Friday, January 22, 2010
…तो फिर महासचिव का पद तज क्यों नहीं देते राहुल गांधी
सवा सौ साल पुरानी कांग्रेस अब निस्संदेह ”खानदानी परचून की दुकान” बनकर रह गई है। इसमें नेतृत्व ”सर्वाधिकार सुरक्षित” का मामला बन गया है। आजादी के बाद कांग्रेस की कमान नेहरू गांधी परिवार के इर्द गिर्द ही रही है। मोतीलाल नेहरू के बाद उनके पुत्र जवाहर लाल नेहरू फिर उनकी पुत्री इंदिरा गांधी के उपरांत बडे पुत्र राजीव गांधी, फिर इतालवी मूल की उनकी पत्नि सोनिया गांधी के पास कांग्रेस की सत्ता और ताकत की चाबी रही है। जिस तरह परचून की दुकान के स्वामित्व को एक के बाद एक कर आने वाली पीढी को हस्तांतरित किया जाता है, ठीक उसी तर्ज पर अब कांग्रेस की अंदरूनी सत्ता की कुंजी नेहरू गांधी परिवार की पांचवी पीढी को हस्तांतरित करने की तैयारियां चल रहीं हैं।
कांग्रेस की नजर में देश के भावी प्रधानमंत्री एवं युवराज राहुल गांधी का मीडिया मेनेजमेंट तारीफे काबिल है। युवराज का रोड शो हो या फिर किसी सूबे में जाकर दलित सेवा का प्रहसन, हर बार देश के शीर्ष मीडिया के चुनिंदा सरमायादारों को जबर्दस्त तरीके से उपकृत कर युवराज के महिमामण्डन का खेल खेला जा रहा है। देश भर में युवराज राहुल गांधी को इस तरह पेश किया जा रहा है, मानो उनके अलावा देश को संभालने का माद्दा किसी नेता के पास नहीं है।
भारतीय राजनीति की इससे बडी विडम्बना और क्या होगी कि विपक्ष भी राहुल गांधी के महिमामण्डन के आलाप गा रहा है। देश का प्रमुख विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी अपनी धार बोथरी कर चुका है। कांग्रेसनीत संप्रग सरकार में मंहगाई चरम पर है, चहुं ओर भ्रष्टाचार मचा हुआ है। मंत्री उल जलूल बकवास कर रहे हैं, देश की जनता हलाकान है, पर पिछले एक माह से भाजपा की ओर से इसके विरोध की आवाज कहीं से भी नहीं सुनाई दे रही है। और तो और भाजपा शासित राज्यों में भी चुप्पी को देखकर कहा जा सकता है कि ”यहां पर सब शांति शांति है।”
बहरहाल कांग्रेस के युवा महासचिव परिवारवाद की मुखालफत करते नजर आते हैं, पर जब इसे अंगीकार करने का मसला आता है तो वे भी मौन ही धारण कर लेते हैं। कांग्रेसजन सोनिया और राहुल गांधी को भले ही सत्ता प्राप्ति के मार्ग के तौर पर इस्तेमाल कर रही हो, पर राहुल गांधी को अपने उपर बिठाने के लिए वरिष्ठ नेता अपने आप को असहज महसूस कर रहे हैं। यही कारण है कि कांग्रेस के ऑफ द रिकार्ड बातचीत में महारथ रखने वालों ने राहुल के खिलाफ गुपचुप अभियान भी छेड रखा है, जिसमें एकाएक ”अवतरित” होकर सांसद और महासचिव बनने के पीछे की कहानियां और किंवदंतियां राजनैतिक फिजां में बलात तैरायी जा रही हैं।
राहुल गांधी के राजनैतिक प्रबंधक और मार्गदर्शक काफी सतर्क हैं। वे राहुल गांधी को हर हाल में 7 रेसकोर्स (प्रधानमंत्री के सरकारी आवास) तक पहुंचाने के लिए हर ताना बाना बुनने को तैयार हैं। यही कारण है कि बीते साल के आखिरी माहों में राजस्थान यात्रा पर गए राहुल गांधी ने जयपुर में साफ कह दिया था कि वे भी सिस्टम से नहीं आए हैं। राहुल ने बडी ही साफगोई के साथ यह कहा कि उनके परिवार के लोग राजनीति में हैं, अत: वे इसमें आए हैं, पर यह सही तरीका नहीं है।
