आजादी के दौरान दलितों के राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तन के प्रयास विभिन्न आयामों पर शुरू हुए थे। जहां ज्योतिबा फुले इसके अग्रदूत थे तो वहीं भारतीय संविधान के जनक और दलितों के महानायक डॉ. भीम राव अम्बेदकर ने दलित चेतना को एक नई दिशा दी। ब्राह्मणवादी संस्कृति को चुनौती देते हुए दलितों को मुख्यधारा में लाने का जो प्रयास हुआ उससे दलित समाज में एक नई चेतना का संचार हुआ। धीरे-धीरे लोकतांत्रिक व्यवस्था में अपने को गोलबंद कर ब्राह्मणवादी व्यवस्था को धकेलने का प्रयास शुरू हुआ। दलित-पिछड़ों ने सामाजिक व्यवस्था में समानता को लेकर अपने को गोलबंद किया। हालांकि आजादी की आधी सदी बीत जाने के बाद भी समाज के कई क्षेत्रों में आज भी असमानता का राज कायम है।
आरक्षण के सहारे कार्यपालिका, न्यायापालिका, विधायिका आदि में दलित आये लेकिन आज भी इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में लोकतंत्र के चौथे खम्भे पर काबिज होने में दलित पीछे ही नहीं बल्कि बहुत पीछे हैं। आकड़े इस बात के गवाह हैं कि भारतीय मीडिया में वर्षों बाद आज भी दलित-पिछड़े हाशिये पर हैं। उनकी स्थिति सबसे खराब है। कहा जा सकता है कि ढूंढते रह जाओगे लेकिन दलित नहीं मिलेंगे। गिने चुने ही दलित मीडिया में हैं और वह भी उच्च पदों पर नहीं।
‘राष्ट्रीय मीडिया पर उंची जातियों का कब्जा’ के तहत हाल ही में आये सर्वे ने मीडिया जगत से जुड़े दिग्गजों की नींद उड़ा दी थी। आरोप-प्रत्यारोप का दौर भी चला। किसी ने समर्थन में दलित-पिछड़ों को आगे लाने की पूरजोर शब्दों में वकालत की। तो किसी ने यहां तक कह दिया कि भला किसने उन्हें मीडिया में आने से रोका है। मीडिया के दिग्गजों ने जातीय असमानता को दरकिनार करते हुए योग्यता का ढोल पीटा और अपना गिरेबान बचाने का प्रयास किया।
दलित-पिछड़े केवल राष्ट्रीय मीडिया से ही दूर नहीं है बल्कि राज्यस्तरीय मीडिया में भी उनकी भागीदारी नहीं के बराबर है। वहीं उंची जातियों का कब्जा स्थानीय स्तर पर भी देखने को मिलता है। समाचार माध्यमों में उंची जातियों के कब्जे से इंकार नहीं किया जा सकता है। मीडिया स्टडी ग्रुप के सर्वे ने जो तथ्य सामने लाये हालांकि वह राष्ट्रीय पटल के हैं लेकिन कमोवेश वही हाल स्थानीय समाचार जगत का है। जहां दलित-पिछडे ख़ोजने से मिलेंगे। आजादी के वर्षो बाद भी मीडिया में दलित-पिछड़े हाशिये पर हैं। मीडिया के अलावा कई क्षेत्र हैं जहां अभी भी सामाजिक स्वरूप के तहत प्रतिनिधित्व करते हुए दलित-पिछड़ों को नहीं देखा जा सकता है, खासकर दलितों वर्ग को। आंकड़े बताते हैं कि देश की कुल जनसंख्या में मात्र आठ प्रतिशत होने के बावजूद उंची जातियों का, मीडिया हाउसों पर 71 प्रतिशत शीर्ष पदों पर कब्जा बना हुआ है। जहां तक मीडिया में जातीय व समुदायगत होने का सवाल है तो आंकड़े बताते हैं कि कुल 49 प्रतिशत ब्राह्मण, 14 प्रतिशत कायस्थ, वैश्य/जैन व राजपूत सात-सात प्रतिशत खत्री नौ, गैर द्विज उच्च जाति दो और अन्य पिछड़ी जाति चार प्रतिशत है। इसमें दलित कहीं नहीं आते।
