सामान्यतया बौद्धिक वैचारिक सेमिनार आदि औपचारिक किस्म के होते हैं। विषय चाहे जितना गंभीर या शोकप्रद हो आपको पुष्पगुच्छ, स्वागत-गान आदि देखने को मिल ही जायेंगे। छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद ख़ास कर “सलवा जुडूम” पर कुछ समय पहले दिल्ली आयोजित एक सेमिनार का याद आ रही है जो देखते ही देखते अनौपचारिक सा हो गया था। छत्तीसगढ़ के सुदूर अंचल सुकमा से आये एक पीड़ित ने जब अपनी व्यथा-कथा अपने टूटे-फूटे शब्दों में सुनाना शुरू किया तो सभी उपस्थित जनों की आंखें नम हो गई थी। अपने पति के जघन्य हत्या की गवाह एक अन्य आदिवासी महिला जब बुक्का फाड़कर रोने लगी और नक्सलियों द्वारा किये जा रहे कुकृत्य से लोगों को अवगत कराया तो भौंचक से रह गये कई दिल्लीजन। आश्चर्य लगा उनको कि देश के किसी कोने में किसी विचार के नाम पर ऐसा भी कुकृत्य किया जा रहा है, या उन कुकर्मियों के विरूद्ध “सलवा-जुडूम” जैसा कोई आंदोलन भी चल रहा है।
परंतु अंतत: राष्ट्रीय राजधानी के उस नक्कारखाने में तूती की तरह ही साबित हुई उन लोगों की आवाज। मुबंई की रामभाऊ म्हालगी प्रबोधनी द्वारा आयोजित इस सेमिनार को दिल्ली में आयोजित करने का ध्येय था कि स्वतंत्रता बाद के सबसे अनूठे इस आंदोलन सलवा जुडूम से देश अवगत हो तथा संपूर्ण देश वनवासी बंधुजनों से एकात्म होकर उन्हें नैतिक समर्थन प्रदान करें। प्रायोजक की ये सोच भी रही होगी कि राष्ट्रीय मीडिया भी इस मामले में अपनी भूमिका का निर्वाह कर अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे बस्तरजनों को संबल प्रदान करें।
आदिवासी जनों का दुर्भाग्य कि सेमीनार का दिन 14 फरवरी था। सो एक तो बाज़ार के प्रति महती जिम्मेदारी का बोझ अपने नाज़ुक कंधे पे उठाता “राष्ट्रीय” कहा जाने वाला मीडिया और ऊपर से ऐन वेलेन्टाईन डे का “पावन पर्व”! उस दिन कौन-सा अखबार या दृश्य मीडिया इस सेमीनार को कवर करने का “जोखिम” उठाता। जब महानगर के सारे उद्यान नवयुवक-यौवनाओं से गुलजार हो। जब आपको आठ-आठ कॉलम में छापने के लिए उत्तर आधुनिकाओं के अधर-चुंबन का चित्र सहज ही उपलब्ध हो, एक दूसरे से लिपट-चिपट रहे नग्नप्राय युगलों की “स्टोरी” जब घंटों परोसकर संपूर्ण देश को “जागरूक” करने का मसाला आपके पास उपलब्ध हो, तो कौन फिकर करता है देश के किसी कोने से उठ रहे ऐसे आवाज की? कौन कंपनी विज्ञापन देगी ऐसे किसी दीन-हीन से दिख रहे “काले-कलूटे” लोगों को कवर करने के लिए? ऐसे किसी खबरों से थोड़े किसी चैनल की रेटिंग बढऩी है?
उस “गोरे” समाचार माध्यम से किसी सामाजिक सरोकारों की उम्मीद पूरी नहीं होने पर हम अपनी भड़ास निकाल रहे हो ऐसी बात नहीं है। निश्चित ही बस्तर जैसे दूर-दराज़ के अंचल के वनवासीगण ऐसे किसी मीडिया के “कारण” बल्कि उसके “बावजूद” ज़िंदा हैं और रहेंगे। खून तो तब खौल उठता है जब वो पतित मीडिया, प्रदेश को बदनाम करने के लिए अपनी सारी ऊर्जा लगा देता है। तमाम तरह के झूठ की खेती कर जब कलम के ये व्यापारीगण जब अंचल पर डाका भी डालना शुरू करते हैं, नक्सलियों को प्रश्रय देने में प्रदेशभक्त मीडिया का इस्तेमाल ना कर पाने पर जब बौखला कर अनाप-शनाप लिखने लगते हैं, या मासूम आदिवासीयों की हत्या पर उफ़ तक ना करने वाले ये वहशी एक नक्सली की कानूनी गिरफ्तारी पर भी आसमान सर पर उठा लेते हैं। गांधीवाद को बेच खाने वाले हिमांशु जैसे लोगों का समर्थन करना शुरू करते हैं।
खैर! दिनभर के चिंतन एवं प्रस्तुतिकरण के बावजूद उस सेमीनार में जिस प्रश्न को अनुत्तरित रह जाना था, वह यह कि नक्सली आखिर क्यों मार रहे हैं इन मासूमों को! एर्राबोर के शिविर में एक साल की “ज्योति कुट्टयम” को मारकर वह क्या साबित करना चाहते हैं? दिनभर की हाड़तोड़ मेहनत करने के बाद भी मुश्किल से दो मुट्ठी भात का इंतजाम कर सकने वाले उन निरीह लोगों को मारकर किस ‘”सर्वहारा” राज्य की स्थापना करना चाहते हैं ये कुकर्मी। तथाकथित वर्ग संघर्ष की कौन सी स्थिति उपलब्ध है वहां पर? शोषण के विरूद्ध आवाज उठाने का दम भरने वाले इन नक्सली विरप्पनों का क्या शोषित कर लिया इन भोल-भाले आदिवासियों ने? उनके ‘”बुर्जुआ” की परिभाषा में कहां टिकते हैं ये मेहनतकश! क्या कोई सरफिरा पागल भी उन वनवासीजनों को ”शोषक” कह सकता है?
