाहूँगा कि वो एक बार सांस्कृतिक महत्त्व की किताबें पढ़ें और राष्ट्रहित में संविधान की भूमिका का भी अध्यन करें। अगर इसके बाद भी विरोध के स्वर बुलंद हों तो विरोध के सामाजिक तौर-तरीकों का ख़ास अध्यन करें क्योंकि उनके द्वारा जो विरोध के तरीके अपनाए जाते हैं वो इस संस्कृति के प्रतिकूल हैं। साथ ही मै वेलेन्टाइन डे के समर्थकों से भी यह कहना चाहूँगा कि आप प्यार करें, खुशियाँ बाटें, अपने प्यार को अमरता प्रदान करें लेकिन हमारी संस्कृति में निर्धारित प्यार के महत्वपूर्ण बिन्दुओं को लांघने कि चेष्टा न करें। अगर आप आपके प्यार में आपकी संस्कृति की सुन्दर झलक नज़र आयी तभी आपका प्यार सफल एवं दूरगामी है वरना आप में और आपके विरोधियों में कोई अंतर नहीं नहीं रह जाएगा, दोनों ही राष्ट्र के लिए खतरनाक होंगे। बस आप प्यार करने के लिए लड़ेंगे और वो रोकने के लिए ……तो फिर प्यार कौन करेगा ?

Friday, February 5, 2010

मुंबई मुद्दे पर क्षेत्रीय क्षत्रपों की चुप्पी का रहस्य?

देश की आर्थिक राजधानी के रूप में अपनी पहचान रखने वाली मुंबई ने एक बार फिर देश की राजनीति को गर्म कर दिया है। स्वयं को मुंबई के ‘केयरटेकर’ अथवा स्वयंभू ‘सी ई ओ’ समझने वाले ठाकरे परिवार ने एक बार फिर ‘मुंबई केवल हमारी है’ का दावा सार्वजनिक रूप से ठोंक दिया है। चाचा बाल ठाकरे तथा भतीजे राज ठाकरे वैसे तो मुंबई के मुख्यमंत्री पद की खींचातान को लेकर आमने सामने एक दूसरे पर तलवारें खींचे नजर आ रहे हैं परंतु मुंबई पर ‘आधिपत्य’ को लेकर दोनों ही क्षेत्रीय सूरमा एक ही स्वर ‘आमची मुंबई’ का नारा देते हुए उक्त नेतागण बड़े ही तल्ख लहजे में तमाम तरह की गैर संवैधानिक बातें कर रहे हैं। हिंसा जैसे घटिया दर्जे के हथकंडे भी यह तथाकथित राजनैतिक तत्व अपना रहे हैं। यह कभी उत्तर भारतीयों की रेलगाड़ी में सरेआम पिटाई करने लगते हैं तो कभी यही लोग नौकरी हेतु मुंबई पहुंचे उत्तर भारतीयों पर हमलावर हो जाते हैं। टैक्सी ड्राईवर, दूध का व्यापार करने वाले, रेहड़ी खोमचेलगाने वाले तथा मंजदूरी करने वाले उत्तर भारतीय इनके निशाने पर हैं।

मुंबई के इन स्वयंभू ठेकेदारों को मराठी भाषा के आगे हिंदी सुनना भी पसंद नहीं है। यह खुले तौर पर देश से अधिक मुंबई को महत्व दे रहे हैं। और तो और देश का जो भी राष्ट्रभक्त अथवा राष्ट्रीय सोच रखने वाला व्यक्ति मुंबई को पूरे देश की गौरवपूर्ण महानगर बताने का ‘साहस’ कर बैठता है यह स्वयंभू ‘सी ई ओ’ उसे धमकी देने लग जाते हैं। उदाहरण के तौर पर राहुल गांधी ने कहा कि मुंबई पूरे देश की है तो इन ठाकरे बंधुओं ने राहुल को ‘रोमपुत्र’ के ‘खिताब’ से ‘सम्मानित’ कर दिया। समाजवादी पार्टी के मुंबई से निर्वाचित विधायक अबु आजमी ने राष्ट्रभाषा हिंदी में शपथ लेने का ‘साहस’ महाराष्ट्र विधान सभा में दिखलाया तो परिणामस्वरूप उन्हें थप्पड़ खाना पड़ा व इन्हीं क्षेत्रीय क्षत्रपों के चमचों के हाथों अपमानित होना पड़ा। मुकेश अंबानी जैसा व्यक्ति जिस पर पूरे देश की अर्थव्यवस्था को गर्व है उसने मुंबई को पूरे देश वासियों की क्या कह दिया कि वह भी घटिया मानसिकता रखने वाले तीसरे दर्जे के इन राजनीतिज्ञों की आलोचना का पात्र बन गए। सचिन तेंदुलकर जैसा क्रिकेट खिलाड़ी जिस पर केवल हमारा देश या देशवासी ही नहीं बल्कि पूरे विश्व के क्रिकेट प्रेमी भी गर्व व उसका सम्मान करते हैं, ने भी मुंबई को भारतवासियों की बताया यह ‘धूर्त राजनेता’ उसे भी अनाप शनाप बकने लग गए। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने उत्तर भारतीयों तथा मुंबई के रिश्तों को न्यायसंगत बताने की कोशिश की तो ‘ठाकरे एसोसिएटस’ की ओर से उद्धव ठाकरे ने फरमाया -संघ मुंबई की चिंता न करे, हम यहां बैठे हैं।