यह बात सर्वविदित है कि देश का हर परिवार चाहता है कि भगत सिंह पैदा जरूर हो, पर वह बाजू वाले घर में, अर्थात बलिदान दिया जरूर जाए पर अपने घर के बजाए साथ वाले घर से किसी का बलिदान दिया जाए। राहुल ने यह बात भी कही थी कि नेता वही बनेगा जिसके पीछे जनता होगी। राहुल गांधी इस तरह के वक्तव्य देते वक्त भूल जाते हैं कि कांग्रेस में ही उनकी माता और अध्यक्ष श्रीमति सोनिया गांधी के इर्द गिर्द की सलाहकारों की भीड बिना रीढ के लोगों की है। न जाने कितने सूबों में प्रदेशाध्यक्ष के पद पर एसे लोग बैठे हैं, जो कभी चुनाव नहीं जीते। देश के वजीरे आजम डॉ.मनमोहन सिंह खुद इसकी जीती जागती मिसाल हैं। जनता द्वारा जिन लोगों को चुनाव में नकार दिया जाता है, उन्हें विधान परिषद या राज्य सभा के माध्यम से उपर भेजने की परंपरा नई नहीं है।
परिवारवाद की जहां तक बात है तो भारतीय राजनीति में परिवारवाद के नायाब उदहारणों में उनका अपना परिवार, शरद पवार, चरण सिंह, बाल ठाकरे, दिग्विजय सिंह, चरण सिंह, मुलायम सिंह यादव, कुंवर अर्जुन सिंह, आम प्रकाश चौटाला, लालू प्रसाद यादव आदि हैं। अगर एक सरकारी नौकर सेवा में रहते दम तोडता है तो उसके परिजनों को ‘अनुकंपा नियुक्ति’ के लिए चप्पलें चटकानी होती हैं, किन्तु जहां तक राजनीति की बात है इसमें अनुकंपा नियुक्ति तत्काल मिल जाती है।
जब भी किसी सूबे में कांग्रेस सत्ता में आती है, तब चुनाव के पहले यही कहा जाता है कि मुख्यमंत्री के चयन का मामला चुने हुए विधायकों पर ही होगा। वस्तुत: एसा होता नहीं है, कांग्रेस हो या भाजपा जब भी निजाम चुनने की बारी आती है तो फैसला हाई कमान पर छोड दिया जाता है। फिर इन चुने हुए जनसेवकों की राय का क्या महत्व। मुख्यमंत्री की कुर्सी पर वही काबिज होता है जो शीर्ष नेतृत्व की ”गणेश परिक्रमा” में उस्ताद होता है।
हाल ही में मध्य प्रदेश के दौरे के दौरान राहुल गांधी ने एक बार फिर कांग्रेस में अपनी स्थिति स्पष्ट की है। वे फिर यही बात दुहरा रहे हैं कि कांग्रेस में शीर्ष पर पहुंचने के लिए उनके परदादा से लेकर उनकी मां का राजनीति के शीर्ष में होना ही है। विदेशों में पले बढे राहुल गांधी भारत की जमीनी हकीकत से परिचित नहीं हैं। देश के इतिहास और सभ्यता के बारे में उन्हें अभी और स्वाध्याय की आवश्यक्ता है।
राहुल गांधी को चाहिए कि वे अगर वाकई में देश में राजनैतिक सिस्टम और परंपरा को बदलना चाह रहे हों तो एक नजीर पेश करें। वे साधारण कार्यकर्ता की तरह बर्ताव करें। उनसे वरिष्ठ नेताओं की कांग्रेस की सालों साल सेवा का सम्मान करते हुए सबसे पहले महासचिव पद को त्यागें। फिर साल दर साल कांग्रेस का झंडा उठाने वाले साधारण कार्यकर्ताओं को आगे लाने और लाभ पहुंचाने के मार्ग प्रशस्त करें।
भाषण देकर वे नैतिकता का पाठ पढा सकते हैं पर महात्मा गांधी ने लोगों को अपने जीवन के माध्यम से संदेश दिए थे, यही कारण है कि आज नेहरू गांधी परिवार से इतर महात्मा गांधी को ”राष्ट्र का पिता” का दर्जा दिया गया है। आप अपने परिवार के कारण राजनीति में आउट ऑफ टर्न प्रमोशन पाकर शीर्ष पर बैठ तो सकते हैं, देश की सत्ता की बागडोर भी अपने हाथों में ले सकते हैं, मीडिया में महिमा मण्डन करवाकर नेम फेम भी कमा सकते हैं, किन्तु जहां तक लोगों के दिलों में बसने का सवाल है तो उसके लिए तो आपको अपनी कथनी और करनी में एकरूपता लानी ही होगी।
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