Wednesday, January 20, 2010

मरके जीना सिखा दिया तूने

मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी के स्तंभ पुरुष समझे जाने वाले वामपंथी नेता ज्‍योति बसु आंखिरकार इस संसार से अलविदा कह गए। हालांकि उनकी राजनैतिक कार्यशैली को लेकर अनेक राजनैतिक दल पूर्वाग्रही दृष्टिकोण रखते हुए उनके विषय में उनके मरणोपरांत तरह-तरह की प्रतिक्रियाएं व्यक्त कर रहे हैं। परंतु जिस प्रकार 23 वर्षों तक लगातार पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री पद पर बने रहने का उन्होंने भारत में कीर्तिमान स्थापित किया है उसे देखकर यह समझ पाने में देर नहीं लगनी चाहिए कि ज्‍योति बसु पश्चिम बंगाल के आम लोगों के दिलों पर राज करने वाले देश के अति लोकप्रिय नेताओं में से थे। हालांकि 23 वर्षों तक मुख्यमंत्री के पद पर बने रहने के बाद भी उन्होंने किसी राजनैतिक उतार-चढ़ाव, दबाव अथवा नकारात्मक परिस्थितियों के परिणामस्वरूप पद त्याग नहीं किया था। बल्कि यह उनका व्यक्तिगत निर्णय था तथा उस समय वामपंथी नेताओं ने ज्‍योति बसु की आवश्यकता राष्ट्रीय राजनीति के लिए महसूस की थी जिसके कारण उन्हें मुख्यमंत्री का पद छोड़ना पड़ा था। एक अवसर ऐसा भी आया था जबकि वे देश में प्रधानमंत्री के पद पर विराजमान होते। परंतु उन्होंने उस समय के उथल-पुथल के माहौल में प्रधानमंत्री का पद ग्रहण करने से भी इंकार कर दिया था।

बहरहाल ज्‍योति बाबू जैसे महान नेता के राजनैतिक जीवन संघर्ष के विषय में पर्याप्त सामग्री प्रकाशित हो रही है तथा भारत के इतिहास में भी उनकी जीवन संघर्ष यात्रा दर्ज होगी। उनकी अंतिम यात्रा में शरीक होने जिस प्रकार देश-विदेश के प्रमुख नेता व विशिष्ट लोग उमड़ पड़े तथा उनके असंख्य प्रशंसकों की भीड़ से जिस प्रकार 3 दिनों तक कोलकाता महानगर पटा पड़ा रहा यह सब कुछ उनकी लोकप्रियता का ही प्रमाण है। शायद यह पहला अवसर था जबकि किसी की शव यात्रा के दौरान कोलकाता में जनसमूह को नियंत्रित करने हेतु महानगर को सेना के हवाले करना पड़ा हो। इस आलेख के माध्यम से मैं ज्‍योति बाबू के राजनैतिक जीवन पर रोशनी डालने के बजाए उनके उस निर्णय के विषय में कुछ कहना चाहूंगी जिसके अंतर्गत उन्होंने अपने शरीर को मरणोपरांत दान किए जाने का निर्णय लिया था। ज्ञातव्य है कि योति बाबू की अंतिम यात्रा शमशान घाट में समाप्त होने के बजाए कोलकाता के एस एस के एम अस्पताल में जाकर समाप्त हुई। यहां उनके शरीर को उनकी अंतिम इच्छा के अनुसार मेडिकल शोध कार्य हेतु दान किया गया है। जब देश के इतने महान नेता ने यह असाधारण निर्णय लिया है तो ऐसे में एक बार फिर यह चर्चा छिड़नी लाजमी है कि आंखिर मरणोपरांत शरीर दान करना सही है या गलत, उचित है या अनुचित, हमारे धार्मिक संस्कारों के अनुरुप है या इसके विपरीत, ऐसे फैसले मानवता को लाभ पहुंचाने वाले फैसले हैं या मानवता विरोधी। और हमारे समाज को योति बाबू जैसे लोगों द्वारा उठाए जाने वाले कदमों से कोई फायदा पहुंचता भी है या नहीं।

