Tuesday, January 12, 2010

सैक्स स्कैण्डल: तिवारी निर्दोष तो सज़ा क्यों?

भाजपा के राज्य सभा सांसद प्रभात झा ने महामहिम राष्‍ट्रपति को पत्र लिख कर आन्ध्र प्रदेश के पूर्व राज्यपाल नारायण दत्त तिवारी प्रकरण को लेकर कई संवैधानिक, नैतिक व पारम्परिक प्रश्‍न उठाये हैं। कांग्रेस ने इन प्रश्‍नों के उत्तर देना तो गवारा न समझा अपितु यह आरोप अवश्‍य जड़ दिया है कि भाजपा इस का राजनैतिक लाभ अर्जित करने का प्रयास कर रही है। यह तो कोई तर्क नहीं। अपनी जान बचाने के लिये ऐसा कहना तो बस एक बचकाना प्रयास ही लगता है ताकि तथ्यों व तर्कों से पीछा छुड़ाया जा सके।

कांग्रेस पार्टी और श्री तिवारी स्वयं इस सारे गम्भीर मामले को ऐसे प्रस्तुत करने की चेष्‍टा कर रहे हैं मानो यह तो कोई मामूली सी आई-गई बात हो जिस पर ध्‍यान देना अपना ही समय बर्बाद करना है। एक घिसे-पिटे तौर पर घिसी-पिटी भाषा में इस शर्मनाक घटना का खण्डन न तो कांग्रेस का ही, न श्री तिवारी का और न ही राष्‍ट्र का सिर उंचा करता है।

आन्ध्र में एक तेलगु इलैक्ट्रानिक चैनल ने कुछ दृश्‍य दिखाये थे जिनका इशारा तत्कालीन राज्यपाल श्री तिवारी की ओर था। राजभवन तुरन्त हरकत में आ गया। एक याचिका दायर कर इसे चार घण्टे के भीतर ही उस चैनल द्वारा प्रसारण पर रोक लगा दी गई। राजभवन ने स्पष्‍टीकरण भी कर दिया कि इसका राज्यपाल महोदय से कोई लेना-देना नहीं है। पर शक तो तब घहरा गया जब कुछ ही घंटों बाद राज्यपाल महोदय ने स्वास्‍थ्‍य कारणों से इस्तीफा भी दे मारा और उसी द्रुत गति से महामहिम राष्‍ट्रपति महोदया ने भी स्वीकार कर लिया।

यदि श्री तिवारी सचमुच ही निर्दोष थे और उनका इस प्रकरण से कुछ लेना-देना नहीं था तो यकायक उनके त्यागपत्र को क्या औचित्य था? राजभवन को इस बारे किसी स्पष्‍टीकरण को जारी करने की क्या आवश्‍यकता थी? यदि वह सचमुच ही निर्दोष थे तो उनके त्यागपत्र ने तो एक निर्दोष व्यक्ति को ही खामखाह में बलि का बकरा बना दिया गया।

दूसरी ओर मीडिया रिपोर्ट के अनुसार तो कांग्रेस ने श्री तिवारी के त्यागपत्र पर अपनी पीठ भी थपथपाई। रिपोर्ट ने दावा किया कि श्री शिबू सोरेन की काली छवि के कारण उस का झारखण्ड में समर्थन न कर अपनी नैतिकता का झण्डा ही उंचा रखा था और अब श्री तिवारी के मामले में इसका दूसरा उदाहरण प्रस्तुत किया है। तो फिर कांग्रेस की आधिकारिक टिप्पणी और मीडिया रिपोर्टों में यह विरोधाभास क्यों?

त्यागपत्र के बाद जब श्री तिवारी अपने गृह शहर देहरादून पहुंचे तो वह पूर्ववत् प्रसन्नचित्त थे मानों कुछ हुआ ही नहीं। ऐसा कुछ आभास नहीं मिलता था कि उनका स्वास्थ्य अचानक इतना बिगड़ गया था कि उनका राज्यपाल की कुर्सी पर कुछ और क्षण टिके रहना नामुमकिन था। उन्होंने तथाकथित सैक्स स्कैण्डल से अपना पल्लू झाड़ लिया।

इससे तो यही आभास मिलता है कि उनके ‘स्वास्थ्य’ के यकायक बिगड़ जाने का कारण ही तेलगू चैनल की वह रिपोर्ट थी क्योंकि उनका ‘स्वास्थ्य’ तो किसी प्रकार भी बिगड़ा हो ऐसे कोई लक्षण नज़र नहीं आ रहा था और त्यागपत्र तो मात्र उस झंझट से छुटकारा पाने और घटनास्थल से दूर भागने का एक बहाना मात्र था।

वैसे राज्यपाल के पद पर नियुक्ति व उस पर बने रहने केलिये किसी व्यक्ति का पूरी तरह स्वस्थ होना या रहना कोई आवश्‍यक शर्त भी नहीं है। अभी हाल ही में एक ऐसे महोदय की राज्यपाल के पद पर नियुक्ति की गई थी जो इतने बीमार थे कि इस कारण बेचारे अपना पद भी ग्रहण न कर सके और चल बसे।

वास्तविकता तो यह है कि जिन महानुभावों का स्वास्थ्य ठीक नहीं होता वह ही अधिक इच्छुक होते हैं कि उन्हें राज्यपाल जैसा कोई सार्वजनिक पद मिल जाये ताकि वह सरकारी खर्चे पर स्वास्थ्य लाभ कर सकें। हर बीमार व्यक्ति यही चाहता है कि उसे कोई मोटा सरकारी पद मिल जाये ताकि वह सरकारी खर्च पर देश के बढ़िया से बढ़िया सरकारी व निजी अस्पताल में और आवश्‍यकता पड़े तो विदेश में भी अपना इलाज करवा सके। वस्तुत: सार्वजनिक जीवन में हर व्यक्ति की यही अन्तिम इच्छा होती है कि किसी न किसी तरह वह भी अपने अन्तिम क्षण किसी सरकारी पद पर ही बिताये और सरकारी सम्मान के साथ सरकारी खर्च पर ही अपना अन्तिम संस्कार करवाने का गौरव प्राप्त कर सके।

