Sunday, January 24, 2010

अपना दुखड़ा रोने के बजाए अपनी बात में असर पैदा करें राज्यमंत्रीगण

हाल ही में प्रधानमंत्री के साथ एक भेंट में मंत्रिपरिषद् के कुछ राज्य मंत्रियों ने शिकायत की कि तवज्जो नहीं मिलती है और केबिनेट मंत्री भाव नहीं देते हैं। इन राज्यमंत्रियों का का दर्द उभर कर सामने आया। उनका कहना था कि वह लगभग बेरोजगार हैं और उनके पास फाइलें ही नहीं आती हैं। यह एक संगीन मामला है और दर्शाता है कि जब राज्यमंत्रियों का यह हाल है तब एक आम सांसद की क्या स्थिति होगी? जाहिर है इस अप्रिय स्थिति के लिए स्वयं प्रधानमंत्री और उनके केबिनेट सहयोगी भी दोषी हैं। लेकिन यह तस्वीर का एकपक्षीय पहलू ही है और उस चश्‍मे से देखा गया अर्धसत्य है जिस पर राज्यमंत्रियों के शीशे चढ़े हुए हैं। तस्वीर का दूसरा पहलू भी है और यह पहलू इन राज्यमंत्रियों की दलील को अगर झुठलाता नहीं है तो कम से कम इस दलील पर सवाल तो उठाता ही है।

पहला सवाल यही है कि क्या केवल फाइल निपटाने से ही मंत्री जी का काम हो जाता है? फाइलें निपटाने के अलावा मंत्रियों के पास और कोई काम नहीं होता? फिर तो बहुत से ऐसे केबिनेट मंत्री भी हैं जिनके पास फाइलें कम ही होती हैं। क्या इसका तात्पर्य यह है कि उन मंत्रियों के पास काम नहीं है? जबकि कई मंत्री ऐसे भी हैं जिनके पास फाइलें तो कम ही होती हैं लेकिन महीनों वह फाइलें देख ही नहीं पाते। आखिर काम होने का पैमाना क्या है?

अभी ज्यादा समय नहीं बीता होगा जब गृह मंत्री पी चिदंबरम ने कहा था कि उनके ऊपर काम का इतना बोझ है कि उनके विभाग को दो हिस्सों में बांट देना चाहिए। ऐसे में क्या देश का आम आदमी यह जानता है कि चिदंबरम के अलावा गृह विभाग में राज्यमंत्री भी होते हैं? फिर इस स्थिति के लिए कौन दोषी है? क्या चिदंबरम भी अपने राज्यमंत्रियों को काम नहीं देते हैं। इसी तरह बहुत से सांसद ऐसे हैं जो मंत्री तो नहीं हैं लेकिन उनकी बात गम्भीरता से सुनी जाती है और सरकार तथा नौकरशाही को उनकी बात पर गौर करने की मजबूरी होती है। यह उन सांसदों की योग्यता की वजह से है। सरकार की बात छोड़ भी दीजिए तो विपक्ष में ही कई ऐसे सांसद ऐसे हैं जिनकी अपनी एक पहचान और आवाज है जबकि वह कभी मंत्री नहीं रहे। नीलोत्पल बसु, वृन्दा कारत, गुरदासदास गुप्ता, कलराज मिश्रा, दिग्विजय सिंह ऐसे ही सांसद हैं। स्वयं कांग्रेस में मनीष तिवारी, मीनाक्षी नटराजन और अशोक तंवर कुछ ऐसे नाम हैं जिनकी अपनी एक पहचान है और उनके पास काम की भी कोई कमी नहीं है क्योंकि वह अपने क्षेत्र में काम करते हैं और जनता के बीच रहते हैं। इसी तरह राज्यमंत्रियों में सीपी जोशी, जितिन प्रसाद को काम न होने के लिए रोना नहीं पड़ता।

इस बात को दो तीन उदाहरणों से समझा जा सकता है। मरहूम राजेश पायलट आन्तरिक सुरक्षा राज्य मंत्री थे। लेकिन शायद अपने समकालीन केबिनेट मंत्रियों से ज्यादा व्यस्त भी थे और उनकी देश में एक वॉइस भी थी। पिछली यूपीए-वन सरकार में भी श्रीप्रकाश जायसवाल भी राज्यमंत्री ही थे लेकिन उन्होंने अपनी पहचान बनाई। जबकि लालकृष्‍ण अडवाणी के साथ आईडी स्वामी राज्यमंत्री थे उन्होंने भी अपनी पहचान बनाई। इन सभी के पास काम होने में उनके केबिनेट मंत्रियों का कोई रोल नहीं था।

अब अगर इन राज्यमंत्रियों का ‘काम’ से तात्पर्य ठेके, परमिट, कोटा लाइसेंस देने से है तब तो उनका दुखड़ा जायज हो सकता है कि केबिनेट मंत्री सारी मलाई खुद मार लेते हैं और उन्हें (राज्यमंत्रियों) कोई नहीं पूछता। तब तो वाकई प्रधानमंत्री को मलाई का सही अनुपात में बंटवारा करने की व्यवस्था करनी चाहिए।

इन राज्यमंत्रियों के एक दर्द से बिना किसी किंतु परंतु के सहमत हुआ जा सकता है कि राज्यमंत्रियों की बात को अधिकारी नहीं सुनते। लेकिन यह समस्या भी केवल राज्यमंत्रियों के साथ नहीं है। बल्कि इस मुल्क में अफसरशाही बहुत ताकतवर और बेलगाम है। अफसर केवल उस केबिनेट मंत्री की ही बात सुनते हैं जो या तो स्वयं तेज हो और सौ फीसदी राजनीतिज्ञ हो या फिर प्रधानमंत्री का नजदीकी हो और उनका कुछ बिगाड़ने की हैसियत रखता हो। वरना मंत्री जी खुद अपनी फाइलें ढूंढते रह जाते हैं और फाइलें सरकारी चाल से ही चलती हैं। इस स्थिति के लिए भी केवल अधिकारियों को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। कारण बहुत साफ है। जब संसद में तीन सौ करोड़पति सांसद पहुंच गए तो जाहिर है कि यह तीन सौ सांसद व्यापारी पहले हैं और राजनीति इनके लिए दोयम दर्जे का काम है। ऐसे में क्या उम्मीद की जा सकती है कि अधिकारी इन सांसदों और ऐसे मंत्रियों की बात सुनेंगे? इसलिए बेहतर होगा कि यह राज्यमंत्रीगण अपना दुखड़ा रोने के बजाए अपनी बात में असर पैदा करें और यह असर तभी पैदा होगा जब वह सौ फीसदी राजनीतिज्ञ बनेंगे वर्ना चाहे राज्यमंत्री बन जाएं या केबिनेट यह दुख दूर नहीं होगा।

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