मीडिया में जाति हिस्सेदारी से बवाल उठना ही था। जो वस्तुस्थिति है वह सामने है। सरकारी मीडिया को छोड़ दे तो निजी मीडिया में जो भी नियुक्ति होती है वह इतने ही गुपचुप तरीके से होती है कि मीडिया हाउस के कई लोगों को बाद में पता चलाता है कि फ्लाने ने ज्वाइन किया है। खैर बात जाति की हो रही है। आंकड़े/सर्वे चौंकते है, मीडिया के जाति प्रेम को लेकर ! पोल खोलते हैं प्रगतिशील बनने वालों का और उन पर सवाल भी दागते हैं। बिहार को ही लें, ”मीडिया में हिस्सेदारी” के सवाल पर हाल ही में पत्रकार प्रमोद रंजन ने भी जाति प्रेम की पोल खोली है। हालांकि राष्ट्रीय सर्वे में अनिल चमड़िया, जितेन्द्र कुमार और योगेन्द्र यादव ने जो खुलासा किया था, वह देश के क्षेत्रीय मीडिया हाउसों के जाति प्रेम को भी अपने घेरे में लिया था।
बिहार, मीडिया के मामले में काफी संवेदन व सचेत माना जाता है। लेकिन, यहां भी हाल राष्ट्रीय पटल जैसा ही है। ”मीडिया में हिस्सेदारी” में साफ कहा गया है कि बिहार की राजधानी पटना में काम कर रहे मीडिया हाउसों में 87 प्रतिशत सवर्ण जाति के हैं। इसमें, ब्राह्मण 34, राजपूत 23, भूमिहार 14 एवं कायस्त 16 प्रतिशत है। हिन्दू पिछड़ी-अति पिछड़ी जाति, अशराफ मुसलमान और दलित समाज से आने वाले मात्र 13 प्रतिशत पत्रकार है। इसमें सबसे कम प्रतिशत दलितों की है। लगभग एक प्रतिशत ही दलित पत्रकार बिहार की मीडिया से जुड़े हैं। वह भी कोई उंचे पद पर नहीं है। महिला सशक्तिकरण के इस युग में दलित महिला महिला पत्रकार को ढूंढना होगा। बिहार के किसी मीडिया हाउस में दलित महिला पत्रकार नहीं के बराबर है। हालांकि आंकड़े बताते हैं कि दलित महिला पत्रकारों का प्रतिशत शून्य है। जबकि पिछडे-अति पिछड़े जाति की महिला पत्रकारों का प्रतिशत मात्र एक है। साफ है कि दलित-पिछड़े वर्ग के लोग पत्रकारिता पर हासिये पर है।
भारतीय परिदृश्य में अपना जाल फैला चुके सेटेलाइट चैनल यानी खबरिया चैनलों की स्थिति भी कमोवेश एक ही जैसा है। यहां भी कब्जा सवर्ण हिन्दू वर्ग का ही है। 90 प्रतिशत पदों पर सवर्ण काबिज है। हालांकि हिन्दू पिछड़ी जाति के सात प्रतिशत, अशराफ मुसलमान तीन एवं महिलाएं 10 प्रतिशत है। यहां भी दलित नहीं है।
मीडिया में दलितों के नहीं के बराबर हिस्सेदारी भारतीय सामाजिक व्यवस्था की पोल खोलने के लिए काफी है। सर्वे या फिर सामाजिक दृष्टिकोण के मद्देनजर देखा जाये तो आजादी के बाद भी दलितों के सामाजिक हालात में क्रांतिकारी बदलाव नजर नीं आता, बस कहने के लिए राजनैतिक स्तर पर उन्हें मुख्यधारा में लाने के हथकंड़े सामने आते है। जो हकीकत में कुछ और ही बयां करते हैं। तभी तो जब देश में अन्य पिछड़ी जातियों के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण को लेकर विरोध और समर्थन चल रहा था तभी पांडिचेरी के प्रकाशन संस्थान ‘नवयान पब्लिशिंग’ ने अपनी वेबसाइट पर दिये गये विज्ञापन में ‘बुक एडिटर’ पद के लिए स्नातकोत्तर छात्रों से आवेदन मांगा और शर्त रख दी कि ‘सिर्फ दलित ही आवेदन करें।’ इस तरह के विज्ञापन ने मीडिया में खलबली मचा दी। आलोचनाएं होने लगीं। मीडिया के ठेकेदारों ने इसे संविधान के अंतर्गत जोड़ कर देखा। यह सही है या गलत। इस पर राष्ट्रीय बहस की जमीन तलाशी गई। दिल्ली के एक समाचार पत्र ने इस पर स्टोरी छापी और इसके सही गलत को लेकर जानकारों से सवाल दागे। प्रतिक्रियास्वरूप संविधान के जानकारों ने इसे असंवैधानिक नहीं माना। वहीं, सवाल यह उठता है कि अगर ”नवयान पब्लिशिंग” ने खुलेआम विज्ञापन निकाल कर अपनी मंशा जाहिर कर दी तो उस पर आपित्त कैसी? वहीं गुपचुप ढंग से मीडिया हाउसों में उंची जाति के लोगों की नियुक्ति हो जाती है तो कोई समाचार पत्र उस पर बवाल नहीं करता है और न ही सवाल उठाते हुए स्टोरी छापता है? कुछ वर्ष पहले बिहार की राजधानी पटना से प्रकाशित एक राष्ट्रीय हिन्दी दैनिक ने जब अपने कुछ पत्रकारों को निकाला था तब एक पत्रिका ने अखबार के जाति प्रेम को उजागर किया था। पत्रिका ने साफ -साफ लिखा था कि निकाले गये पत्रकारों में सबसे ज्यादा पिछड़ी जाति के पत्रकारों का होना अखबार का जाति प्रेम दर्शाता है। जबकि निकाले गये सभी पत्रकार किसी मायने में सवर्ण जाति के रखे गये पत्रकारों के काबिलियत के मामले में कम नहीं थे।
जरूरी काबिलियत के बावजूद मीडिया में अभी तक सामाजिक स्वरूप के मद्देनजर दलित-पिछड़े का प्रवेश नहीं हुआ है। जाहिर है कहा जायेगा कि किसने आपको मीडिया में आने से रोका? तो हमें इसके लिए कई पहलूओं को खंगालना होगा। सबसे पहले मीडिया में होने वाली नियुक्ति पर जाना होगा। मीडिया में होने वाली नियुक्ति पर सवाल उठाते हुए चर्चित मीडियाकर्मी राजकिशोर का मानना है कि दुनिया भर को उपदेश देने वाले टीवी चैनलों में, जो रक्तबीज की तरह पैदा हो रहे हैं, नियुक्ति की कोई विवेकसंगत या पारदर्शी प्रणाली नहीं है। सभी जगह सोर्स चल रहा है। वे मानते हैं कि मीडिया जगत में दस से पचास हजार रूपये महीने तक की नियुक्तियां इतनी गोपनीयता के साथ की जाती है कि उनके बारे में तभी पता चलता है जब वे हो जाती है। इन नियुक्तियों में ज्यादातर उच्च जाति के ही लोग आते हैं। इसकी खास वजह यह है कि मीडिया चाहे वह प्रिन्ट (अंग्रेजी-हिन्दी) हो या इलेक्ट्रानिक, फैसले लेने वाले सभी जगहों पर उच्च वर्ण की हिस्सेदारी 71 प्रतिशत है। जबकि उनकी कुल आबादी मात्र आठ प्रतिशत ही है। उनके फैसले पर सवाल उठे या न उठे इस सच को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है।
