Monday, January 18, 2010
ज्योति बसु के महाप्रयाण के साथ बंगाल में वामपंथ की उल्टी गिनती शुरू
पश्चिम बंगाल के फलक पर सूर्योदय आज भी हुआ। लेकिन आज शायद उसकी किरणों में वह चमक, वह ज्योति कमतर लग रही थी, जो हर रोज रहा करती है। शायद ज्योति बसु जैसे कद्दावर नेता के महाप्रयाण के साथ बंगाल के फलक पर निकलने वाले सूर्य पर कहीं मातम का ग्रहण लगा हुआ था।
लगभग 70 सालों से सियासी फलक पर अपनी पहचान बनाने वाले ज्योति बसु का पार्थिव शरीर पीस हेवेन में रखा है। हमेशा गुरु गंभीर रहने वाले ज्योति बाबू के चेहरे पर गांभीर्य बाकायदा देखा जा सकता है। यह अलग बात है कि पहले उनके गांभीर्य में बहुतेरी चिन्ताएं छिपी रहती थीं, पर आज गांभीर्य सिर्फ महसूस किया जा सकता था।
ज्योति बसु कम्युनिस्ट थे। सम्पूर्ण कम्युनिस्ट। ईश्वरीय सत्ता में आस्था रखने वाले नहीं थे वे। उनकी आस्था थी वास्तववाद में। शायद यही कारण था कि वामपंथ को उन्होंने न पढ़ा या माना, बल्कि पूरी तरह आत्मसात किया। मुख्यमंत्री बनने के पहले वे कई बार विधायक बने, विपक्ष के नेता रहे, उपमुख्यमंत्री बने । सन 1977 मे कांग्रेस नेता और ज्योति बसु के अन्यतम बाल सखा सिद्धार्थशंकर राय की दुर्नीतियों को बैलट के माध्यम से परास्त कर जब वामपंथी गठबंधन बंगाल की हुकूमत में आया, तो ज्योति बाबू सर्वसम्मति से वामपंथी मुख्यमंत्री बने। और बने तो फिर ऐसे बने कि क्रिकेटिया शैली में सचिन की तरह सारे रिकार्ड तोड़ डाले। लगातार पांच पारियों में उन्होंने वामपंथी गठबंधन को सरकार बनाने का अवसर प्रदान किया। छठी बार के चुनाव के पहले सच्चे गुरु की भांति अपने शिष्यसम उत्तराधिकारी बुद्धदेव भट्टाचार्य के हाथों में कमान सौंपकर राजनीति से अपनी पारी समाप्ति की घोषणा कर डाली।
यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि ज्योति बाबू से बुद्धदेव भट्टाचार्य के गुरुतर मतभेद रहे। कोई कारण नहीं था कि ज्योति बाबू बुद्धदेव को ही मुख्यमंत्री बनाते। पार्टी में वे किसी भी पद से ऊपर थे। उनके सामने बोलना तो छोडि़ए, मुखालफत की बात सोचने तक की हिम्मत किसी में नहीं थी। ज्योति बाबू चाहते तो अपने सर्वाधिक चहेते मंत्री सुभाष चक्रवर्ती को उपमुख्यमंत्री बना सकते थे। वित्त मंत्री डा. असीम दासगुप्ता भी योग्यता में कहीं कम नहीं थे। पर प्रशासनिक स्तर पर उन्हें मजबूत, समझदार और ईमानदार उत्तराधिकारी की तलाश थी। ये सारे गुण इकट्ठा रूप में शायद सुभाष चक्रवर्ती और डा. असीम दासगुप्ता के पास नहीं थे। मजे की बात यह कि जिन बुद्धदेव भट्टाचार्य को उन्होंने सूचना और संस्कृति मंत्रालय सौंपा, बाद में प्रमोट करके उपमुख्यमंत्री तक बनाया, उन्हींने ज्योति बाबू के मंत्रिमंडल को चोरों का मंत्रिमंडल कहकर मंत्रिपद छोड़ा और नौ महीने तक सरकार से बाहर रहे। बाद में ज्योति बसु के आदेश पर ही वे पुन: लौटे और उपमुख्यमंत्री बना दिए गए। बुद्धदेव को मुख्यमंत्री बनाने की पहल स्वयं बसु ने की थी। देश में तमाम सूबों में हो रही राजनीति में पिता-पुत्र या पिता-पुत्री या अपने अन्य रिश्तेदारों के लिए मैदान करना आम बात है, पर ज्योति बसु पर इल्जाम कोई लगाकर तो देखे। अपने इकलौते बेटे चन्दन बसु को वे कभी राज्यसभा में भेज सकते थे। पर उन्होंने कभी ऐसी पहल नहीं की। इस प्रकार की सुगबुगाहट भी कभी देखने-सुनने को नहीं मिली। ज्योति बसु की निगाहों में पार्टी निजी लाभ या निजी पद की लालसा के लिए नहीं होती, यह आम कार्यकर्ता के लिए होती है, आम जनता के लिए होती है।
