Saturday, January 16, 2010
कोलकाता उच्च न्यायालय के एक विवादास्पद फैसले से खड़ा हुआ संवैधानिक संकट
कोलकाता उच्च न्यायालय ने एक अजीबोगरीब फैसले में एक नाबालिग हिंदू लड़की के मतांतरण और निकाह को मुस्लिम शरीयाई कानून की तुला पर तौलते हुए विधिमन्य करार दिया है। निर्णय पर विवाद खड़ा हो गया है। जानकारों के अनुसार, निर्णय ने भारतीय संविधान को शरीयत के सामने एक बार फिर ताक पर रख दिया है।
मामला कुछ यूं है। पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद जिले के बहरामपुर की रहने वाली ज्योत्सना ने विगत साल 14 अक्तूबर को बहरामपुर पुलिसथाने में अपनी 15 वर्षीय बेटी अनीता रॉय की गुमशुदगी का मामला दर्ज कराया था। बाद में उन्हें पता चला कि बहरामपुर का ही 27 वर्षीय सईरूल शेख अनीता को भगा ले गया है और उसने अनीता का मतांतरण कर उसके साथ निकाह रचा लिया गया है।
पुलिस ने इस सूचना पर अभियुक्त की गिरफ्तारी के लिए दबिश देनी शुरू की। अभियुक्त सईरूल हसन ने इसके खिलाफ कोलकाता उच्च न्यायालय में अग्रिम जमानत के लिए याचिका दायर की। उच्च न्यायालय ने मुस्लिम शरीयाई कानून के अनुसार निकाह को वैध ठहराते हुए सईरूल के अग्रिम जमानत को मंजूरी दे दी। इसके बाद ही इस मामले पर विधि विशेषज्ञों समेत देश के बुद्धिजीवी वर्ग का ध्यान गया। बंगाल समेत देश के अनेक प्रांतों में इस निर्णय के संभावित दुष्परिणामों और संवैधानिक पहलुओं बहस होने लगी है।
यह निर्णय विगत 16 दिसंबर, 2009 को आया। इस पर मीडिया ने भी कोई खास ध्यान नहीं दिया जबकि अपनी प्रकृति में यह मामला असाधारण श्रेणी का था। इस संदर्भ में इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा कुछ वर्ष पूर्व दिए गए निर्णयों का उल्लेख जरूरी है। अपने एक निर्णय में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश में मुस्लिमों को अल्पसंख्यक श्रेणी से निकाल बाहर किया था, इसी न्यायालय ने गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ का दर्जा देने का भी एक फैसले में दिशानिर्देश कर दिया था।
तब देश भर की मीडिया में मानो हंगामा बरस पड़ा था। चूंकि निर्णय कई मामलों में भारतीय संविधान के सेकुलर ताने-बाने और मुस्लिम हितों के विपरीत था इसलिए न्यायालय के निर्णय की जमकर लानत-मलालत की गई। लेकिन कोलकाता उच्च न्यायालय द्वारा सईरूल-अनीता रॉय प्रकरण में दिए फैसले पर सब ने खामोशी ओढ़ रखी है।
यहां यह भी महत्वपूर्ण है कि एक ओर केरल उच्च न्यायलय ने राज्य में लव जिहाद की जांच के लिए बाकायदा आदेश पारित कर रखा है, केरल पुलिस ने अपनी प्राथमिक छानबीन में इस बात को सच माना है कि राज्य में मुस्लिम युवाओं का समूह अपनी हवस-पूर्ति के लिए हिंदू लड़कियों को अपने जाल में योजनाबद्ध तरीके से येनकेनप्रकारेण फांसने में जुटा हुआ है। जाहिर तौर पर एक राज्य में जब इस प्रकार से हिंदू लड़कियों का अपहरण कर, भगाकर निकाह रचाने की वर्ग विशेष की प्रवृत्ति और सुनियोजित षड्यंत्रों पर जांच चल रही हो तथा इसी प्रकार की घटनाएं देश के अन्य राज्यों में भी तेजी से घट रही हों, तब कोलकाता उच्च न्यायालय का इस प्रकार का निर्णय निश्चय ही साधारण नहीं कहा जाएगा। और यहां तो मामला नाबालिग हिंदू लड़की के मतांतरण और विवाह से जुड़ा हुआ है जो कि भारतीय संविधान की दृष्टि में अवैध है।
सईरूल शेख और अनीता रॉय का मामला अब केवल जबर्दस्ती अपहरण, बलात् मतांतरण और जबरन विवाह तक सीमित नहीं रह गया है, वरन् विशेषज्ञों के अनुसार, इस प्रकरण पर उच्च न्यायालय के रूख ने यह भी साबित कर दिया है कि भारतीय संविधान मुस्लिम शरीयाई कानून के सामने बिल्कुल बौना है। सर्वोच्च न्यायालय के अधिवक्ता पवन शर्मा के अनुसार, आखिर कोलकाता उच्च न्यायालय के न्यायाधीशद्वय न्यायमूर्ति पिनाकी चंद्र घोष एवं न्यायमूर्ति एस.पी.तालूकदार ने एक 15 साल की हिंदू किशोर लड़की को जबरन मुसलमान बनाकर एक मुसलमान के साथ उसके विवाह को मंजूरी कैसे दे दी? आखिर किस आधार पर एक अभियुक्त जो एक अवयस्क बालिका के अपहरण, मतांतरण करने का मुजरिम है, उसे गिरफ्तार करने की बजाए अग्रिम जमानत दे दी गई?