यदि वैश्विक स्तर पर इनके विचारों की बात करे, तो आप वितृष्णा से भर जायेंगे। पता नहीं ”द्वंदात्मक भौतिकवाद” किस चिडिय़ा का नाम रखा है इनके आकाओं ने, परंतु इनके नक्सलियों, अमानवाधिकारियों एवं एक्टिविस्ट मीडिया के “दोगले बाजारवाद” को समझने की जरूरत है। यही तथाकथित माओवादी, छत्तीसगढ़ में लोकतंत्र के खिलाफ लडऩे की बात करते हैं, वहीं नेपाल में उन्होंने “लोकतंत्र” के लिए हिंसक आंदोलनों का दौर चला रखा था, सत्ता की संभावना दिखते ही इनकी लार टपकने लगी और वहां के कांग्रेस के साथ मिलकर सत्ता की बंदरबांट में लग गये। जिस पूंजीवाद के विरूद्ध वामपंथी विचारों का जन्म हुआ था, उन्हीं पूंजिवादियों के लिए तो इनकी सरकार बंगाल में लाल कालीन बिछाये हुए थी! सिंगूर में उपजाऊ जमीन अधिग्रहित कर इन्होंने तो अपने दो मुंहापन का परिचय दे ही दिया। जिस धर्म को ये अफीम मानते हैं, उसी धर्म के नाम पर दुनिया में हिंसा का नग्न तांडव करने वाले अफजलवादियों के लिए पैरवी करते उन्हें अहिंसा की याद आ जाती है और तब उस अफीम रूपी थूक भी चाटना इन्हें प्यारा लगने लगता है। इतने विश्लेषण के बाद जाकर थोड़ी सी बात समझ में आती है कि इनका मूलमंत्र है देशद्रोह और सत्ता के लिए संघर्ष। इनके देशद्रोहिता के संदर्भों से तो खैर इतिहास भरा पड़ा है। यह स्थापित तथ्य है कि केरल के वामपंथी मंत्रियों को आदेश के लिए मास्को का दौड़ लगाना पड़ता था या चीनी आक्रमण के बाद भी इन्हें “माओ” को अपना चेयरमैन बताने में कोई गुरेज नही था। उस माओ को जो विश्व इतिहास का सबसे बड़ा तानाशाह था जिसने शांति काल में 7 करोड़ लोगों की क्रांति विरोधी होने के नाम पर हत्या करवायी। कुख्यात तानाशाह हिटलर, मुसोलिनी तो माओ के आगे कुछ नहीं थे।
वैसे आपको माओवादी, नक्सली, वामपंथी, मार्क्सवादी आदि सभी मुखौटे चाहे अलग-अलग दिखें, लेकिन थोड़ा सा विचार करने पर आपको उन सभी के लक्ष्य में साम्यता दिखेगी। आपको महसूस होगा कि ये सब अलग-अलग गिरोह अंतत: एक ही लक्ष्य के लिए खून की नदियां बहाने तैयार हैं और वह है किसी भी तरह से सत्ता पर कब्जा जो बकौल इनके आका बन्दूक की नली से निकलती है। इस गिरोह में आपको (अ)मानवाधिकारवादी, अफजलवादी, अभिव्यक्ति को उच्छृंखलता प्रदान करने वाले मीडियावादी और लोकतंत्र में आस्था का स्वांग रचने को मजबूर मार्क्सवादी सभी मिल जायेंगे। आपको ताज्जुब होगा, अपने जन-जंगल-जमीन, अपनी संस्कृति को खोने के बाद जान बचाने को शिविर में रहने को मजबूर गरीब आदिवासी की आवाज ये भले न छापे, लेकिन नक्सलियों के प्रेस विज्ञप्ति को संपादकीय आलेख बनाकर छापने वाले जनद्रोही आपको गली-कूचे में मिल जायेंगे। इन मजलूमों की हत्या भले ही मानवाधिकार का हनन न होता हो लेकिन एक नक्सली के वध पर हायतौबा मचाने वाले स्वयंभू संगठन आपको कुकुरमुत्ते की तरह उगे मिलेंगे। वैश्विक स्तर पर फैले इन गुंडों के गिरोह का सफाया लोकतंत्र के लिए अत्यावश्यक है।