जहां तक संगठन की बात है, ज्योति बाबू ने तमाम शिखरों को छू लेने के बावजूद संगठन की नीतियों से स्वयं को ऊपर नहीं रखा। भारत का प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब देख लेने पर जहां चंद्रशेखर-देवगौड़ा-लालू-मुलायम-मायावतियों की लार टपकने लगती, वहीं ज्योति बाबू ने पार्टी का कहा माना और प्रधानमंत्री न बनने का ऐलान कर दिया। भारत जैसे देश में तो क्या, आस-पड़ोस के किसी भी देश में ऐसी कोई मिशाल हो तो न•ार कीजिएगा। यह अलग बात है कि पार्टी ने प्रधानमंत्री पद ठुकराने के इस घटनाक्रम को ऐतिहासिक भूल माना, पर ज्योति बाबू इस पर क्या कर सकते थे। ऐसे और भी कई वाकए हैं, जब ज्योति बाबू अपनी पार्टी की नीतियों को न मानते हुए भी सामूहिक फैसले में स्वच्छन्द भाव से कदमताल करते रहे। राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्तव काल में जब देश कम्प्यूटर युग का आगाज कर रहा था, तब भी ज्योति बाबू न चाहते हुए पार्टी लाइन पर कम्प्यूटर का विरोध करते दिखे। इसे भी बाद में माकपा ने ऐतिहासिक भूल करार दिया। आज आलम यह है कि बंगाल सरकार अन्य राज्यों की तरह न केवल कम्प्यूटर तकनीक को खुलकर बढ़ावा दे रही है, बल्कि इसके लिए अलग मंत्रालय है और कोलकाता में सेक्टर-5 नामक अलग क्षेत्र इस क्षेत्र की कम्पनियों के लिए आरक्षित कर दिया गया है।
1977 में मुख्यमंत्री बनने के बाद ज्योति बाबू के राजनैतिक जीवन में उतार के दौर कम ही आए। अब इसे ज्योतिषीय भाषा में उनकी कुण्डली का महाबली होना कहिए, प्रारब्ध में चढ़ाव ही चढ़ाव लिखा होना कहिए या फिर उनकी प्रबल इच्छाशक्ति कहिए कि जिस काम में उन्होंने हाथ डाला, उससे पीछे कभी नहीं हटे। बंगाल जैसे राजनैतिक रूप से सचेतन प्रदेश में चेतनाशील विपक्ष का सफाया कर एखछत्र वामपंथी राज चलाने को इसके सिवा क्या कहा जाए।
ज्योति बाबू जैसा दूरदर्शी प्रशासक कभी भी अपने फैसले से पीछे नहीं हटा। केंद्र में कांग्रेस की सरकार रही हो, या फिर भाजपानीत अटलबिहारी की। थीं तो वामपंथियों की विरोधी ही। ज्योति बसु जानते थे कि केंद्र की नाक में ज्यादा नींबू निचोडऩे की कोशिश करना राज्य के विकास के लिहाज से आत्मघाती होगा, फिर भी उन्होंने इन्दिरा गांधी से राजीव गांधी तक किसी को नहीं बख्शा। मनमर्जी तो ऐसी चलाते कि स्वतंत्रता दिवस पर बतौर मुख्यमंत्री तिरंगा फहराने से परहेज रखा। प्रधानमंत्री के रूप में राजीव गांधी कोलकाता आते तो प्रोटोकॉल के हिंसाब से उनकी आगवानी के लिए खुद एअरपोर्ट पहुंचने की बजाए अधीनस्थ मंत्री को भेज देते।
हां, इन्दिरा गांधी की कांग्रेस पार्टी से लाख दुश्मनी होने के बावजूद निजी स्तर पर बसु उन्हें अत्यन्त आदर देते थे। 70-80 के दशक में भले बंगाल की हर दीवार पर इंदिरा गांधीर कालो हाथ भेंगे दाउ, पूडि़ए दाउ (इंदिरा गांधी का काला हाथ तोड़ दो, जला दो) जैसा नारा लिखा होता था, लेकिन जब साल्टलेक में उन्होंने अपना निजी निवास तैयार करवाया तो उसकी दीवार पर इंदिरा भवन खुदवा दिया। यही नहीं, जिस रेड रोड पर तिरंगा फहराने से वे कतराते, उसी रेड रोड का नाम इंदिरा गांधी सरणी भी ज्योति बसु ने किया। कांग्रेस में परमानेंट नंबर 2 पर रहने वाले प्रणव मुखर्जी सार्वजनिक तौर पर यह शायद परते दम तक स्वीकार न करें, पर इस सच को कौन नहीं जानता कि उन्हें राज्यसभा में भेजने में परोक्ष रूप से ज्योति बाबू की अहम भूमिका रहा करती थी।