कोलकाता उच्च न्यायालय ने इस निर्णय के लिए मुस्लिम शरीयाई कानून का सहारा लिया। अभियुक्त के पैरोकार वकीलों ने न्यायालय के सम्मुख तर्क प्रस्तुत किया कि चूंकि लड़की ने स्वेच्छया से इस्लाम कुबूल कर लिया इसलिए 15 वर्ष की नाबालिग होते हुए भी शरीयाई कानून के अनुसार उसका निकाह मान्य है। सईरूल शेख ने उससे बाकायदा निकाह रचाया है और इसलिए उसके ऊपर अपहरण आदि का कोई मामला नहीं बनता है।
और इस तर्क को उच्च न्यायालय ने स्वीकार करते हुए अभियुक्त सईरूल शेख को अग्रिम जमानत दे दी। एक बार भी उच्च न्यायालय ने इस बात पर गौर नहीं किया कि भारतीय संविधान इस मामले के संदर्भ में क्या कह रहा है। भारतीय संविधान ने 18 वर्ष से कम उम्र की लड़की को नाबालिग माना है, उसके विवाह को आपराधिक कार्य की श्रेणी में रखा है। इस कानून के उल्लंघन में किसी को भी जेल की सजा का प्रावधान है। लेकिन इसके विपरीत कोलकाता उच्च न्यायालय ने अभियुक्त सईरूल शेख को पुलिस कार्रवाई से बचाए रख अपह्त 15 वर्षीया नाबालिग हिंदू लड़की अनीता रॉय के साथ मनमानी की छूट दे दी।
दो वर्ष पूर्व कोलकाता के रिजवानुर-प्रियंका के केस की चर्चा कोलकाता सहित समूचे देश में हर जुबां पर थी। रिजवानुर ने एक उद्योगपति परिवार की लड़की प्रियंका को भगाकर उससे निकाह कर लिया था। तब भी निकाहनामा न्यायालय में प्रस्तुत कर रिजवानुर को अपराधमुक्त करने का प्रयास हुआ था। बाद में रिजवानुर की छत-विछत लाश एक रेलपटरी के किनारे पड़ी मिली थी। मीडिया ने रिजवानुर की मौत को हत्या का मामला माना और अपने तौर पर गहरी छानबीन भी की थी लेकिन इस बार नाबालिग अनीता रॉय की मां ज्योत्सना की सुनने वाला कोई नहीं है जिसकी 15 साल की अबोध किशोरी को उससे उम्र में 11 साल बड़ा एक कामांध मुस्लिम पुरूष भगा ले गया।
ज्योत्सना पर तो मानो वज्राघात टूट पड़ा है। जिस न्यायपालिका से उन्हें न्याय की उम्मीद थी उसने ही उनके आंसू पोंछने से इनकार कर दिया है। उन्होंने सईरूल पर नाबालिग बेटी के अपहरण, मतांतरण और जबरन निकाह के आरोप में मुकदमा दर्ज कराया था। उनका मुकदमा ज़ायज था। कानूनन नाबालिग लड़की का विवाह तो नाजायज हो ही जाता है, इस कार्य में संलिप्त लोग भी जुर्म में बराबर के साझीदार माने गए हैं। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि नाबालिग को धर्मांतरण का अधिकार भी संविधान ने नहीं दिया है। लेकिन उच्च न्यायालय ने उनकी एक न सुनी।
उच्च न्यायालय ने यह कह कर कि मुस्लिम शरीयाई कानून के अन्तर्गत नाबालिग अनीता रॉय का विवाह मान्य है, पूरे मामले को विचित्र मोड़ दे दिया है। मामला अब संविधान बनाम शरीयत का हो गया है। भारतीय संविधान तो न नाबालिग के निकाह को मान्य कर रहा है और न ही उसके धर्मांतरण को। जहां तक शरीयत का सवाल है तो मुस्लिम वर्ग के निजी मामलों में इसका प्रयोग किया जाता है। जहां सवाल एक हिंदू परिवार के हितों से जुड़ जाता है तो फिर वहां शरीयत का दखल कितना जायज अथवा नाजायज है, यह सवाल सहज ही खड़ा हो जाता है। किसी हिंदू परिवार और मुस्लिम परिवार के मध्य के विवाद में फैसला देने के लिए शरीयत को किस संविधान ने स्वीकृत किया है? जाने अथवा अनजाने उच्च न्यायालय ने खुद ही शरीयत के सामने संविधान को नकारा है।
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