Saturday, January 16, 2010

आखिर कब थमेगा छात्रों का पलायन


ऑस्ट्रेलिया में पढ़ाई करने गए भारतीय छात्रों के खिलाफ वहां हो रही हिंसात्मक घटनाएं अभी भारत में चर्चा में है। इस मसले पर तरह-तरह की बातें की जा रही हैं। कुछ लोग यह सवाल खड़ा कर रहे हैं कि आखिर शिक्षा हासिल करने के लिए ऑस्ट्रेलिया जैसे देश की ओर रुख करने की जरूरत ही क्या है? दरअसल, इस सवाल को सिर्फ विदेश जाने वाले छात्रों के संदर्भ में ही देखना सही नहीं है। मन में बेहतर शिक्षा हासिल करने की आस लिए बड़ी संख्या में छात्र देश में भी एक राज्य से दूसरे राज्य का रुख करने को मजबूर हो रहे हैं। इस आंतरिक पलायन पर भी बातचीत होनी चाहिए।
देश के प्रमुख शैक्षणिक केंद्रों में ऐसे युवाओं की बड़ी तादाद है जो अपने घर-परिवार से दूर रहकर अनजाने भविष्य को संवारने में दिन-रात एक किए हुए हैं। जो छात्र शिक्षा हासिल करने के लिए दूसरे राज्यों में जा रहे हैं उनके लिए समस्याओं की शुरुआत घर के चैखट से बाहर कदम रखते ही हो जाती है। ये छात्र अपने गृह राज्य में माध्यमिक स्तर की शिक्षा तो हासिल कर लेते हैं लेकिन उसके बाद की शिक्षा ग्रहण करने के लिए इन्हें दूसरे प्रांतों और महानगरों का रुख करना पड़ रहा है।
खास तौर पर व्यावसायिक शिक्षा के इच्छुक छात्रों के सामने महानगरों में जाने के अलावा और कोई चारा नहीं बचता है। दरअसल, दूसरे प्रदेशों में जाकर शिक्षा ग्रहण करने वाले छात्रों को उनसे कहीं ज्यादा समस्याओं का सामना करना पड़ता है जो केवल रोजगार की तलाश में आते हैं। नामांकन प्रक्रिया से शुरू हुआ छात्रों का संघर्ष थमने का नाम ही नहीं लेता है। छात्रों के लिए मर्जी के संस्थान में प्रवेश पाना भी एक बड़ी चुनौती है।
अहम सवाल यह है कि आखिर छात्र पलायन को क्यों मजबूर हो रहे हैं? इसके लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार विकास का मौजूदा माॅडल है। क्योंकि इस माॅडल ने विकास को विकेंद्रित नहीं किया है। कुछ साल पहले तक बनारस हिंदू विश्वविद्यालय और इलाहाबाद विश्वविद्यालय का बड़ा नाम था। ये शिक्षा के उत्कृष्ट संस्थानों में शुमार किए जाते थे। हालांकि, अभी भी इनका नाम बेहद सम्मान के साथ लिया जाता है लेकिन इस दौर के छात्रों की प्राथमिकता सूची में ये संस्थान नहीं रहे।
इसकी मुख्य वजह यह है कि 1991 से लागू हुए आर्थिक उदारीकरण के बाद दिल्ली-मुंबई जैसे महानगरों के आस-पास के ही शैक्षणिक संस्थानों का सही ढंग से विकास हुआ। इन्हीं क्षेत्रों में नए-नए संस्थान भी खुले। इस दौरान दक्षिण भारत के कुछ केंद्र शिक्षा के मामले में जरूर उभरे लेकिन पुराने गैर महानगरीय शैक्षणिक संस्थानों की चमक फीकी पड़ गई। यानी कहा जाए तो शिक्षा का विकेंद्रित विकास नहीं हुआ।
जो व्यावसायिक गतिविधियों के केंद्र थे, उनके आस-पास ही शैक्षणिक संस्थाओं का विकास हुआ। इस वजह से पुराने शैक्षणिक संस्थानों वाले राज्यों से नए शैक्षणिक केंद्रों की ओर काफी तेजी से छात्रों का पलायन हो रहा है। जब तक शैक्षणिक संस्थाओं का विस्तार विकेंद्रित तौर पर नहीं किया जाएगा तब तक तो एक राज्य से दूसरे राज्य में होने वाला छात्रों का पलायन थमने से रहा। छात्रों के बढ़ते पलायन का नतीजा यह हो रहा है कि शैक्षणिक संस्थानों पर काफी दबाव बढ़ रहा है।
बहरहाल, जो छात्र अपने घर-बार को छोड़कर दूसरे राज्यों में शिक्षा हासिल करने जा रहे हैं, उन्हें कई तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। ऐसे छात्रों के समक्ष नए शैक्षणिक और सामाजिक परिवेश से तारतम्य बनाने की भी बहुत बड़ी चुनौती होती है। इसके अलावा ऐसे छात्रों के लिए आवास बहुत बड़ी समस्या है। पिछले कुछ सालों में दिल्ली एक अहम शैक्षणिक केंद्र के तौर पर उभरा है। देश की राजधानी होने के नाते दिल्ली और आस-पास के इलाके में व्यावसायिक गतिविधियां काफी तेजी से बढ़ी हैं। इस वजह से यहां शैक्षणिक संस्थाओं का भी विकास हुआ है।
दिल्ली में शिक्षा हासिल करने आने वाले छात्रों से मकान मालिक किराए के रूप में मोटी रकम वसूल रहे हैं। इन छात्रों के सामने भी मुंहमांगा किराया देने के अलावा और कोई चारा नहीं है। क्योंकि जिन संस्थानों में ये पढ़ते हैं, वहां या तो छात्रावास की सुविधा ही उपलब्ध नहीं है और अगर है तो वहां सीटें बेहद कम हैं। कहा जा सकता है कि शैक्षणिक पलायन को रोके बगैर देश की शिक्षा व्यवस्था की सेहत सुधारने का ख्वाब देखना सही नहीं है।

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