सुभाष चक्रवर्ती जैसे विवादास्पद नेता पर यदि बसु का हाथ न होता तो क्या यह मुमकिन था कि विधानसभा चुनाव के बाद राज्य सरकार के साल्टलेक स्टेडियम में छिपाकर रखे गए हथियारों की पोल खुलने के बावजूद उन्होंने सुभाष का बचाव किया और उन पर आंच न आने दी। आखिर सुभाष के बल पर ही ज्योति बाबू अपने मुख्यमंत्रित्तव काल के दौरान ब्रिगेड परेड मैदान में भीड़ जुटाया करते थे।
और अब आखिरी बात। कारण जो भी रहा हो, यह मानना ही पड़ेगा कि ज्योति बसु ने पार्टी नीतियों के खिलाफ मुंह न खोलने का व्रत हालिया वषों में तोड़ डाला था। अपने उत्तराधिकारी बुद्धदेव भ्टटाचार्य की किसानों की जमीन हड़पने की नीतियों और सिंगुर-नन्दीग्राम में गोली चलाने की घटनाओं से वे बेहद खफा थे। यह बात उनेहोंने कुछेक मीडिया के माध्यम से प्रकाश में भी लायी थी। पिछले लोकसभा चुनाव माथे पर आन पडऩे के बाद उनका यह बयान पार्टी के खिलाफ उनकी खीझ के कारण ही तो था कि लोकसभा चुनाव में पार्टी को भारी नुकसान उठाना पड़ेगा।
और हां, यह बात भी जल्द सामने आ जाएगी कि जिन सोमनाथ चटर्जी को पिछली यूपीए सरकार के विश्वासमत के दौरान लोकसभा की अध्यक्षता न छोडऩे के कारण प्रकाश करात के अहंकार का शिकार होकर पार्टी से बेदखल होना पड़ा, उन्हें भी करात के फैसले के खिलाफ खड़े होने के लिए ज्योति बाबू ने ही प्रेरित किया था। सोमनाथ चटर्जी एकाध अवसरों पर इशारे में कह चुके हैं कि ज्योति बसु ने ही उन्हे कहा था कि तुम स्पीकर हो, तुम्हें पार्टी लाइन से ऊपर उठकर विश्वासमत के दौरान अध्यक्षता करनी चाहिए।
तमाम तथ्यों के बावजूद कहा जा सकता है कि सुदीर्घ काल तक सियासत के तूफां में रहने के बावजूद बेदाग रहना ज्योति बसु या फिर अटल बिहारी वाजपेयी जैसों के लिए ही मुुमकिन है। विकास के मामले में ज्योति बसु शायद इसलिए वक्त से पीछे रह गए, क्योंकि राज्य में मजदूर यूनियनों का मनोबल उन्होंने ही बढ़ाया था। जिस बंगाल से रतन टाटा को 1500 करोड़ का प्रोक्ट लेकर गुजरात भागना पड़ा, उसी बंगाल में बाटा जैसी कम्पनी के प्रबन्ध निदेशक के मुंह पर मजदूर ने तमाचा जड़ा था।
वामपंथी आन्दोलन के पुरोधा होने के कारण साम्राज्यवादी ताकतों को ठिकाने लगाने का नारा देने वाले बसु ने अपने चहेते सेठ रमानाथ गोयनका, अरूण बाजोरिया, हर्ष नेवटिया और ऐसे अन्य दूसरों पर खास मेहरबानियां किस वजह से कीं, या फिर उनके राज में प्रमोटरों के फलने-फूलने के क्या कारण हैं, यह आज बताने का वक्त नहीं है। हां, सामान्य से दिखने वाले उनके निजी सहायक जयकिष्टो घोष की सम्पत्ति की कभी पड़ताल हो तो वामपंथ का एक दूसरा चेहरा भी दिख जाएगा।
बहरहाल, कहने में कोई शक नहीं कि यह महाप्रयाण ज्योति बसु का जरूर हुआ है, पर इस बुजुर्ग कॉमरेड के वेंटिलेटर के बेड से निस्तेज होकर बाहर आने के साथ ही बुद्धदेव भट्टाचार्य के नेतृत्वाधीन वाममोर्चा सरकार की उल्टी गिनती शुरू हो गयी है। पार्टी में अब टूट या भिकराव लाजिमी है। मौजूदा सरकार के कई मंत्री खेमा बदलकर वामपंथी की घुर विरोधी ममता बनर्जी की शरण में जाने का मुहूर्त तैयार करवा चुके हैं। बिन बसु बंगाल तो रहेगा, पर बिन बसु बंगाल में वामपंथ की कल्पना बिल्कुल बेमानी है। प्रकाश करात यदि कल्पना करते हैं तो अब यह उनका ही भ्रम माना जाएगा और 2011 में यह भ्रम तोडऩे के लिए बंगाल की जनता ने कमर कस ली है।
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