यदि पुन: छत्तीसगढ़ की बात करें, तो इससे कोई इनकार नहीं करेगा कि बिचौलियों, व्यवसायियों ने छत्तीसगढ़ का जमकर शोषण किया है। दुनिया के सबसे अमीर धरती में से एक इस अंचल के संसाधनों से निश्चय ही भोपाल और दिल्ली गुलजार होता रहा है, और यहां के माटीपुत्र अन्न वस्त्र को मुंह ताकते रहे हैं। लेकिन आज स्थितियां बदली है, समस्याओं को दूर करने की दिशा में सार्थक प्रयास भी किये जा रहे हैं। अलग राज्य की स्थापना के बाद यहां के संसाधनों के उचित उपयोग का मार्ग भी प्रशस्त हुआ है। बावजूद इसके विसंगतियां कई हो सकती हैं। हो सकता है आपके पास कुछ अच्छे विचार हों जिसे लागू कर प्रदेश के विकास का मार्ग प्रशस्त किया जा सकता है। लेकिन विश्व के इस महान लोकतंत्र में आपके बुलेट की आवाज निश्चय ही आपका सर्वनाश करके ही दम लेगी। आखिर जिस आदिवासीजनों के नाम पर आपने अपनी दुकान खोल रखी है उन्हें ही मारकर आप किस शांति का सूत्रपात करने का प्रयास कर रहे हैं? अंचल की जिस थाली में आप खा रहे हैं, उनमें ही छेदकर तो आप जानवर कहलाने लायक भी नहीं बचे हैं। शांतिप्रिय वनवासीजनों के द्वारा नक्सलियों के विरुद्ध आरम्भ आन्दोलन का संदेश यही है कि सत्ता किसी भी वंश या विचार की बपौती नहीं है। यह आंदोलन आपके समक्ष यही चुनौती प्रस्तुत करता है कि यदि वास्तव में दम है आपमें, प्रासंगिकता है आपके विचारों की, वास्तव में जनसमर्थन है आपके साथ, तो बुलेट नहीं बैलेट का सहारा लेकर अपनी सत्ता स्थापित करें।
समाज की मुख्य धारा में शामिल हों। लाख बुराईयों के बावजूद भारत के लोकतंत्र का डंका सारी दुनिया में बजता है, यहां की चुनाव प्रणाली विकसित देशों को भी प्रेरणा एवं दिशा प्रदान कर रही है। जिस कथित जनसमर्थन की बात आप करते हैं उसे साबित करने का लोकतंत्र ही एकमात्र जरिया है।
भूमिपुत्रों का नक्सलियों के विरुद्ध शांतिपूर्ण शंखनाद, यह आंदोलन राह से भटके लोगों को जहां मुख्यधारा में शामिल होने का अंतिम अवसर प्रदान करता है, वहीं भोले-भाले लोगों को बरगला कर अपना उल्लू सीधा करने वाले “विरप्पनों” को यह चेतावनी भी देता है कि यथाशीघ्र अपनी आतंक की दुकान समेट लें अन्यथा उन्हें अपनी बर्बादी पर दो बूँद आंसू भी नसीब नहीं होंगे।
उपरोक्त का आशय यह है कि बौखलाये हुए इन अपराधियों के विरूद्ध आर-पार की लड़ाई लडऩे का समय आ गया है। इन नक्सलियों के विरूद्ध समाज के सभी तबकों को एकजुट होना होगा। समाज के तथाकथित प्रगतिशील जनवादी पत्रकारों, बुद्धिजीवियों से तो कोई अपेक्षा नहीं ही की जा सकती, लेकिन नक्सली आतंक के विरूद्ध तटस्थ रुख अपनाने वाले समाज के सभी पक्षों से जरूर यह आशा है कि स्वयं में मगन न रहें, अपनी चुप्पी और तटस्थता छोड़ें। मार्टिन लूथर किंग ने कहा था दुनिया के किसी भी कोने में हो रहा अन्याय सारी मानवता के लिए खतरा है। भोले-भाले सीधे-सच्चे वनवासियों के अस्तित्व के इस धर्मयुद्ध में तटस्थ देशवासियों को समझना होगा….समर शेष है नहीं पाप का भागी केवल ब्याध। जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध॥
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