वहीं दूसरे पहलू के तहत जातिगत आधार सामने आता है और प्रख्यात पत्रकार अनिल चमड़िया कास्ट कंसीडरेशन को सबसे बड़ा कारण मानते हैं। श्री चमड़िया ने अपने सर्वे का हवाला देते हुए बताया है कि मीडिया में फैसले लेने वालों में दलित और आदिवासी एक भी नहीं है। जहां तक सरकारी मीडिया का सवाल है तो वहां एकाध दलित-पिछड़े नजर आ जाते हैं। श्री चमड़िया कहते हैं कि देश की कुल जनसंख्या में मात्र आठ प्रतिशत उंची जाति की हिस्सेदार है और, मीडिया हाउसों में फैसले लेने वाले 71 प्रतिशत शीर्ष पदों पर उनका कब्जा बना हुआ है। यह बात स्थापित हो चुकी है और कई लोगों ने अपने निजी अनुभवों के आधार पर माना है कि कैसे कास्ट कंसीडरेशन होता है। यही वजह है कि दलितों को मीडिया में जगह नहीं मिली। जो भी दलित आए, वे आरक्षण के कारण ही सरकारी मीडिया में आये। रेडियो-टेलीविजन में दलित दिख जाते है दूसरी जगहों पर कहीं नही दिखते। जहां तक मीडिया में दलितों के आने का सवाल है तो उनको आने का मौका ही नहीं दिया जाता है। श्री चमड़िया का मानना है कि मामला अवसर का है, हमलोगों का निजी अनुभव यह रहा है कि किसी दलित को अवसर देते हैं तो वह बेहतर कर सकता है। यह हमलोगों ने कई प्रोफेशन में देख लिया है। दलित डाक्टर, इंजीनियर, डिजाइनर आदि को अवसर मिला तो उन्होंने बेहतर काम किया। दिल्ली यूनिवर्सिटी में बेहतर अंग्रेजी पढ़ाने वाले लेक्चररों में दलितों की संख्या बहुत अच्छी है, यह वहां के छात्र कहते हैं। बात अवसर का है और दलितों को पत्रकारिता में अवसर नहीं मिलता है। पत्रकारिता में अवसर कठिन हो गया है। उसको अब केवल डिग्री नहीं चाहिये। उसे एक तरह की सूरत, पहनावा, बोली चाहिये। मीडिया प्रोफेशन में मान लीजिये कोई दलित लड़का पढ़कर, सर्टिफिकेट ले भी लें और वह काबिल हो भी जाय, तकनीक उसको आ भी जाये, तो भी उसकी जाति डेसिमिनेशन का कारण बन जाता है।
पत्रकारिता में दलितों की हिस्सेदारी या फिर उनके प्रति सार्थक सोच को सही दिशा नहीं दी गई। तभी तो हिन्दी पत्रकारिता पर हिन्दू पत्रकारिता का भी आरोप लगता रहा है। हंस के संपादक और चर्चित कथाकार-आलोचक राजेन्द्र यादव ने एक पत्रिका को दिये गये साक्षात्कार में माना है कि हिन्दी पत्रकारिता पूर्वाग्रही और पक्षपाती पत्रकारिता रही है। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जैसे वरिष्ठ पत्रकार ने भी अपनी पत्रकारिता के दौरान वर्णव्यवस्था के प्रश्न पर कभी कोई बात नहीं की। इसका कारण बताते हुए श्री यादव कहते हैं कि ये पत्रकार जातिभेद से दुष्प्रभावित भारतीय जीवन की वेदना कितनी असह्य है इसकी कल्पना नहीं कर पाये। सच भी है इसका जीवंत उदाहरण आरक्षण के समय दिखा। मंडल मुद्दे पर मीडिया का एक पक्ष सामने आया। वह भी आरक्षण के सवाल बंटा दिखा।
दूसरी ओर महादलित आयोग, बिहार के सदस्य और लेखक बबन रावत, मीडिया में दलितों के नहीं होने की सबसे बड़ी वजह देश में व्याप्त जाति व वर्ण व्यवस्था को मानते हैं। श्री रावत कहते है कि हमारे यहां की व्यवस्था जाति और वर्ण पर आधारित है जो एक पिरामिड की तरह है। जहां ब्राह्मण सबसे उपर और चण्डाल सबसे नीचे है और यही मीडिया के साथ भी लागू है। जो भी दलित मीडिया में आते हैं पहले वे अपना जात छुपाने की कोशिश करते हैं। लेकिन ज्योंहि उनके जाति के बारे में पता चलता है। उनके साथ दोयम दर्जे का व्यवहार शुरू हो जाता है। वह दलित कितना भी पढ़ा लिखा हो उसकी मेरिट को नजरअंदाज कर दिया जाता है। ऐसी स्थिति में दलित पत्रकार हाशिये पर चला जाता है।