आईए पहले कुछ विभिन्न समुदायों के लोगों द्वारा मृत शरीर के साथ अपनाए जाने वाले तौर तरीकों एवं संस्कारों पर डालते हैं एक नजर। हमारे देश में जैसा कि सर्वविदित है कि आमतौर पर हिंदु व सिख समुदायों में शरीर को मरणोपरांत अग्नि की भेंट चढ़ा दिया जाता है। जबकि इसी समुदाय में दोहरा मापदंड अपनाते हुए मृतक बच्चों की लाशों को धरती में दफन कर दिया जाता है। इस व्यवस्था के समर्थकों का मानना है कि छोटे बच्चों को अग्नि के सुपुर्द नहीं किया जाता। उधर मुस्लिम समुदाय में क्या छोटा तो क्या बड़ा सभी के मृतक शरीर को कब्रिस्तान में दफन कर दिया जाता है। इसी प्रकार ईसाई समुदाय, लकड़ी का एक विशेष ताबूत बनवा कर तथा उसमें मृतक के शरीर को रखकर पूरे ताबूत को ही जमीन तले दफन कर देता है। देश का ही एक संपन्न समाज पारसी समाज भी है। इस समाज के शमशान घाट में एक ऊंचे टावर पर मृतक के शरीर को रख दिया जाता है। चील, कौवे, गिध्द आदि पक्षी तथा अन्य कीड़े मकौड़े उस शरीर को खा जाते हैं। हमारे देश में एक काफी बड़ा वर्ग हिंदु समुदाय में ही ऐसा भी है जो मृत शरीर को देश की विभिन्न नदियों में प्रवाहित कर देता है। यहां मछलियां तथा अन्य जलचर उस शरीर को खा जाते हैं।

मृत व्यक्ति के शरीर के अंतिम संस्कार के उपरोक्त जितने भी उपाय हैं वे सभी निश्चित रूप से उन सभी समुदायों के पूर्वजों तथा धर्मगुरुओं द्वारा निर्धारित किए गए हैं। प्रत्येक समुदाय के पास इन अंतिम संस्कारों की परंपरा तथा रीति रिवाज को लेकर अपने-अपने तर्क हैं तथा सभी अपने-अपने संस्कारों को ही सर्वोत्तम तथा सर्वस्वीकार्य बताने का भी प्रयास करते हैं। परंतु लाख सच्चाईयों के बावजूद एक सबसे बड़ा और कड़वा सच इन सभी संस्कारों में से यह निकल कर आता है कि धार्मिक रीति-रिवाजों द्वारा किए जाने वाले अंतिम संस्कार के उपरोक्त सभी उपायों में आखिरकार मृतक व्यक्ति का शरीर समाप्त ही हो जाता है।

अब आईए शरीर दान के कुछ सकारात्मक पहलुओं पर भी नजर डालने की कोशिश की जाए। सर्वप्रथम तो यह कि शरीरदान करना अथवा अंगदान करना यहां तक कि रक्तदान करना तक किसी धर्म अथवा समुदाय विशेष द्वारा दी जाने वाली शिक्षाओं में शामिल नहीं है। यह सभी व्यवस्थाएं समाज की आज की जरूरतों तथा विज्ञान के वर्तमान बदते क़ दम एवं उसकी आवश्यकताओं के अनुरूप तलाश की गई हैं। हम सब जानते हैं कि अग्नि को भेंट चढाने, दफन करने या नदी में प्रवाहित करने के बाद आखिरकार शरीर समाप्त हो जाता है। परंतु मेडिकल शोध कार्यों हेतु दान किया गया शरीर मरणोपरांत भी न जाने कितने लोगों की जान बचाने के काम आता है। डाक्टरी की शिक्षा ग्रहण करने वाले छात्रों को किसी मनुष्य के किसी भीतरी अंगों का इलाज करने तथा उसे ठीक व दुरुस्त करने हेतु उस अंग का अध्ययन करना अति आवश्यक होता है। और यह अध्ययन केवल मानव शरीर के प्रयोग के द्वारा ही संभव हो सकता है। बड़े आश्चर्य की बात है कि आज समाज का क्या आम आदमी तो क्या खास, क्या पढ़ा लिखा तो क्या अनपढ़, लगभग सभी आम लोग अपने-अपने मृत परिजनों को अपने समुदाय विशेष के रीति रिवाजों के अनुरूप उसका अंतिम संस्कार करना चाहते हैं। इन धार्मिक मान्याताओं का अनुसरण व सम्मान करते हुए कि इस प्रकार के अंतिम संस्कार द्वारा ही उसे मुक्ति मिल सकेगी। दूसरी ओर अपने पारंपरिक संस्कारों का अनुसरण करने वाला यही वर्ग किसी बीमारी अथवा दुर्घटना के समय किसी विशेषज्ञ चिकित्सक को ढूंढता हुआ भी नार आता है। इन परंपरावादियों की नारें उस समय ऐसे चिकित्सक पर ही होती हैं जो पूरी तरह से दक्ष तथा सफल आप्रेशन कर पाने में पूर्णतया सक्षम हो।