समझ नहीं आता कि ठाकरे बंधु किस आधार पर मुंबई पर अपना एकाधिकार जता रहे हैं। न तो यह मराठी खानदान से हैं न ही मराठा राजनीति से इनका कभी कोई संबंध रहा है। सूत्र बताते हैं कि बाल ठाकरे के पिता स्वयं मंजदूरी की तलाश में मुंबई जा पहुंचे थे। शायद उसी तरह जैसे आज कोई बिहारी अथवा उत्तर प्रदेश का निवासी रोजी-रोटी कमाने हेतु मुंबई जाया करता है। ऐसे में इस परिवार को मराठा गौरव छत्रपति शिवाजी महाराज का उत्तराधिकारी बनने का ‘गौरव’ कब और कहां से प्राप्त हो गया यह बात समझ से परे है। बड़ी हैरानगी की बात यह भी है कि जो बाल ठाकरे आज मुंबई से उत्तर भारतीयों को यह कह कर भगाना चाह रहे हैं कि मुंबई देश की धर्मशाला नहीं है वही बाल ठाकरे पूरे देश विशेषकर उत्तर भारत में क्या सोच कर अपने राजनैतिक संगठन शिव सेना का विस्तार करने के लिए इच्छुक रहते हैं? लगभग पूरे उत्तर भारत में कहीं न कहीं कोई न कोई व्यक्ति ऐसा जरूर मिल जाएगा जो स्वयं को शिवसेना (बाल ठाकरे) का पदाधिकारी बताता हुआ मिलेगा। आख़िर क्षेत्रीय क्षत्रप के रूप में अपने चेहरे को बार-बार बेनंकाब करने वाले ठाकरे को जब उत्तर भारतीयों की शक्ल ही अच्छी नहीं लगती तो वे किस आधार पर उन्हीं उत्तर भारतीयों के मध्य अपनी संगठनात्मक घुसपैठ बनाने हेतु तत्पर रहते हैं।

जब देश की राजनीति करने की इच्छा करती है तब यही ठाकरे घराना राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ व भाजपा का सहयोगी बनकर 6 दिसंबर 1992 की विवादास्पद अयोध्या घटना का भी भागीदार बनता दिखाई पड़ता है। आख़िर क्या है ठाकरे घराने की राजनीति की दिशा और दशा? यह घराना भारतवासी है, हिंदु है, मराठी है अथवा मुंबईया घराना या फिर शोध कर्ताओं के अनुसार मध्य प्रदेश से जुड़ा कोई मंजदूर परिवार? जो भी हो इस घराने ने फिलहाल मुंबई को देश से अलग करने का मानो ठेका ले रखा हो।

आखिर मुंबई की समृद्धि से इस घराने का क्या लेना देना हो सकता है? मुंबई की समृद्धि में समुद्री तट का एक अहम योगदान है। भारत की संरचना तथा इसमें समुद्री प्राकृतिक सौंदर्य और इसके माध्यम से होने वाला समुद्री रास्ते का व्यापार मुंबई की समृद्धि में बुनियाद की भूमिका अदा करता है। ठाकरे घराने कामुंबई की इस प्राकृतिक उपलब्धि से क्या लेना-देना? मुंबई की दूसरी बड़ी पहचान यहां का फिल्मोद्योग है। फिल्म उद्योग की पूरे देश व दुनिया में प्रतिष्ठा का कारण वहां बनने वाली हिंदी फिल्में हैं। इससे भी ठाकरे घराने का लेना तो है और हो भी सकता है। परंतु देना कुछ भी नहीं। मुंबई उद्योग के लिहाज से देश का सबसे बड़ा औद्योगिक महानगर है। धन उगाही के लिहाज से इन्हें यहां से भी लाभ ही पहुंचता है। इस ठाकरे घराने का महानगर के औद्योगिक विकास में भी क्या योगदान है? देश का सबसे बड़ा शेयर बाजार मुंबई में स्थित है। इसका आधारभूत ढांचा भी शिवसेना या ठाकरे घराने द्वारा नहीं खड़ा किया गया है।