वहीं वरिष्ठ पत्रकार अभय कुमार दुबे मीडिया में दलितों की भागीदारी के सवाल पर एक पत्रिका को दिये गये साक्षात्कार में मानते हैं कि पत्रकारिता के लिए लिखाई-पढ़ाई चाहिए और ऐसी लिखाई पढ़ाई चाहिए जो सरकारी नौकरी के उद्देश्य से प्रेरित न हो। पत्रकारिता तो सोशल इंजीनियरिंग का क्षेत्र है। दलितों में सामाजिक-ऐतिहासिक यथार्थ यह है कि उनमें शिक्षा-दीक्षा का अभाव है। दूसरे, आजकल उनकी शिक्षा दीक्षा आरक्षण के जरिये सरकारी नौकरी प्राप्त करने की ओर निर्देशित होती है। इससे पत्रकारिता में उनका प्रवेश नहीं हो पाता। दलित और पिछड़े वर्ग के डी.एम., एस.पी., बी.डी.ओ. और थानेदार बनने के लिए अपने समाज को प्रेरित करते हैं पर पत्रकार बनने के लिए नहीं। जहां तक प्रतिभा का सवाल है वह सभी में समान होती है और दलित समाज एक के बाद एक प्रतिभा पेश करेगा तो उसे पत्रकार बनने के अवसरों से वंचित रखना असंभव हो जाएगा।
मीडिया पर काबिज सवर्ण व्यवस्था में केवल दलित ही नहीं पिछड़ों के साथ भी दोयम दर्जे का व्यवहार किया जाता है। चाहे वो कितना भी काबिल या मीडिया का जानकार हो ? ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं है। इन दिनों दिल्ली में एक बडे मीडिया हाउस में कार्यरत पिछड़ी जाति के पत्रकार को उस वक्त ताना दिया गया जब वे पटना में कार्यरत थे। उनके सर नाम के साथ जाति बोध लगा था। मंडल के दौरान उनके सवर्ण कलिगों का व्यवहार एकदम बदल सा गया था जबकि उस हाउस में गिने चुने ही पिछड़ी जाति के पत्रकार थे। यही नहीं मीडिया में उस समय कार्यरत पत्रकारों के बारे में जब सवर्ण पत्रकारों को पता चलता तो वे छींटाकशी से नहीं चूकते थे। यह भेदभाव का रवैया सरकारी मीडिया में दलित-पिछडे पत्रकारों के साथ अप्रत्यक्ष रूप से दिखता है। जातिगत लॉबी यहां भी सक्रिय है लेकिन सरकारी नियमों के तहत प्रत्यक्ष रूप से सामने नहीं आता केवल तरीका बदल जाता है और आरक्षण से आये का ताना सुनने को मिलता ही है। सरकारी मीडिया में भले ही दलित-पिछड़े आ गये हो लेकिन वहां भी कमोवेश निजी मीडिया वाली ही स्थिति है। अभी भी सरकारी मीडिया में उच्च पदों पर खासकर फैसले वाले पदों पर दलित-पिछड़ों की संख्या उच्च जाति/वर्ण से बहुत पीछे है।
जो भी हो समाज में व्याप्त वर्ण/जाति व्यवस्था की जड़े इतनी मजबूत है कि इसे उखाड़ फेंकने के लिए एक मजबूत आंदोलन की जरूरत है, जिसके लिए मीडिया को आगे आना होगा और जब तक यह नहीं होता दलितों को मीडिया में जगह मिलनी मुश्किल होती रहेगी।
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