इस लिये श्री तिवारी जिस भी बीमारी से ग्रस्त हो उन्हें देश व विदेश में सरकारी व ग़ैर-सरकारी अस्पताल में बढ़िया से बढ़िया उपचार सुविधा मिल सकती थी और वह भी सरकारी खर्च पर। तो इस का क्या अर्थ लगाया जाये कि श्री तिवारी किसी ऐसी नामुराद बीमारी से ग्रस्त थे कि उसका किसी सरकारी या ग़ैर-सरकारी अस्पताल में इलाज सम्भव नहीं था और वह इस का उपचार निजी तौर पर स्वयं अपने ही खर्च पर करवाना चाहते थे। ईश्‍वर उन्हें स्वास्थ्य व दीर्घ आयु दें।

इस सब के बावजूद यह प्रश्‍न तो मुंह बाये ही रह जाता है कि तेलगू चैनल पर दर्शायी गई घटना क्या वास्तव में घटी या वह केवल एक मनगढ़न्त कहानी है? यदि यह सच है तो उस में दर्शाया गया व्यक्ति कोई भी हो – छोटा या बड़ा – है तो यह एक अपराध ही और उस के लिये किसी को बक्षा नहीं जा सकता। उस में दर्शाये गये व्यक्ति को तो सज़ा मिलनी ही चाहिये।

जांच योग्य बात तो यह भी है कि क्या यह घटना राजभवन परिसर में घटी या कहीं बाहर। यदि यह घटना राजभवन परिसर की है तो मामला और भी जटिल व अपराधपूर्ण बन जाता है क्योंकि इस से तो एक संवैधानिक पद व भवन की मर्यादा भी भंग हो जाती है जो किसी भी हालत में क्षम्य नहीं है और ज़िम्मेवार कोई भी हो उसे तो कड़ी से कड़ी सज़ा मिलनी ही चाहिये ताकि कोई भी व्यक्ति आगे कभी ऐसे पद या भवन की प्रतिश्ठा से खिलवाड़ न कर सके।

यदि ऐसी कोई घटनी घटी ही नहीं और श्री तिवारी किसी भी तरह सम्बन्धित नहीं हैं तो उसका तो निष्‍कर्ष यह निकलता है कि तेलगू चैनल ने एक काल्पनिक रिपोर्ट दिखा कर किसी इज्ज़तदार व्यक्ति की टोपी उछालने का घृणित अपराध किया है जो एक संवैधानिक पद पर सुशोभित था। यह तो और भी संगीन मामला बन जाता है और उस पर आपराधिक मामला दर्ज कर उसे कड़ी से कड़ी सज़ा दी जानी चाहिये ताकि भविष्‍य में कोई भी व्यक्ति ऐसा करने की हिम्मत ही न कर सके। ऐसा न कर सरकार केवल ऐसी अनाचार प्रवृत्तियों को ही प्रोत्साहित करने का अपराध कर रही है और ऐसी घटिया हरकतों के लिये लोगों को प्रोत्साहित कर रही है क्योंकि ऐसा करने वालों के विरूद्ध कोई कानूनी कार्यवाही तो होती नहीं है।

यदि चैनल पर दिखाई गई सीडी जाली है तो इसका तो स्पष्‍ट तात्पर्य निकला कि श्री तिवारी द्वारा इस्तीफा दिये जाने के अतिरिक्त कोई और चारा न छोड़ उनके साथ घोर अन्याय किया गया है और उन्हें अपना पक्ष व अपने आप को निर्दोश साबित करने के अवसर से वंचित किया गया है जिस पर उनका संवैधानिक अधिकार भी था। उन्हें अपमानित किया गया है और उन्हें सज़ा भी दे दी गई हालांकि उनका तो कोई कसूर ही नहीं था। यदि हमारा कानून व हमारी व्यवस्था श्री तिवारी जैसे व्यक्ति के मान-सम्मान की रक्षा करने में बिफल रही तो वह आम आदमी को कहां ऐसी सुरक्षा प्रदान कर सकेगी। यदि हमारी व्यवस्था श्री तिवारी जैसे सम्माननीय व्यक्ति को ब्लैकमेल से सुरक्षा प्रदान नहीं कर सकती, उसे न्याय नहीं दिला सकती तो आम आदमी को तो ईश्‍वर ही रक्षक है।

प्रश्‍न किसी व्यक्ति विशेष का नहीं है और न ही इस बात का है कि श्री तिवारी एक कांग्रेसी नेता हैं या नहीं। प्रश्‍न तो नैतिकता का है, परम्परा का है, कानून व व्यवस्था और न्याय का है। यूपीए सरकार तो सूचना के अधिकार के कानून को बनाने पर तो बड़ा गर्व करती है पर इस सारे प्रकरण में सच्चाई क्या है उसे सामने लाने में रोड़ा अटका रही है। यह क्या अपने ही द्वारा बनाये गये कानून की धज्जियां उड़ाने का अपराध नहीं है? क्या सरकार जनता को सच्चाई जानने के अधिकार से वंचित नहीं कर रही है? सारे मामले पर पर्दा डाल कर क्या सरकार अपनी कथनी और करनी के विरोधाभास को ही उजागर नहीं कर रही है?

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