Tuesday, January 12, 2010

यह लोकतंत्र नहीं, लूटतंत्र है


मध्य प्रदेश में नगरीय निकायों के चुनाव में उम्मीदवारी तय करने में बीजेपी और काँग्रेस ने लोकतंत्र के सभी उसूलों को ताक पर धर दिया है। दोनों ही पार्टियों ने उम्मीदवारों की काबीलियत से ज़्यादा उसकी हैसियत को तरजीह दी है। प्रमुख दलों की “नूरा कुश्ती” ने महापौर, स्थानीय निकाय के अध्यक्षों और पार्षदों की तकदीर का फ़ैसला टिकट देते वक्त ही कर दिया है। आपसी तालमेल और सामंजस्य का इससे बेहतर उदाहरण क्या होगा कि सत्ताधारी दल के कई उम्मीदवारों के खिलाफ़ गुमनाम और अनजान चेहरे चुनावी मैदान में उतारे गये हैं। आम मतदाता दलों की चालबाज़ियों को बखूबी जान-समझ रहा है, लेकिन लोकतंत्र के नाम पर ठगे जाने को अपनी नियति मान कर हताश और निराश है। लोकतंत्र के नाम पर खुले आम चल रहे “लूटतंत्र” को रोकने में नाकाम लोग खुद को बेबस पा रहे हैं।

नगरीय निकायों के चुनाव को लेकर भाजपा ने इस बार नेताओं के रिश्तेदारों की बजाय कार्यकर्ताओं को उम्मीदवार बनाने का ऐलान किया था। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने एक बार फिर तय किए गए सारे मापदंडों की धज्जियाँ उड़ा दी हैं। पार्टी के तमाम नेताओं की घोषणा के बावजूद महापौर पद के 13 में से चार उम्मीदवार ऐसे हैं जो सीधे तौर पर नेताओं के रिश्तेदार हैं। ये चारों ही महिला उम्मीदवार हैं। पार्टी की वरिष्ठ नेता सुषमा स्वराज ने भी सूबे में घूम-घूम कर महिला कार्यकर्ता सम्मेलनों में ऎलान किया था कि टिकट पाने के लिये कार्यकर्ताओं की सक्रियता ही एकमात्र पैमाना होगी ना कि किसी की रिश्तेदारी। लेकिन टिकट बँटवारे की फ़ेहरिस्त का खुलासा होने के बाद पार्टी का आम और सक्रिय कार्यकर्ता गुस्से से उबल रहा है। हर बार नेताओं के चहेतों, चमचों और रिश्तेदारों की उम्मीदवारी तय होती देख कार्यकर्ता समझ ही नहीं पा रहा कि पार्टी में उसका भविष्य क्या होगा?

प्रदेश में नगरीय निकाय का पहला ऐसा चुनाव है जिसमें 50 प्रतिशत पद महिलाओं के लिए आरक्षित है। भाजपा ने नगरीय प्रशासन मंत्री बाबूलाल गौर की पुत्रवधू कृष्णा गौर को भोपाल से महापौर पद का उम्मीदवार बनाया है। कृष्णा पिछड़े वर्ग से आती हैं, जबकि ये सीट सामान्य वर्ग की महिला के लिये है। सामान्य वर्ग के उम्मीदवार के रूप में भाजपा महिला मोर्चा की प्रदेश अध्यक्ष सीमा सिंह, महिला समाज कल्याण बोर्ड की अध्यक्ष उषा चतुर्वेदी के अलावा सरिता देशपांडे जैसे तगड़े दावेदारों को दरकिनार कर कृष्णा गौर को टिकट दिया गया है। बीजेपी उम्मीदवार की पहचान यह है कि वे बाबूलाल गौर के बेटे की विधवा हैं। जब गौर “खड़ाऊ मुख्यमंत्री” बने थे, तभी उनके इकलौते पुत्र की मौत हो गई। पुत्रवधू को वैधव्य के दुख से बाहर लाने के लिये गौर ने कृष्णा गौर को आनन-फ़ानन में मप्र पर्यटन विकास निगम के अध्यक्ष पद का झुनझुना थमा दिया। हालाँकि तगड़े विरोध के कारण गौर को अपने कदम पीछे लेना पड़े और मुख्यमंत्री की कुर्सी भी गँवाना पड़ी। भोपाल की फ़िज़ा में ससुर-बहू की इस अलबेली जोड़ी के कई किस्से कहे – सुने जाते हैं। बहू को गद्दीनशीन देखने के ख्वाहिशमंद गौर ने भोपाल के उपनगर कोलार में नगरपालिका बना डाली, लेकिन दाँव उल्टा पड़ गया और ख्वाब की तामीर नहीं हो सकी।

पटवा-सारंग गुट के इस खास सिपहसालार ने इस बार पार्टी ही नहीं विरोधी खेमे को भी बखूबी साध लिया है। तभी तो काँग्रेस ने कई मज़बूत महिला नेताओं की दावेदारी को खारिज करते हुए आभा सिंह जैसे अनजान चेहरे पर दाँव लगाया है। मतदाता खुद को ठगा महसूस कर रहा है और जानकार इसे मतदान से पहले ही बीजेपी के लिये जीत का जश्न मनाने का मौका बता रहे हैं। बीजेपी ने आदिम जाति कल्याण मंत्री विजय शाह की पत्नी भावना शाह को खण्डवा, वरिष्ठ नेता नरेश गुप्ता की पुत्रवधू समीक्षा गुप्ता को ग्वालियर और वर्तमान महापौर अतुल पटेल की पत्नी माधुरी पटेल को बुरहानपुर से महापौर पद का उम्मीदवार बनाया है। महापौर पद के लिए घोषित किए गए 13 में से अधिकांश उन्हीं लोगों को उम्मीदवार बनाया गया है जिनके परिवार का कोई सदस्य पहले से ही पार्टी में सक्रिय है। इस मसले पर भाजपा के प्रदेश उपाध्यक्ष विजेंद्र सिंह सिसौदिया की कैफ़ियत है कि रिश्तेदारों को टिकट नहीं देने का आशय यह था कि जो राजनीति में सक्रिय नहीं है उन्हें उम्मीदवार नहीं बनाया जाएगा। उन्होंने स्पष्ट किया कि जिन्हें महापौर का उम्मीदवार बनाया गया है वे भले ही किसी के रिश्तेदार हों मगर पार्टी में सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं। उनकी उम्मीदवारी का आधार सक्रियता है।

नेताओं ने टिकट बँटवारे में नैतिकता के सभी मूल्यों को बड़ी ही बेहयाई से दरकिनार कर दिया है। मौजूदा राजनीति में व्यक्तित्व और कार्यकुशलता गौण और रिश्ते हावी होते जा रहे हैं। प्रमुख दलों में चहेतों को रेवड़ी बाँटने की परंपरा सी बन गई है। आपसदारी की राजनीति ने लोकतंत्र की जड़ों को खोखला कर दिया है। प्रभावी व्यक्तित्व और विकास के खुले नज़रिये के बगैर क्या ये सिफ़ारिशी चेहरे शहरों की कायापलट कर सकेंगे? क्या रिश्तेदारों के कँधों पर सवार होकर “लोकतंत्र की पाठशाला” में दाखिल होने वाले लोग बीमार स्थानीय निकायों को भ्रष्टाचार और अव्यवस्थाओं के दलदल से निजात दिला सकेंगे? या फ़िर ये नाकाबिल नुमाइंदे जनादेश के बहाने अपने आकाओं की मेहरबानी का सिला देने के लिये महज़ “कठपुतली” बन कर रह जाएँगे।

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