Saturday, January 23, 2010

नज़्म/ मेरे महबूब

मेरे महबूब !

उम्र की
तपती दोपहरी में
घने दरख्त की
छांव हो तुम
सुलगती हुई
शब की तन्हाई में
दूधिया चांदनी की
ठंडक हो तुम
ज़िन्दगी के
बंजर सहरा में
आबे-ज़मज़म का
बहता दरिया हो तुम
मैं
सदियों की
प्यासी धरती हूं
बरसता-भीगता
सावन हो तुम
मुझ जोगन के
मन-मंदिर में बसी
मूरत हो तुम
मेरे महबूब
मेरे ताबिन्दा ख्यालों में
कभी देखो
सरापा अपना
मैंने
दुनिया से छुपकर
बरसों
तुम्हारी परस्तिश की है…

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