Thursday, January 14, 2010

कांग्रेस शासन में महंगाई ने तोडी कमर


कांग्रेसनीत संप्रग सरकार को जनता ने जिस विश्वास के साथ सत्ता पर बैठने का अधिकार सौंपा वस्तुत: सरकार की नीतियों से नहीं लग रहा है कि वह जनता के प्रति गंभीर है। सरकार द्वारा जारी आकडों में भारत वैश्विक स्तर पर तेजी से उभर रहा है। देश में हर सेक्टर में दिन दूनी रात चौगनी तरक्की दर्शायी जा रही है। भारत की चालू वित्त वर्ष में आर्थिक विकास दर 7.8 से लेकर 8 प्रतिशत है। एशियन विकास बैंक (एडीबी) का भी यही मानना है कि भारत की विकास दर 7 प्रतिशत से कम नहीं होगी, लेकिन तरक्की के यह आंकडे तब बेमानी लगते हैं जब जमीन पर महगाँई की मार झेलता आम आदमी अपनी इच्छा से भरपेट भोजन की थाली भी नहीं खरीद सकता।

संप्रग सरकार के राज्य में खाद्य पदार्थों ने सभी रिकार्ड तोड दिए हैं। बढी हुई महंगाई ने जैसे मध्यम वर्ग के मासिक बजट की रही-सही कसर पूरी कर दी है। सब्जी और अनाज के दाम सातवें आसमान पर पहुँच गए हैं। खाद्यान में 20 प्रतिशत वृद्धि हो चुकी है। बच्चों की पढाई भी महंगाई की मार से नहीं बची। साधारण कॉपी की कीमतों में 35 प्रतिशत तक इजाफा हुआ है, किन्तु केंद्र सरकार है कि अपने जादुई ऑंकडे दिखाने में लगी हुई है। माइनस पर मौजूद महँगाई तथा बढती जीडीपी ग्रोथ दिखाकर वह अपनी पीठ थपथपा रही है। सरकार मान रही है कि बढी हुई कीमतें वैश्विक घटना है, लेकिन सच यह है कि आज देश में खाद्य वस्तुओं और आवश्यक उत्पादों की कीमतों पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं रह गया है। बिचौलिए, दलाल, सट्टेबाज और बडे व्यापारी जमाखोरी कर दाम बढा देते हैं। केन्द्र सरकार फिर उन्हें कम कराने की मशक्कत करती दिखाई देती है। इसकी अपेक्षा होना यह चाहिए था कि सरकार का खाद्य वस्तुओं के व्यापार मे लगे वर्ग पर पहले से भय और नियंत्रण होता ताकि कोई व्यापारी अधिक लाभ के लालच में देश की जनता को लूटने से पहले दण्ड के भय से बेइमानी ही नहीं करता।

अर्थशास्त्री महँगाई के लिए माँग और आपूर्ति के अंतर को दोषी मानते हैं, किन्तु यह भारत में बढ रही मंहगाई के पीछे का सच कदापि नहीं है। सिर्फ दालों की यथास्थिति देखें तो वर्ष 2008 में भारत में 147.6 टन तथा 2009 में 146.6 लाख टन दालों का उत्पादन हुआ था। 08 की तुलना में 09 बीते एक वर्ष में 1लाख टन की गिरावट आई। भारतीय अर्थशास्त्रियों के अनुसार देश में 170 लाख टन दाल की वार्षिक मांग है । यदि इस बात को मान भी लिया जाए कि हमारे अर्थशास्त्री सही कह रहे हैं तब जो शासकीय आंकडे हैं कि एक वर्ष में केन्द्र सरकार ने 25 लाख टन दाल का आयात किया इसे किस रुप में देखा जाए? क्योकि इस तरह बाजार में 171.6 लाख टन दाल उपलब्ध होनी चाहिए थी। जब माँग से ज्यादा आपूर्ति की गई है फिर गत एक वर्ष के अंदर कीमतों में दुगने का अंतर कैसे आ गया? निश्चित ही यह जमाखोरी और कालाबाजारी का परिणाम है। इसी तरह अन्य रोजमर्रा की आवश्यक वस्तुओं में बढोत्तरी जारी है।