हां यदि मुबंई में ठाकरे घराने का कोई योगदान है तो ख़ुशहाल मुंबई में सांप्रदायिकता का जहर फैलाने का, क्षेत्रवाद की दीवारें खींचने का और मराठों को शेष भारतीयों से अलग करने की कोशिश करने का। कुंए के मेंढक सरीखी राजनीति करने वाले बाल ठाकरे की नजर केवल इस एकमात्र लक्ष्य पर केंद्रित है कि किसी प्रकार वे मुंबईवासियों तथा मराठों व शेष भारतीयों के मध्य नफरत व अलगाव की खाई इतनी गहरी करने में सफल हो जाएं कि भविष्य में उनका चश्मे-चिराग उद्धव ठाकरे मराठा मतों का ध्रुवीकरण कर पाने में सफल हो सके तथा इस रास्ते पर चलते हुए राज्य के मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचने में सफल हो जाए। अब चाचा ठाकरे की इस ‘कुशल रणनीति’ को भला भतीजे राज ठाकरे से बेहतर कौन समझ सकता था। अत: राज ठाकरे ने भी बड़े मियां तो बड़े मियां छोटे मियां सुभान अल्लाह की कहावत को चरितार्थ करते हुए स्वयं को बाल ठाकरे व उद्धव ठाकरे से भी बड़ा मुंबई का ‘केयरटेकर’ अथवा स्वयंभू ‘सी ई ओ’ प्रमाणित करना शुरु कर दिया है। इन दोनों ठाकरे बंधुओं में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पद के लिए चल रही प्रतिस्पर्धा के परिणामस्वरूप उत्तर भारतीयों पर चारों ओर से हमले तेज हुए हैं तथा राष्ट्रभाषा हिंदी को भी इन्हीं बंधुओं के चलते अपमानित होना पड़ रहा है।

इस पूरे घटनाक्रम में एक और अदृश्य राजनैतिक घटनाक्रम भी चल रहा है जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता। और वह अदृश्य घटनाक्रम है ठाकरे घराने द्वारा मुंबई को लेकर किए जाने वाले नंगे नाच के विरुद्ध देश के किसी भी क्षेत्रीय क्षत्रप का वक्तव्य न आना। राहुल गांधी, सचिन तेंदुलकर, पी चिदंबरम, मुकेश अंबानी, कांग्रेस, आर एस एस, भाजपा, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, जेडीयू, आरजेडी व वामपंथी जैसे राजनैतिक संगठनों द्वारा तो यह जोर देकर कहा जा रहा है कि मुंबई पर पूरे देश का अधिकार है तथा मुंबई पूरे भारत की है। परंतु देश में ठाकरे की शिवसेना की ही तरह अन्य भी दर्जनों ऐसे राजनैतिक दल हैं जिनके नेता वैसे तो क्षेत्रीय क्षत्रपों की सी हैसियत रखते हैं परंतु केंद्रीय गठबंधन सरकारों के दौर में यही क्षेत्रीय क्षत्रप देश की राजनीति करते भी दिखाई पड़ जाते हैं। प्रश्न यह है कि आज के दौर में जबकि यह साफ नज़र आ रहा है कि ठाकरे घराना अलगाववाद की दिशा में आगे बढ़ रहा है ऐसे में कांग्रेस व भाजपा जैसी राष्ट्रीय पार्टियों की ही तरह तथा सचिन तेंदुलकर व मुकेश अंबानी जैसे राष्ट्रीय सोच रखने वाले राष्ट्र भक्तों की ही तरह देश के अन्य राज्यों के क्षेत्रीय क्षत्रप मिलकर एक स्वर में या फिर अलग-अलग ही सही मुंबई मुद्दे पर अपना मुंह क्यों नहीं खोल रहे हैं ”

मुंबई मुद्दे पर क्षेत्रीय क्षत्रपों की इस रहस्यमयी चुप्पी को साधारण चुप्पी नहीं समझना चाहिए। देश की राजनीति में स्वयं को स्थापित कर पाने में असफल रहने वाले यह क्षेत्रीय क्षत्रप कहीं ठाकरे घराने द्वारा चली जा रही घटिया राजनैतिक चालों का बारीकी से अध्ययन तो नहीं कर रहे हैं और इस पूरे घटनाक्रम के परिणाम की प्रतीक्षा तक चुप्पी बनाए रखने का निश्चय तो नहीं कर चुके हैं। यदि ऐसा है फिर तो यह देश की एकता और अखंडता के लिए और भी अधिक ख़तरनाक संकेत है। और यदि ऐसा नहीं है, सभी क्षेत्रीय क्षत्रप अथवा क्षेत्रीय राजनैतिक दल अथवा क्षेत्रीय राजनैतिक नेता भारत की एकता व अखंडता को सर्वोपरि मानते हैं, कश्मीर से कन्याकुमारी तक प्रत्येक स्थान पर, प्रत्येक भारतीय नागरिक के आने-जाने,रहने-सहने व कामकाज करने की पूरी स्वतंत्रता के पक्षधर हैं फिर उन्हें एकमत हो कर अब तक ठाकरे घराने को यह संदेश साफतौर से दे देना चाहिए था कि मुंबई पूरे देश की है केवल ठाकरे घराने की ‘जागीर’ नहीं। परंतु क्षेत्रीय सोच रखने वाले नेताओं द्वारा ऐसा करने के बजाए अभी तक रहस्यमयी ढंग से चुप्पी धारण किए जाने का निश्चय किया गया है और इस चुप्पी का रहस्य क्या है भारतवासी यह जरूर जानना चाहते हैं।