इन दिनों ‘मार्क्सवाद और धर्म के बीच संबंध’ पर बहस जोरों पर है। पिछले दिनों केरल से माकपा के पूर्व सासद डा. केएस मनोज ने अपनी आस्था व उपासना के अधिकार की रक्षा का प्रश्न उठाते हुए पार्टी से त्यागपत्र दे दिया। डा. केएस मनोज को 2004 में माकपा ने तब लोकसभा का टिकट दिया था, जब वे केरल लैटिन कैथोलिक एसोसिएशन के अध्यक्ष थे। लैटिन कैथोलिक के करीब बीस लाख अनुयायियों में डा. मनोज का अच्छा प्रभाव है। गौरतलब है कि माकपा की केंद्रीय कमेटी ने एक दस्तावेज में स्वीकार किया है कि पार्टी सदस्यों को धार्मिक आचारों को त्यागना चाहिए।
साम्यवाद के प्रवर्तक कार्ल मार्क्स ने बड़े जोर देकर कहा था, ‘धर्म लोगों के लिए अफीम के समान है (Religion as the opium of the people)। मार्क्स ने यह भी कहा था, ‘मजहब को न केवल ठुकराना चाहिए, बल्कि इसका तिरस्कार भी होना चाहिए।’ लेकिन मार्क्स गलत साबित हो रहे है। एक-एक करके उनके सारे विचार ध्वस्त हो रहे है। दो वर्ष पहले चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने अपने संविधान में बदलाव करते हुए धर्म को मान्यता दी। अब माकपा के महासचिव प्रकाश कारत मार्क्स का हवाला देते हुए कह रहे हैं, ‘धर्म उत्पीडि़त प्राणी की आह है, हृदयहीन दुनिया का हृदय है, आत्माहीन स्थिति की आत्मा है।’ कारत बैकफुट पर आ रहे हैं, ‘कौन कहता है कि माकपा धर्म के खिलाफ है। इसके बजाय हम धर्म से जुडे पाखंड और सांप्रदायिकता के विरोधी हैं।’
भारत के कम्युनिस्ट तो प्रारंभ से ही धर्मविरोधी है। हिन्दू धर्म के ये पक्के दुश्मन हैं। कारण साफ है हिन्दुत्व के आगे इनकी विचारधारा की हालत पतली हो जाती है। खिसियाकर ये कभी राम-सीता को भाई-बहन बताते है तो कभी राम को काल्पनिक ही साबित करने लगते है। कभी गीता को मनुष्यता के विरोधी बताते है तो कभी वेदों को गडेरिए का गीत। लेकिन इस्लाम को परिवर्तनकामी बताते है। इस्लाम के सामने ये मिमियाने लगते है, तब मार्क्स का फलसफा ताक पर रख देते है कि धर्म अफीम है। कन्नूर (केरल) से माकपा सांसद रहे केपी अब्दुल्लाकुट्टी हज यात्रा पर गए। केरल विधानसभा में माकपा के दो विधायकों ने ईश्वर के नाम पर शपथ ली। कुछ दिनों पहले कोच्चि में माकपा की बैठक में अनोखा नजारा देखने को मिला। मौलवी ने नमाज की अजान दी तो धर्मविरोधी माकपा की बैठक में मध्यांतर की घोषणा कर दी गई। मुसलिम कार्यकर्ता बाहर निकले। उन्हें रोजा तोड़ने के लिए पार्टी की तरफ से नाश्ता परोसा गया। यह बैठक वहां के रिजेंट होटल हाल में हो रही थी।
वहीं, याद करिए जब सन् 2006 में वरिष्ठ माकपा नेता और पश्चिम बंगाल के खेल व परिवहन मंत्री सुभाष चक्रवर्ती ने बीरभूम जिले के मशहूर तारापीठ मंदिर में पूजा-अर्चना की और मंदिर से बाहर आकर कहा, ‘मैं पहले हिन्दू हूं, फिर ब्राह्मण और तब कम्युनिस्ट’ तब इस घटना के बाद, हिन्दू धर्म के विरुद्ध हमेशा षड्यंत्र रचने वाली भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के अन्दर खलबली मच गई। सबसे तीव्र प्रतिक्रिया दी पार्टी के वरिष्ठ नेता व पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री ज्योति बसु ने। उन्होंने तो यहां तक कह दिया, ‘सुभाष चक्रवर्ती पागल हैं।’ इसके प्रत्युत्तर में सुभाष ने सटीक जवाब दिया और सबको निरुत्तर करते हुए उन्होंने वामपंथियों से अनेक सवालों के जवाब मांगे। उन्होंने कहा कि जब मुसलमानों के धार्मिक स्थल अजमेर शरीफ की दरगाह पर गया तब कोई आपत्ति क्यों नहीं की गई? उन्होंने यह भी पूछा कि जब पूर्व मुख्यमंत्री ज्योति बसु इस्राइल गए थे और वहां के धार्मिक स्थलों पर गए तब वामपंथियों ने क्यों आपत्ति प्रगट नहीं की।
कल (19 जनवरी, 2010) के समाचार-पत्रों में दो महत्वपूर्ण आलेख प्रकाशित हुए हैं। अमर उजाला में माकपा के महासचिव श्री प्रकाश कारत ने ‘कौन कहता है माकपा धर्म के खिलाफ है’ इस विषय पर लेख लिखा है वहीं दैनिक जागरण में भाजपा के राष्ट्रीय सचिव व सुप्रसिद्ध स्तंभकार श्री बलबीर पुंज ने इसी विषय पर ‘साम्यवाद की असलियत’ बताने की कोशिश की है। हम यहां दोनों लेख प्रकाशित कर रहे हैं और ‘प्रवक्ता डॉट कॉम’ के सुधी पाठकों से निवेदन कर रहे हैं कि इस विषय पर अपने विचार रखें
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