अब यहां क्या यह सवाल इन परंपरा वादी लोगों से नहीं पूछा जाना चाहिए जब आप अपने मृतक परिजनों की लाशों को अपने धार्मिक रीति रिवाजों के अनुसार अंतिम संस्कार कर उन्हें स्वर्ग या जन्नत की राह पर भेज देते हैं फिर आंखिर शरीर विज्ञान के अध्ययन व प्रेक्टिकल करने हेतु, शोध कार्य हेतु मानव शरीर कहां से प्राप्त होगा। इसमें कोई संदेह नहीं कि रक्तदान, नेत्रदान, अंगदान तथा मरणोपरांत शरीरदान करने की जो मुहिम आज के दौर में दुनिया के बुद्धिजीवियों द्वारा तथा दूरदृष्टि रखने वाले लोगों एवं समाज के वास्तविक शुभचिंतकों द्वारा शुरु की गई है यह निश्चित रूप से समाज के कल्याण की दिशा में उठाया जाने वाला एक अत्यंत महत्वपूर्ण कदम है।

महान मार्क्स वादी नेता ज्‍योति बसु ने अपने मृत शरीर को दान दिए जाने का जो निर्णय लिया था उनके लाखों प्रशंसकों ने ज्‍योति दा के फैसले पर लबबैक कहते हुए उन्हें उनकी शवयात्रा में शामिल होकर आखिर उस अस्पताल तक पहुंचा दिया जहां मेडिकल शोध छात्र ज्‍योति बसु के सुरक्षित रखे गए शरीर से अपना ज्ञानवर्धन करेंगे तथा अपनी उस योग्यता के द्वारा दूसरे मरीजों व पीड़ित व्यक्तियों के जीवन के लिए सहायक सिद्ध होंगे। ज्‍योति बसु ने अपना सारा जीवन गरीबों, दुखियों, बेसहारा लोगों तथा मजदूरों व किसानों के लिए तो गुजार ही दिया। परंतु समाज के लिए कुछ कर गुजरने की उनकी ललक ने मरणोपरांत भी उनकी इस इच्छा को नहीं छोड़ा। और आंखिरकार ज्‍योति बाबू का मृत शरीर भी जब तक अस्पताल में सुरक्षित रहेगा उसके अध्ययन के द्वारा हजारों डाक्टरों व लाखों मरीजों के लिए अवतार साबित होगा। निश्चित रूप से इन मेडिकल शोध छात्रों को ज्‍योति बाबू अथवा इन जैसे कुछ गिने-चुने प्रकाश पुंज रूपी महान व्यक्तियों से ही उर्जा प्राप्त होती रहेगी। और अंत में ज्‍योति बाबू की शान में यह दो पंक्तियां …

‘जी के मरना तो सबको आता है। मरके जीना सिखा दिया तूने।

वामपंथ के इस महान पुरोधा को शत्-शत् नमन, लाल सलाम और आखिरी सलाम

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