आज स्थिति यहाँ तक आ पहुँची है कि पिछले 12 वर्षों का रिकार्ड इस महँगाई ने तोड दिया है। महँगाई की दर 19.83 पर पहुँच गई है। सब्जियों में जिस तेजी से बढोत्तरी हुई है उसने तो भारतीय मध्यमवर्गीय रसोई का जायका ही बिगाड कर रख दिया। इस मध्यमवर्ग और मजदूर वर्ग की हालत यह हो गई है कि दिन प्रतिनिधि बढती महँगाई के कारण आवश्यक वस्तुएँ खरीदने में उन्हें पसीना आ रहा है। आलू के दामों में 132.74 प्रतिशत, प्याज 40.75, अन्य सब्जियों में 46.70 प्रतिशत तथा दालें 41.69 प्रतिशत महँगी हुई हैं। इसी अनुपात में फलों में तेजी आई है। चीनी 60 रुपये किलो और दूध की कीमत 22 रूपए लीटर से बढकर 30 रूपए पहुँच गई है। खाद्यान में बाजरा 12, गेहूँ 9.4 और चावल 2 प्रतिशत महँगे हुए हैं। थोक मूल्य पर आधारित अन्य गैर खाद्य वस्तुओं में भी 8.74 प्रतिशत का इजाफा हुआ है। इसके बावजूद भी सरकार का महंगाई के प्रति लचीला रुख समझ के परे है। केन्द्र की कांग्रेसनीत संप्रग सरकार के इस रुख से यही प्रदर्शित हो रहा है कि वह महँगाई के प्रति गंभीर नहीं ।

यही कारण है कि उसके इस गैर जिम्मेदारी भरे कदम को लेकर पिछले संसद सत्र में वित्त मंत्रालय की संसदीय स्थाई समिति ने भी सरकार की कार्यप्रणाली पर उंगली उठाई थी। समिति ने अपनी रपट मे कहा कि सरकार द्वारा इसे रोकने के लिए जो महत्वपूर्ण कदम उठाए जाने चाहिए थे वह उसने अभी तक नहीं उठाए हैं। वित्त मंत्रालय महँगाई पर अंकुश लगाने में पूरी तरह विफल रहा है।

वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए ऐसा लगने लगा है कि महँगाई यूपीए सरकार के नियंत्रण से बिल्कुल बाहर हो गई है। केवल प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कृषि मंत्री के बार-बार आने वाले वक्तव्यों जिनमें वह इस बात की दुहाई दे रहे हैं कि सूखा तथा बढती महँगाई से निपटने के लिए सरकार के पास पर्याप्त अनाज हैबल्कि आयात के लिए जरूरी विदेशी मुद्रा का भण्डार भी मौजूद हैं से अब काम नहीं चलने वाला न यह बताने से की किसानों ने पिछले साल 23 करोड 40 लाख टन खाद्यान्न का रिकार्ड उत्पादन किया था।

सरकार जिस तरह से आम जनता को भरोसा दिला रही है उससे देश में तेजी से बढती महँगाई को नहीं रोका जा सकता है। केन्द्र सरकार जिन थोक मूल्य सूचकांक की आड में महँगाई से बचने तथा मुँह चुराने का प्रयास कर रही है वह थोक मूल्य सूचकांक की पध्दाति केवल भारत में अपनाई गई है जिससे उपभोक्ता को सरकारों द्वारा भ्रम में रखा जा सके। यूरोप में होल-सेल के स्थान पर रिटेल दर के अनुसार महँगाई का अनुमान लगाया जाता है। भारत में यह पद्धति इसलिये भी अपनाई गई है कि यदि महँगाई छपे मूल्य के अनुसार बतायी जायेगी तो जनता कहीं महँगाई के भय से सरकार के विरोध में आन्दोलन न कर बैठेऔर लोकतंत्रात्मक शासन व्यवस्था में इस आन्दोलन के परिणाम से सरकार न चली जाये। केन्द्रीय वित्त मंत्रालय का सांख्यिकी विभाग जो आंकडे हमारे सामने रखता है प्राय: वह इसी प्रकार के होते हैं।

आज भारत की अर्थव्यवस्था विश्व की चौथे नंबर की अर्थव्यवस्था है, किन्तु प्रतिव्यक्ति आय में यह 133वें पायदान पर है। यानि आय प्राप्ति की दृष्टि से 132 देश भारत की अपेक्षा बेहतर स्थिति में हैं। समय रहते महँगाई पर ब्रेक नहीं लगाया गया तो कांग्रेसनीत संप्रग सरकर को यह बात समझ लेना चाहिए कि आने वाले दिनों में स्थिति बहुत भयंकर हो जायेगी।

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